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अक्तूबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी

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स्वयंभू मनु  के पुत्र राजा उत्तानपाद की दो पत्नियां सुनीति और सुरुचि थी। सुनीति से ध्रुव  और सुरुचि से उत्तम नाम के दो पुत्र थे । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी परंतु राजा को अत्यधिक प्रेम अपनी छोटी रानी सुरुचि से था । एक बार बालक ध्रुव अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठा हुआ था तभी रानी सुरुचि वहां आई । जब उसने अपनी सौतन के पुत्र को अपने पति की गोद में बैठा हुआ देखा तो वह डाह से जलने लगी और क्रोध में आकर पांच वर्ष के बालक ध्रुव को पिता की गोद से हटा कर अपने पुत्र उत्तम को बैठा दिया और बोली राजा की गोद और सिंहासन पर बैठने का हक सिर्फ मेरे पुत्र को हैं ।                बालक ध्रुव को अपनी विमाता के इस व्यवहार से बहुत ज्यादा दुख हुआ और वह दौड़ा-दौड़ा अपनी माता सुनीति के पास पहुंचा और सारी बातें बताई । तब माता सुनीति ने कहा - ''पुत्र ! अगर स्थान ही पाना है तो सबसे श्रेष्ठ स्थान पाने की कोशिश करो । भगवान विष्णु की शरण में जाओ उन्हें अपना सहारा बनाओ । बालक ध्रुव के मन में अपनी माता की बातों का गहरा असर पड़ा और वह पांच वर्ष का बालक उसी समय घर छोड़कर चल पड़ा । रास्ते में उसे नारद मु

सृष्टि रचना

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सभी जानते हैं कि, ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की है परंतु जब पहलेे-पहल उन्होंने सृृष्टि रची तो उसमें विकास था ही नहीं । न किसी का जन्म और न ही किसी की मृत्यु होती थी । पहले ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि रचना का संकल्प लिया तो उनके मन से मरीचि , नेत्रों से अत्रि ,मुख से सरस्वती, कान से पुलस्तय, नाभि से पुलह , हाथ से कृतु , त्वचा से भृगु , प्राण से वशिष्ठ , अंगूठे से दक्ष, तथा गोद से नारद उत्पन्न हुए । इसी प्रकार उनके दाएँ स्तन से धर्म , पीठ से अधर्म, ह्रदय से काम, दोनो भौंहों से क्रोध, तथा  नीचे के ओंठ से लोभ उत्पन्न हुए । इस तरह यह संपूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुआ । एक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी अपनी मानस पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गए और उन्हें अपनी पत्नी बना लिया जिससे मनु का जन्म हुआ। जब जल प्रलय हुआ और पृृथ्वी पर जीवन मृृत्यु का चक्र चलना शुरू हुआ  तो मनु पृथ्वी के प्रथम मानव बनेें । इसलिए मनु को आदिमानव भी कहा जाता है। मनु का विवाह शतरूपा से हुुुआ । दोनों के पांच संतानें हुई :- उत्तानपाद , प्रियव्रत , आकूति , देवहूती और   प्रसूति  । मनु की तीनों पुत्रि

शिव की उत्पत्ति

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विष्णु पुराण के अनुसार शिव की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा हुई थी। उस समय ब्रह्मा जी को एक बालक की आवश्यकता थी तो उन्होंने इसके लिए तपस्या की । तब अचानक ब्रह्मा जी के गोद में एक रोता हुआ बालक प्रकट हुआ । उन्होंने उस बालक से रोने का कारण पूछा तो बालक ने बड़ी मासूमियत के साथ जवाब दिया कि उसका कोई नाम नहीं है इसलिए वह रो रहा है। तब ब्रह्मा जी ने उसका नाम रूद्र रखा परंतु फिर भी बालक चुुुप न हुआ तब ब्रह्मा जी ने बालक को चुुुप कराने के लिए आठ नाम दिए - रूद्र, शर्व,भाव,उग्र ,भीम ,पशुपति ,ईशान और  महादेव । इस कथा में एकमात्र शिव के बाल रूप का वर्णन हैै । शिव के इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जन्म लेने के पीछे भी विष्णु पुराण में एक कथा है जिसके अनुसार जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति नहीं हुई थी और चारों ओर सिर्फ़ जल ही जल और घना अंधेरा था उस समय विष्णु जी शेषनाग पर लेटे हुए थे तभी उनकी नाभि से कमल में बैठे ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए । ब्रह्मा और विष्णु जी जब सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बातें कर रहे थे तो शिव जी प्रकट हुए । ब्रह्मा जी ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया तब शिव जी के क्रो

