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राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 32 / Vikram aditya stories in hindi

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ हिन्दी में बत्तीसवीं पुतली रानी रूपवती ने कहना आरंभ किया -  राजा विक्रमादित्य का आखिरी समय आया तो वह विमान में बैठकर इन्द्रलोक पहुंचा । उसके जाने से तीनों लोकों में बड़ा शोक मनाया गया । राजा के साथ उसके दो वीर भी चले गए । धर्म की ध्वजा उखड़ गई। ब्राह्मण भिखारी सभी रोने लगे । रानियां राजा के साथ सती हो गई ।  दीवान ने राजकुमार जैतपाल को गद्दी पर बैठाया ।  एक दिन की बात है , नया राजा इस गद्दी पर बैठा तो मूर्छित हो गया । उसी हालत में उसने देखा कि राजा विक्रमादित्य कह रहे हैं कि तू इस सिंहासन पर मत बैठ ।  जैतपाल की आँखे खुल गई और वह सिंहासन से नीचे उतरा और दीवान को सारी बातें बताई ।  दीवान बोला - तुम रात को ध्यान लगाकर राजा विक्रमादित्य से पूछना कि मैं क्या करू ? वे जैसे कहे वही करना ।  जैतपाल ने ऐसा ही किया ।  राजा विक्रमादित्य ने उससे कहा - तुम उज्जयिनी नगरी और धारा नगरी छोड़कर अंबावती नगरी में चलें जाओं और वहीं राज करना । इस सिंहासन को वही गड़वा दो । सवेरा होते ही राजा जैतपाल ने सिंहासन वही गड़वा दिया और अंबावती नगरी चला गया । उज्जयिनी और धारा नगरी उजड़ गयी ।

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ हिन्दी में 31 / Vikram aditya stories in hindi

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ हिन्दी में इकत्तीसवी पुतली कौशल्या ने कहना आरंभ किया -  जब राजा विक्रमादित्य को मालूम हो गया कि उनका अंत नजदीक आ गया है तो उन्होंने गंगाजी के सामने एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा ।  उसने चारों ओर खबर फैला दी कि जिसको जितना धन चाहिए मुझसे आकर ले ले । भिखारी आए ब्राह्मण आए।  देवता भी रूप बदलकर आए।  उन्होंने राजा से प्रसन्न होकर कहा - " हे राजन् ! तीनों लोकों में तुम्हारी निशानी रहेगी । जैसे सतयुग में राजा हरिश्चंद्र , त्रेता में दानी बलि , और द्वापर में युधिष्ठिर हुए , वैसे ही कलियुग में तुम हो।  चारों युगों में तुम सा राजा हुआ है न होगा । " देवता चले गए । इतने में राजा ने देखा कि सामने से एक हिरण चला आ रहा है  । राजा ने उसे मारने के लिए तीर कमान उठाई तो वह बोला -  मुझे मारों मत ! मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था । मुझे यती ने श्राप देकर हिरण बना दिया और कहा कि राजा विक्रमादित्य के दर्शन करके तू फिर से इंसान मन जाएगा । इतना कहते-कहते वह हिरण गायब हो गया और एक ब्राह्मण खड़ा हो गया।  राजा ने बहुत सारा धन देकर उसे विदा किया ।  पुतली बोली - हे राजन् अगर

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ हिन्दी में 30 / Raja Vikramaditya Ki Kahaniya

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ हिन्दी में  तीसवीं पुतली जयलक्ष्मी ने कहना आरंभ किया -  एक बार राजा विक्रमादित्य रात के समय घूमने निकले । आगे चलकर उन्होंने चार चोरों को साथ में देखा । वे आपस में बातें कर रहे थे ।  उन्होंने राजा से पूछा - तुम कौन हो ? राजा बोला - जो तुम हो वही मैं भी हूँ ।   तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहाँ चोरी की जाए ।  एक ने कहा - मैं ऐसा मुहूर्त देखने जानता हूँ जो खाली हाथ न जाए ।  दूसरा कहता था - मैं जानवरों की बोली समझता हूँ ।  तीसरा बोला - मैं जहाँ भी चोरी करने जाऊं कोई मुझे नहीं देख सकता , पर मैं सबको देख सकता हूँ ।  चौथे ने कहा कि मेरे पास ऐसी चीज है कि कोई मुझे कितना भी मारे मै न मरूं ।  फिर राजा ने कहा - मैं यह बता सकता हूँ कि धन कहां गड़ा है । पांचो उसी वक्त राजा के महल पहुंचे ।  राजा ने जहां धन गड़ा था वह जगह बता दिया ।  खोदा तो सचमुच में बहुत सा माल मिला । तभी एक गीदड़ ने कहा , जानवरों की बोली समझने वाला चोर बोला - 'धन लेने में कुशल नहीं है ' । पर वे न माने । फिर उन्होंने एक धोबी के यहाँ सेंध लगाई ।   राजा को अब क्या करना था , वह उनके साथ नही

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ हिन्दी में 29 / Stories of Raja Vikramaditya

