एकलव्य / Eklavya
महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार अभिधुम्न,निषादराज
हिरण्यधनु के पुत्र थे , जिनकी गुरुभक्ति और अस्त्र-शस्त्रों में
एकनिष्ठा के कारण एकलव्य नाम से जाना जाता है । बचपन
से ही बालक एकलव्य को धनुर्विद्या में गहरी रूचि थी । उसने
धनुर्विद्या की अच्छी शिक्षा प्राप्त भी कर ली परंतु फिर भी उसे
संतोष न हुआ और उसे उस समय के सर्वश्रेष्ठ धनुविद्या के
आचार्य द्रोणाचार्य से सिखने की प्रबल इच्छा हुई ।
एकलव्य ने अपने पिता भीलराज को यह बात बताई कि वह द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सिखने का
इच्छुक है ।भीलराज यह बात जानते थे कि आचार्य द्रोणाचार्य
उनके पुत्र को शिक्षा कभी नहीं देंगे , फिर भी उन्होंने एकलव्य
को मना नहीं किया और उसे लेकर द्रोणाचार्य के पास पहुंचे।
ऐसा माना जाता है कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से
इसलिए मना कर दिया कि वह एक भील जनजाति से था
बल्कि सच तो यह है कि द्रोणाचार्य भीष्म पितामह को दिए
वचन कि वे सिर्फ कुरू वंश के राजकुमारों को धनुर्विद्या
की शिक्षा देंगे प्रतिबन्धित थे ।
भीलराज हिरण्यधनु ने अपने पुत्र
की शिक्षा के लिए आचार्य द्रोणाचार्य से बहुत निवेदन किया
परंतु आचार्य नहीं माने । एकलव्य को बहुत निराशा हुई और
दोनों पिता -पुत्र को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा ।
द्रोणाचार्य के मना कर देने के बाद भी एकलव्य की सर्वश्रेष्ठ
धनुधर बनने की इच्छा खत्म न हुई और उसने खुद धनुर्विद्या
का कठिन अभ्यास शुरू कर दिया । चूंकि एकलव्य आचार्य
द्रोणाचार्य से यह विद्या सिखना चाहता था इसलिए उसने
द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानते हुए उनकी प्रतिमा की रचना
की और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। अपनी एकाग्रता
और सीखने की सच्ची ललक के कारण वह कुछ ही वर्षों में
इस विद्या मे पारंगत हो गया ।
एक दिन कि बात है, सभी
पांडव और कौरव राजकुमार जंगल में अपने गुरूदेव के साथ
आखेट (शिकार) पर आएं थे तभी उनका कुत्ता भागता-
भागता आया । सभी राजकुमारों और द्रोणाचार्य को यह
देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ कि कुत्तों का मुंह बाणों से इस
तरह बंद था कि वह भौंक भी नहीं सकता था और न ही उसे
किसी प्रकार की कोई क्षति पहुंची थी । सभी विस्मित होकर
देख रहे थे कि इस घनघोर जंगल में ऐसा कौन धनुरधारी है?
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द्रोणाचार्य और बाकी राजकुमार भी उनके साथ उस अद्भुत
धनुधर को खोजने निकले और कुछ ही दूरी पर बने एकलव्य
की कुटिया में पहुंचे । वहां देखा कि एक किशोर बालक
धनुर्विद्या का अभ्यास बड़े परिश्रम के साथ कर रहा था।
द्रोणाचार्य उसके पास पहुंचे और पूछा कि क्या इस कुत्ते के
मुख पर बाण तुम्ही ने चलाया है ?
एकलव्य अपने मानस गुरु द्रोण को देखते ही पहचान गया
परंतु वे उसे पहचान न सके और पूछा कि - "तुमने धनुर्विद्या
किससे सीखा है कि तुम्हारे गुरु कौन हैं जिसने तुम्हें इतनी
विलक्षण विद्या तुम्हे सिखाई ?"