बिम्बिसार

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मगध के राजा बिम्बिसार गौतम बुद्ध के सबसे बड़ेे प्रश्रयदाता और अनुयायीयों में से एक थे । जब बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थी उसी समय बिम्बिसार ने सन्यासी गौतम को एक बार देखा था और उन्हें अपने राजमहल में आमंत्रित भी किया था परंतु उस समय गौतम बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया । बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद बिम्बिसार ने फिर से उन्हें अपनी राजधानी राजगीर आने का निमंत्रण भेजा तो इस बार बुद्ध ने स्वीकार कर लिया।                                   बुद्ध अपने कुछ अनुयायियों के साथ राजकीय अतिथि बनकर राजगीर आते हैं । बिम्बिसार बुद्ध की बहुत आवभगत करते हैं और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक बुद्ध के उपदेशों को मानते थे परंतु उनकी मृत्यु बहुत ही दुखद हुई थी । जिस पुत्र को उन्होंने इतने लाड-प्यार से पाला था उसी ने उन्हें इतनी दर्दनाक मृत्यु दी थी। बुद्ध का भाई देवदत्त राजा बिम्बिसार द्वारा बुद्ध को प्रश्रय देने के कारण उनसे बहुत क्रोधित था और इसलिए उसने अजातशत्रु  को अपने पिताा के ही खिलाफ भड़का कर उनकी मृत्यु का षड़यंत्र रचा ।                                    

धैर्य की परीक्षा

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एक बार महात्मा बुद्ध किसी सभा में प्रवचन देने गए। उस समय वहां करीब सौ डेढ़ सौ लोगों की भीड़ होगी और लोग तो आ ही रहे थे । उस दिन बुद्ध ने कुछ खास नहीं बोला और जल्द ही वहां से चले गए। अगले दिन कुछ लोग कम दिखाई पड़े । पिछले दिन की तरह ही बुद्ध आज भी बिना कुछ बोले ही वहां से चल दिए। वहां मौजूद सभी लोग बहुत मायूस हो गए और बुद्ध के शिष्यों को भी उनके इस व्यवहार से बहुत आश्चर्य हुआ । ऐ सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा। लोग आते और मायूस होकर चले जाते फलस्वरूप दिन प्रतिदिन लोगों ने आना कम कर दिया ।                                           अंततः एक दिन ऐसा हुआ कि बस चौदह लोग आए । उन चौदह लोगों को बुद्ध ने गौर किया था कि वे शुरू से ही आते हैं और आज भी रोज की तरह आकर बैठे थे।  उस दिन बुद्ध ने अपना प्रवचन उन चौदह लोगों को दिया और वे सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए । महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने जब उनसे इस बात का कारण पूछा तो बुद्ध बोले - "मुझे भीड़ इकट्ठी करके क्या करना है?उतने ही लोगों को मैं शिक्षा दूंगा जो उसे ग्रहण कर सके। धर्म के मार्ग पर चलने के लिए धैर

बुद्ध और उनकी पत्नी यशोधरा

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ज्ञान की प्राप्ति के बाद राजकुमार सिद्धार्थ  को बुद्धत्व  की प्राप्ति होती है और वे एक सामान्य व्यक्ति से सिद्ध पुरुष के रूप में जाने जाते हैं । चारों ओर उनकी प्रसिद्धि बढ़ जाती है , वे जहां भी जाते हैं लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है , उनका प्रवचन सुनने के लिए। बुद्ध के महात्मा बनने की जानकारी उनके पिता राजा शुद्धोधन को भी होती हैै फलस्वरूप वे कई बार दूत भेजते हैं उन्हें बुलाने के लिए परंतु जो भी दूत बुद्ध को लेने आता है, वह भी बुद्ध से प्रभावित होकर बौद्ध भिक्षुक  बन जाता है । अंत में राजा शुद्धोधन ने बुद्ध के बचपन के मित्र कालुदायी को दूत बनाकर बुद्ध के पास भेजा । हर बार की तरह ही वह भी बुद्ध के संपर्क में आते ही उनका शिष्य हो गया परंतु फिर भी कालुदायी हमेशा बुद्ध को अपनी जन्मभूमि एक बार जाने के लिए प्रेरित करता रहा। अतः कालुदायी का प्रयास सफल हुआ और बुद्ध कपिलवस्तु  जाने के लिए तैयार हुए ।        कपिलवस्तु पहुंच कर बुद्ध ने वहां के लोगों को अपने उपदेश सुनाए । अगले दिन नियमानुसार वे भिक्षाटन के लिए निकले । जब उनकी पत्नी यशोधरा को पता चला कि बुद्ध क

बुद्ध और नीलगिरी हाथी

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गौतम बुद्ध का चचेरा भाई देवदत्त उनसे बचपन से ही बहुत जलता था । पहले तो उसने बुद्ध को नीचा दिखाने की हर कोशिश की परंतु जब वह सफल नहीं हो सका तब वह बुद्ध को मारने का षडयंत्र रचने में लग गया । एक बार जब बुद्ध मगध में थे तो देेेेवदत्त भी उनको मारने के इरादे सेे मगध पहुुंचा । वह हर समय इसी धुन में रहता कि कैसे बुद्ध को अपने रास्ते से हटाया जाए । एक दिन उसने बुद्ध को भिक्षाटन करते हुए देखा तभी उसके दिमाग में एक नई तरकीब सूझी। देवदत्त रात को मगध के अस्तबल में गया और नीलगिरी नाम के एक विशाल हाथी को बहुत सी मदिरा पिलाई। अगले दिन सुबह जब बुद्ध भिक्षाटन के लिए निकले तो देवदत्त ने उस हाथी  को बुद्ध के रास्ते में छोड़ दिया । इस तरह एक मदमस्त हाथी को सड़क पर छोड़ देने से चारों ओर अफरा तफरी मच गई । सभी अपनी-अपनी जान बचाकर इधर-उधर भागने लगे तभी एक स्त्री इस भागदौड़ में अपने छोटे बच्चे को गलती से हाथी के आगे छोड़ भागने लगी । बच्चा हाथी को अपनी तरफ आते देख जोर-जोर से रोने लगा । आसपास लोग यह सब देख रहे थे परंतु किसी में इतनी शक्ति न थी कि वे जाकर उस बच्चे को बचाए । 

समुद्र मंथन की कथा

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एक बार राजा बलि के नेतृत्व में दैत्यों की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्र को हराकर वहां भी अधिकार कर लिया । अब तीनों लोकों में असुरों का साम्राज्य फैल गया और देवराज इन्द्र उस समय दुर्वासा ऋषि के श्राप से कमजोर हो चुके थे । जब देवताओं को कुछ समझ नहीं आया तो वे अपनी समस्या लिए सृष्टि के पालनहार देवता विष्णु जी के पास गए । उन्होंने देवताओं से कहा कि वे असुरों से अभी संधि कर ले और उनके साथ मिलकर  समुद्र मंथन करे । इसमें चौदह रत्नों की प्राप्ति  होगी जिसमें से एक अमृत भी होगा । (चूँकि देेेवता उस समय कमजोर हो गए थे इसलिए विष्णु जी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा। ) जब अमृत मिल जाएगा तो देवता उसे पीकर अमर और शक्तिशाली हो जाएँगे तत्पश्चात असुरों को हराना संभव होगा । देवताओं ने विष्णु जी के कहे अनुसार असुर राज बलि से अमृत निकलने की बात की और कहा कि वे अभी संधि कर ले क्योंकि अमृत पाने का यही मौका है और वह मान भी गया । क्षीर सागर में समुद्र मंथन शुरू हुआ । मन्दराचल पर्वत को मथंंनी और वासुकी नाग को नेती बनाया गया । वासुकी नाग को कष्ट न हो इसलिए भगवान वि