एकलव्य ने बड़े सम्मान के साथ कहा-"मै आचार्य द्रोणाचार्य
का शिष्य हूँ और उन्ही से धनुर्विद्या सीखी है ।"
अर्जुन विस्मित होकर गुरु द्रोण को देखते है और द्रोण अर्जुन
को देखते है तत्पश्चात द्रोण एकलव्य से कहते हैं - "तुम यह
क्या कह रहे हो बालक ? द्रोणाचार्य तो मैं हूँ और मै तो तुम्हें
पहचानता भी नहीं फिर मैं भला तुम्हारा गुरु कैसे हो सकता हूँ
और मैंने तुम्हें कब धनुर्विद्या की शिक्षा दी ?"
अर्जुन मन ही मन सोच रहा था कि गुरूदेव ने मुझे झूठे भ्रम में
रखा हुआ है आज तक कि वे मुझे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुधर
बनाना चाहते हैं अगर ऐसा होता तो वे मुझे हर एक विद्या का
ज्ञान देते।
एकलव्य द्रोणाचार्य की बात सुनकर कहता है-"गुरूदेव आपने
मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया था परंतु मैं सिर्फ आपको
अपना गुरु मान चुका था और इसलिए मैंने आपकी मिट्टी की
प्रतिमा बनाई और धनुर्विद्या का अभ्यास किया । आप भले ही
मुझे अपना शिष्य न माने परंतु मैंने आपको अपना गुरु माना
है " और उन्हें मिट्टी की प्रतिमा दिखाई।
द्रोणाचार्य को बहुत आश्चर्य हुआ कि
एक बालक कैसे उन्हें अपना गुरु मानते हुए उनकी प्रतिमा
द्वारा शिक्षा ग्रहण कर रहा है । यह बात उनके लिए चिंता का
विषय थी क्योंकि वे अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को संसार का
सर्वक्षेष्ठ धनुधर बनाना चाहते थे परंतु एकलव्य की प्रतिभा
उच्च कोटि की थी यह बात द्रोणाचार्य और अर्जुन अच्छे से
समझ चुके थे ।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य से प्रश्न किया -"तुम किसके पुत्र हो और
तुम्हारी धनुर्विद्या सिखने का क्या उद्देश्य है ?"
एकलव्य - "गुरूदेव मै भीलराज हिरण्यधनु का पुत्र हूँ और
मेरे पिता श्रृंगवेरपुर राज्य के शासक है । मेरी धनुर्विद्या में
गहरी रूचि है और आगे मुझे अपने पिता का राज्य संचालन
करना है । अपने समुदाय की सेवा करना मेरा परम कर्तव्य
है ।"
द्रोणाचार्य - " भीलराज हिरण्यधनु तो जरासंध की सेना का
सेनापति है ।"
एकलव्य -"जी गुरु देव ।"
द्रोणाचार्य- "वत्स ! तुमने मुझे गुरु मानकर शिक्षा तो प्राप्त
कर लिया परंतु अब मुझे गुरुदक्षिणा नहीं दोगे?"
एकलव्य ( अत्यंत प्रसन्नता से ) -"आप बस आदेश दे गुरुदेव!
आपके लिए तो यह एकलव्य अपने प्राण भी दे सकता है ।"
द्रोणाचार्य - " मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा
मे चाहिए । "
एकलव्य बिना किसी हिचकिचाहट के अपने कमर से चाकू
निकालता है और अपना अंगूठा काट गुरु के चरणों में अर्पित
करता है । सभी राजकुमार हैरान होकर एकलव्य को देखते
है,क्योंकि एक धनुधर के लिए उसकेदाएँ हाथ का अंगूठा
छीन लेना मतलब कि उसकी आज तक की सारी मेहनत जो
उसने धनुर्विद्या सिखने में की है सब बेकार हो गई ।
द्रोणाचार्य अपने शिष्य एकलव्य की गुरूभक्ति से मन-ही-मन
बहुत प्रसन्न हुए परंतु उन्हें इतना निष्ठुर अपने शिष्य अर्जुन
के लिए होना पड़ा ।
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