भगवान विष्णु के दशावतार

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हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव  त्रिदेव माने जाते हैंं । ब्रह्मा को सृष्टि का सृजनकर्ता तथा शिव को संहारक माना गया है। विष्णु सृष्टि के पालनहार देवता हैं । विष्णु जी की धर्मपत्नी माता लक्ष्मी  है और इनका निवास स्थान क्षीर सागर है जहां वे शेषनाग  पर विश्राम करते हैं । विष्णु जी की नाभि से ही ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई है । अपने ऊपरी दाएँ हाथ में विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र धारण कर रखा है तथा नीचे के दाएँ हाथ में गदा लिए है। बाएं हाथ में क्रमश कमल और शंख धारण किये हुए हैं । भगवान विष्णु के अवतार लेने का कारण उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता  मेंं बताया है । उन्होंने स्वयं कहा है कि " संसार में जब जब धर्म की हानि और पाप की जय होगी तब तब मैं इस संसार को पाप और पापियोंं से बचाने और फिर सेे धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित होता रहूँगा ।" श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार होंगे - मत्स्यावतार , कूर्मावतार , वराहवतार, नरसिंहवतार, वामनावतार, परशुरामवतार, रामवतार,कृष्णावतार,बुद्धवतार और कल्कि अवतार ।  मत्स्या

मलिक मुहम्मद जायसी

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अवधी भाषा में लिखी प्रसिद्ध पुस्तक 'पद्मावत' के लेखक और लोकप्रिय सूफ़ी संत मलिक  मुहम्मद जायसी का जन्म आधुुुनिक उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जायस नामक गांव में 1397ईसा से 1494ईसा के बीच हुआ था । इनके पिता एक मामूूूली किसान थे और खुद मलिक साहब भी खेती ही करते थे । आरंभ से ही इनका झुकाव सूफ़़ी मत की ओर था और बेटे की आकस्मिक मृत्यु से दुुखी होकर फकीर बन गए । मलिक साहब के गुरु चिश्ती वंश के सैयद अशरफ थे जिन्होंने उनकों अपना चेला बनाकर सच्चाई की राह दिखाई। जायसी एक उच्चकोटि के विद्वान और सरल ह्रदय संत थे लेकिन वे देखने में बहुत ही कुरूप और काने थे । एक बार दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी ने मलिक साहब के बारे में काफ़ी कुछ सुन रखा था, उनसे मिलने पहुंचे । शेरशाह मलिक साहब का कुरूप चेहरा देखकर हंसने लगा तब उन्होंने बहुत ही शांत भाव से पूछा कि 'तुम मुझ पर हंस रहे हो या मुझे बनाने वाले कुम्हार (ईश्वर ) पर हंस रहे हो ?'                            शेरशाह मलिक साहब की बात सुनकर बहुत लज्जित हुआ और उनसे माफी मांगी। जायसी ने तीस वर्ष में काव्य रचना की

चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग-3

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चन्द्रगुप्त की शिक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य चाणक्य की देखरेख में पूर्ण हुई । उन्होंने चन्द्रगुप्त को हर विपत्ति से लड़ने के लिए तैयार किया क्योंकि उनका लक्ष्य आसान नहीं था । मगध जैसे शक्तिशाली राष्ट्र को जीतना कोई बच्चों का खेल न था । मगध का राजा घनानंद नीच जन्मा और क्रूरता से भरा हुआ था इसलिए उसके राज्य की प्रजा में असंतोष व्याप्त था । वह अत्यधिक धन का लोभी था इसलिए उसने अपने राज्य में करों को भी बढ़ा दिया था । यहां तक कि वह मुर्दा जलाने के लिए भी कर वसूली करता था । उसे अपने राज्य के सुरक्षा की कोई चिंता नहीं थी ,सारा भार उसके अमात्य प्रमुख ' मुद्राराक्षस ' पर था ।                               पोरव राष्ट्र के राजा पोरस से सिकंदर का भयंकर युद्ध हुआ परंतु दोनों को अंतिम में संधि करनी पड़ी। जब सिकंदर अपनी सेना के साथ व्यास नदी पार कर मगध पर आक्रमण करना चाहता था तो आचार्य चाणक्य ने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त की मदद से सिकंदर की सेना में बहुत भ्रम फैलाया। चन्द्रगुप्त ने ग्रीक छावनी में जाकर उनके राष्ट्र ध्वज को जला दिया जिससे सैनिकों के मन में डर पैदा हो गया क्योंक

आदिकवि वाल्मीकि

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बहुत पहले की बात है,एक बार देवर्षि नारद मुनि किसी जंगल से गुज़र रहे थे तभी उन्हें पीछे से किसी ने दबोचा । वे अचानक कुछ समझ नहीं सके और खुद को बचाने की कोशिश की । जब उन्होंने पकड़ने वाले व्यक्ति को देखा तो उन्हें एक खूंखार सा दिखने वाला आदमी खड़ा देखा। उस व्यक्ति ने नारद जी को एक पेड़ से बाँध दिया और कहा कि जो भी तुम्हारे पास है वह मुझे दे दो नहीं तो तुम्हें जान से मार दूंगा । नारदजी - हे वत्स! तुम कौन हो और मुझसे क्या मांग रहे हो? रत्नाकर (डाकू ) - मैं एक डाकू हूँ और इस जंगल से आने-जाने वाले व्यक्तियों को पकड़कर उनका धन लुटता हूँ । तुम्हारे पास भी जो है मुझे दे दो अन्यथा अच्छा नहीं होगा । नारदजी - क्या तुम जानते हो कि तुम जो कार्य कर रहे हो वह बहुत बड़ा पाप है ? रत्नाकर - मुझे नहीं पता कि मैं पाप कर रहा हूँ या पूण्य । बस मुझे इतना पता है कि इससे मेरी और मेरे परिवार की जरूरत पूरी हो रही है। नारदजी - अच्छा तो यह नीच कार्य जो तुम कर रहे हो अपने परिजनों के लिए जरा उनसे पूछो कि वे इस पाप में तुम्हारे भागीदार बनेंगे? क्या वे तुम्हारे पापों का बोझ लेने के लिए तैयार है  ? रत्न

चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग-2

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घनानंद द्वारा अपमानित किए जाने पर आचार्य चाणक्य ने अखंड प्रतिज्ञा की कि वे संपूर्ण 'नंद वंश ' का सर्वनाश कर देेंगे और मगध को एक सुुुयोग्य शासक के हाथों सौंपेंगे जो सारे भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधकर रखेगा और वक्त आने पर अपने देश की रक्षा विदेशी आक्रमणकर्ताओ से करेगा । आचार्य चाणक्य की खोज 'चन्द्रगुप्त मौर्य '  पर खत्म हुुुई ।                                  नंद के दरबार से अपमानित होने के बाद चाणक्य कुछ समय पाटलिपुत्र में ही रहे।  एक बार जब वे एक स्थान से गुज़र रहे थे तो उन्होंने एक तीक्ष्ण बुद्धि वाले बालक को देखा जो खेल -खेल में राजा बना हुआ था । बाकी सारे बालक उसकी प्रजा का अभिनय कर रहे थे । वह छोटा बालक इतनी सूझ बूझ वाला था कि आचार्य उसकी प्रतिभा देखते ही पहचान गए और उसके पास जाकर उसका नाम तथा माता-पिता के बारे में पूछा । बालक ने बडी विनम्रता के साथ जवाब दिया  - ब्राहमण देव! मेरा नाम चन्द्रगुप्त है और मेरी माता का नाम मुरा हैं।  मैं अपने मामा और अपनी माता के साथ पास के कबीले में रहता हूँ । मेरे पिता राजा घनानंद की सेना में थे और युद्ध मे मारे गए

चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग -1

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326ईसा पूर्व में सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। किसी राजा मे इतना सामर्थ्य न था कि वह अकेला सिकंदर की सेना को टक्कर दे सकें । भारत के सभी छोटे राज्यों के राजा आपस में शत्रुता का भाव रखते थे। सभी अपनी-अपनी सीमाएं बढ़ाना चाहते थे किसी में एकता की भावना न थी और न कोई संपूर्ण भारत को ही अपना देश समझता था ।                              जब सिकंदर ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया तो तक्षशिला का राजा आम्भिक डर गया और बिना युद्ध किए ही सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली और उसकी हर प्रकार से सहायता करने लगा। उस समय तक्षशिला विद्या और कला की नगरी हुआ करती थी । तक्षशिला विश्वविद्यालय में दूर -दूर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आया करते थे। विश्वविद्यालय में एक से एक शिक्षक थे जिनमें से एक महान शिक्षक और व्यक्तित्व का नाम था 'आचार्य चाणक्य '  । चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के शिक्षक और विचारक थे । उन्हें तक्षशिला नरेश आम्भिक का इस प्रकार बिना युद्ध लड़े किसी विदेशी आक्रमणकर्ता की अधीनता स्वीकार कर लेना अच्छा नहीं लगा । उन्होंने आम्भिक

विक्रमादित्य का सिंहासन और राजा भोज

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प्राचीन काल में लगभग 1010 से 1055 ईसा की बात है, तब अति प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी में परमारवंशीय राजा राजा भोज का शासन था । राजा भोज अपनी न्याय प्रियता और कुशल शासन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने उज्जयिनी की जगह धार को अपनी नई राजधानी बनाया था । उनके कार्यों के वजह से उन्हें 'नव विक्रमादित्य '  भी कहा जाता है।                                        उनकी नगरी में एक ऊँचा टीला था जिसपर बैठकर एक बालक बड़ी चतुराई से न्याय करता था । एक बार कि बात है, राजा भोज उस टीले के पास से गुज़र रहे थे, तब भी वह बालक वहां बैठकर अपने मित्रों के झगड़े का समाधान बड़ी गंभीरता के साथ कर रहा था। उसने ऐसे चतुराई के साथ न्याय किया कि राजा देखकर आश्चर्यचकित हो गए । एक छोटा बच्चा कैसे इतनी सहजता से उचित न्याय कर सकता है । राजा भोज अपने राजमहल पहुंचे और दरबार के विद्वानों और ज्योतिषियों को यह अनोखी बात बताई । उन्होंने अपनी विद्या से इस बात का पता लगाया कि उस टीले के नीचे राजा विक्रमादित्य का सिंहासन दबा हुआ है । वह देवताओं द्वारा बना सिंहासन है इसलिए उसपर बैठने वाला व्यक्ति हमेशा सच्चा न्याय करता है ।

कृष्ण और सुदामा मिलन

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महर्षि संदीपनी के गुरूकुल में भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की शुरुआत हुई। आगे चलकर श्रीकृष्ण द्वारकापुरी के राजा बने परंतु सुदामा एक दरिद्र ब्रह्ममण के रूप में अपना जीवन यापन करते रहे । नियमानुसार पाँच घरों में भिक्षा मांगने जाते और जो कुछ भी मिलता उसी में संतोष कर लेते । उनके दिन घोर दरिद्रता में बीत रहे थे । कभी-कभी तो ऐसा होता कि कई-कई दिनों तक उपवास में ही रहना पड़ता था । सुदामा और उनकी पत्नी को अपने उपवास की चिंता न थी परंतु वे अपने बच्चों को भूख से बिलबिलाते देखते तो उनका ह्रदय दुख से फटने लगता परंतु वे कर भी क्या सकते थे ।                            एक बार सुदामा जी की पत्नी ने उनसे प्रार्थना की कि वे अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास जाए । वे जरूर हमारी मदद करेंगे । पत्नी के बहुत मनाने पर सुदामा जी जाने के लिए तैयार हुए। श्रीकृष्ण को कुछ भेंट देने के लिए वे अपने पड़ोसी के घर गई और एक मुट्ठी भर चावल उधार मांग लाई । उन थोड़े से चावल को भुनकर एक पोटली में बांधी और पति को विदा कर दिया । रास्ते में हजारों कष्टों को झेलते हुए सुदामा जी द्वारकापुर

कृष्ण और सुदामा मित्रता

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उज्जयिनी की पावन नगरी में शिप्रा नदी के किनारे ऋषि संदीपनी का आश्रम बड़ा ही मनमोहक था जहाँ वे अपने विद्यार्थीयों को वेद-शास्त्रों की शिक्षा दिया करते थे । श्रीकृष्ण और बलराम ऋषि संदीपनी के पास ही शिक्षा प्राप्त करने पहुंचे । यहां श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई । दोनो की मित्रता की सभी गुरूकुल में मिशाल दिया करते थे । एक बार कि बात है , कृष्ण और सुदामा हमेशा की तरह जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे तभी ऋषि संदीपनी की पत्नी और उनकी गुरूमाता ने एक पोटली में बांधकर कुछ भुने हुए चने सुदामा को दिए और कहा कि भूख लगने पर दोनों मिल-बाँटकर खा ले । सुदामा ने वह पोटली अपनी धोती से बाँध ली और दोनों मित्र जंगल की ओर चल पड़े । दोनों लकड़ी काटने घने जंगल में पहुंचे, तभी अचानक से तेज हवा चलने लगी और धीरे-धीरे मौसम भी खराब होता गया। जोरों की बारिश शुरू हो गई और अंधेरा भी होने लगा । अब दोनों मित्र सोचने लगे कि क्या करना चाहिए क्योंकि वे काफी दूर आ गए थे और वहां से गुरूकुल भी दूर था उपर से ये भयानक बारिश और अंधेरा। अब वे करे तो क्या  ? तब दोनों मित्रों ने फैसला किया कि आज की रात

भगवान रणछोड़ और कालयवन का वध

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कंस द्वारा बाल श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई निष्फल प्रयास किये गये । एक बार हार कर कंस ने अपने ससुर जरासंध की मदद ली । जरासंध ने भी कई षडयंत्र रचे लेकिन हर बार उसे भी असफलता ही हाथ लगी।  तब मगध नरेश जरासंध को अपने एक मित्र ' कालयवन' की याद आई । कालयवन यवन देश का राजा था । वह ऋषि शेशिरायण और स्वर्ग की अप्सरा रंभा का पुत्र था । एक बार ऋषि ने भगवान भोलेनाथ की तपस्या की थी और उनसे यह वरदान प्राप्त किया था कि उनका एक पुत्र हो जो अजेय हो सारे अस्त्र-शस्त्र उसके सामने निस्तेज हो जाए ।भगवान ने उसे यही वरदान प्रदान किया और कहा तुम्हारा पुत्र अजेय होगा कोई भी चन्द्रवंशी या सूर्यवंशी राजा उसे हरा नहीं सकता तथा किसी भी अस्त्र-शस्त्र से उसे मारा नहीं जा सकेगा । इस वरदान के फलस्वरूप ऋषि एक बार एक झरने के पास से गुज़र रहे थे तो उन्हें वहां एक अति सुन्दर युवती दिखाई पड़ी जो जल-क्रीड़ा (जलसेखेलना) कर रही थी । वह युवती ओर कोई नहीं बल्कि अप्सरा रंभा थी । दोनो ने एक दूसरे को देखा और मोहित हो गए और फिर उन्होंने विवाह कर लिया । समय के साथ उनका एक पुत्र हुआ जो कालयवन के

एकलव्य / Eklavya

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महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार अभिधुम्न,निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे , जिनकी गुरुभक्ति और अस्त्र-शस्त्रों में एकनिष्ठा के कारण एकलव्य नाम से जाना जाता है । बचपन से ही बालक एकलव्य को धनुर्विद्या में गहरी रूचि थी । उसने धनुर्विद्या की अच्छी शिक्षा प्राप्त भी कर ली परंतु फिर भी उसे संतोष न हुआ और उसे उस समय के सर्वश्रेष्ठ धनुविद्या के आचार्य द्रोणाचार्य से सिखने की प्रबल इच्छा हुई ।                                     एकलव्य ने अपने पिता भीलराज को यह बात बताई कि वह द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सिखने का इच्छुक है ।भीलराज यह बात जानते थे कि आचार्य द्रोणाचार्य उनके पुत्र को शिक्षा कभी नहीं देंगे , फिर भी उन्होंने एकलव्य को मना नहीं किया और उसे लेकर द्रोणाचार्य के पास पहुंचे। ऐसा माना जाता है कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से इसलिए मना कर दिया कि वह एक भील जनजाति से था बल्कि सच तो यह है कि द्रोणाचार्य भीष्म पितामह को दिए वचन कि वे सिर्फ कुरू वंश के राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा देंगे प्रतिबन्धित थे ।          

पांडवो की गुरूदक्षिणा

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गुरु द्रोणाचार्य द्वारा सौ कौरवों और पांच पांडवो की शिक्षा- दीक्षा पूर्ण हुई । अब पांडवो और कौरवों की बारी आती है कि वे अपने गुरु को गुरूदक्षिणा प्रदान करें तत्पश्चात सबने गुरु द्रोणाचार्य से पूछा कि वे गुरूदक्षिणा में क्या लेना चाहते हैं ?                                द्रोणाचार्य पांचाल नरेश द्रुपद द्वारा अपना अपमान नहीं भूले थे । एक बार जब द्रोण अपनी गरीबी से बहुत तंग आ गए थे तो उन्हें अपना बाल-सखा द्रुपद की याद आई जिन्होंने एक बार बाल अवस्था में कहा था कि जब वे राजा बन जाऐंगे तो अपना आधा राज्य द्रोण को दे देंगे । बहुत कष्टों को झेलने के बाद द्रोण अपने मित्र द्रुपद से मिल सके परंतु पांचाल नरेश द्रुपद ने पहले तो उन्हें पहचानने  से भी इंकार कर दिया फिर कहा कि एक राजा और एक गरीब ब्रहाण कभी मित्र नहीं हो सकते और भरी सभा में गुरु द्रोण को अपमानित किया । द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि -" मुझे किसी भी धन संपदा , मूल्यवान वस्त्र आभूषणों की लालसा नहीं है बस मुझे अपने अपमान का प्रतिशोध द्रुपद से लेना है।  अगर मुझे गुरूदक्षिणा ही

कैसे बनें द्रोण आचार्य द्रोणाचार्य

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महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक द्रोणाचार्य,ऋषि भारद्वाज के पुत्र थे।  उनका जन्म एक द्रोण (दोनें) कलश में हुआ था , जिस कारण उनका नाम द्रोणा या द्रोण रखा गया। अपने पिता के आश्रम में रहते हुए ही इन्होंने चारों वेदों की शिक्षा ली और उसमें पारंगत हो गए ।                                              एक बार भगवान परशुराम अपनी सारी संपत्ति ब्राहमणों में दान कर तपस्या करने चले गए। दूर दूर से ब्रहामण उनसे दान लेने के लिए पहुंच रहें थे । द्रोण भी गए। जब वे पहुंचे तो परशुराम जी अपना सब कुछ दान कर चुके थे । उन्होंने द्रोण से  कहा कि- "वत्स! तुमने आने में विलम्ब कर दिया । अब तो मेरे  पास  सिर्फ मेरे अस्त्र-शस्त्र बचे हुए हैं। " द्रोण ने कहा कि - "गुरूदेव  ! मुझे आपके इन अस्त्र-शस्त्रों को पाकर बहुत प्रसन्नता होगी । परंतु आपको मुझे शस्त्र विद्या की शिक्षा देनी होगी ।" और इस प्रकार द्रोण परशुराम जी के शिष्य बनकर अस्त्र - शस्त्र विद्या में भी पारंगत हो गए । वेदों की शिक्षा तो उन्होंने पहले से ही अपने पिता से ले रखी थ

देवी दुर्गा की आरती

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जय अम्बे गौरी मइया जय श्यामा गौरी। तुमको निशदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिवजी। ।ऊँ जय माँग सिन्दूर विराजत टीकों मृगमद को । उज्जवल से दो नैना चन्द्रबदनीको। ।ऊँ जय कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजे।  रक्त पुष्प गले माला कण्ठन पर साजे। ।ऊँ जय केहरि वाहन राजत खड्गखप्परधारी। सुर नर मुनि जन सेवत तिनके दुखहारी। ।ऊँ जय कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती। कोटिक चन्द्र दिवाकर राजत सम ज्योति। ।ऊँ जय शुम्भ-निशुम्भ विडारे महिषासुर घाती। धूम्र विलोचन नैना निशदिन मदमाती। ।ऊँ जय चण्ड -मुण्ड संहारे शोणित बीज हरे। मधु-कैटभ दो मारे सुर भयहीन करे। ।ऊँ जय    ब्राह्मणी रूद्राणी तुम कमला रानी । अगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी। ।ऊँ जय चौंसठ यौगिनी गावत नृत्य करत भैरों। बाजत ताल मृदंगा और बाजत डमरू। ।ऊँ जय तुम ही जग की माता तुम ही हो भरता। भक्तन की दुख हरता सुख संपत्ति करता। ।ऊँ जय भुजा चार अति शोभित वर मुद्रा धारी। मनवांछित फल पावत सेवत नर-नारी। ।ऊँ जय कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती। श्रीमाल केतु में राजत कोटि रतन ज्योति। ।ऊँ जय श्री अम्बे जी की आरती जो कोई नर गावे। कहत शि