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ  उन्नतीसवी पुतली मानवती ने कहना आरंभ किया -  एक बार राजा विक्रमादित्य ने सपना देखा कि एक सोने का महल है , जिसमें कई तरह के रत्न जड़े है । कई तरह के पकवान और सुगंधियां है , फुलवारी खिली हुई है, दीवारों पर चित्र बने है , अंदर नाच और गाना हो रहा है और एक तपस्वी बैठा हुआ है । अगले दिन राजा ने अपने वीरों को बुलाया और अपना सपना बताकर उन्हें कहा कि मुझे उस जगह ले चलो । वीरों ने राजा को वही पहुंचा दिया ।  राजा को देखते ही सारा नाच गाना बंद हो गया । तपस्वी को बड़ा गुस्सा आया ।  विक्रमादित्य ने कहा - महाराज आपके क्रोध की आग को कौन सह सकता है । मुझे क्षमा करे ।  तपस्वी खुश हो गया और बोला - जो जी में आए सो मांगो ।  राजा ने कहा - योगीराज मेरे पास किसी भी चीज की कमी नहीं है । यह महल मुझे दे दीजिये । चूंकि योगी उसे वचन दे चुका था । उसने महल राजा को दे दिया परंतु वह स्वयं बहुत दुखी होकर इधर-उधर भटकने लगा । अपना दुख उसने एक योगी को बताया ।  उसने बताया - राजा विक्रमादित्य बड़ा दानी है । तुम उससे वह महल मांग लो । वह दे देगा।  तपस्वी ने ऐसा ही किया और विक्रमादित्य ने वह महल मा

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 28 / Stories of Raja Vikramaditya

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ अट्ठाइसवीं पुतली वैदेही ने कहना आरंभ किया - एक बार किसी ने राजा विक्रमादित्य से कहा कि पाताल में बलि नामक एक बहुत बड़ा राजा रहता है।  इतना सुनकर विक्रमादित्य ने अपने वीरों को बुलाया और पाताल पहुंचा । राजा बलि को खबर भिजवाई तो उसने मिलने से मना कर दिया । इस पर विक्रमादित्य ने दुखी होकर अपना सर काट डाला । बलि को मालूम हुआ तो उसने अमृत छिड़कवाकर राजा को जिंदा कराया और कहलाया कि शिवरात्रि को आना।   राजा ने कहा - नहीं मैं अभी दर्शन करूंगा ।  बलि के आदमियों ने मना किया तो राजा ने फिर से अपना सर काट लिया।  बलि ने जिंदा कराया और उसके प्रेम को देखकर प्रसन्न हो, उससे मिला।  बोले - हे राजन् ! यह लाल मूँगा लो और अपने देश जाओं । इस मूँगे से जो मांगोगे वह मिलेगा ।  मूँगा लेकर राजा विक्रमादित्य अपने नगर को लौट गया । रास्ते में उसे एक स्त्री मिली । उसका आदमी मर गया था और वह बिलख-बिलखकर रो रही थी । राजा ने उसे चुप कराया और मूँगे का गुण बताकर उसे दे दी ।  पुतली बोली - हे राजन् । जो राजा इतना दानी और प्रजा की भलाई करने वाला हो वह सिंहासन पर बैठे ।  इस तरह फिर से मुहूर्त निकल

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 27 / Stories of Raja Vikramaditya

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सत्ताईसवीं पुतली की कहानी सत्ताईसवीं पुतली मलयवती नेे अपनी कहानी सुनाई - एक बार राजा विक्रमादित्य से किसी ने कहा कि इन्द्र के समान कोई राजा नहीं है । यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने अपने वीरों को बुलाया और उन्हें साथ लेकर इन्द्रपुरी पहुंचा । इन्द्र ने उसका स्वागत किया और आने का कारण पूछा ।  राजा ने कहा - आपके दर्शन के लिए आया हूँ।   इन्द्र ने प्रसन्न होकर उसे अपना मुकुट और विमान दिया और कहा - जो भी तुम्हारे सिंहासन को बुरी नजर से देखेगा , वह अंधा हो जाएगा ।  राजा वहां से अपने नगर लौट आया ........ पुतली कहानी सुना रही थी कि इतने में राजा भोज सिंहासन पर पैर रखकर खड़ा हो गया । खड़ा होते ही वह अंधा हो गया और उसके पैर वही चिपक गए। उसने पैर हटाने चाहे पर न हटे । इस पर सारी पुतलियाँ खिलखिला कर हंसने लगी । राजा भोज बहुत पछताया ।  उसने पुतलियों से पूछा - मुझे बताओ अब मैं क्या करू ? उन्होंने कहा - विक्रमादित्य का नाम लो तब भला होगा । राजा भोज ने जैसे ही विक्रमादित्य का नाम लिया उसे दिखने लगा और पैर भी उखड़ गया ।  पुतली बोली - हे राजन् । मैं इसलिए तुमसे कहती हूँ इस सिंह

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 26 / Stories of Raja Vikramaditya

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सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ Raja Vikramaditya stories in hindi छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी ने कहना आरंभ किया - एक दिन राजा विक्रमादित्य के मन में विचार आया कि वह राजकाज की माया में ऐसा भूला है कि उससे धर्म-कर्म नहीं हो पाता । यह सोचकर वह तपस्या करने जंगल चला गया । वहां बहुत से तपस्वी आसन मारे धूनी के सामने बैठे साधना कर रहे हैं और धीरे-धीरे अपने शरीर को काट-काट कर होम कर रहें है । राजा ने भी ऐसा ही किया । तब एक दिन शिव का एक गण आया और सभी तपस्वियों की राख समेटकर उसमें अमृत छिड़क दिया । सारे तपस्वी जीवित हो उठे परंतु संयोग से राजा की राख की ढेरी पर अमृत छिड़कने से रह गया । तपस्वियों ने यह देखकर शिव जी से प्रार्थना कि की उसे जीवित कर दे । शिव जी ने राजा को जीवित कर दिया ।  शिव जी ने प्रसन्न होकर कहा - तुम्हारी जो इच्छा है सो मांगो ।  राजा ने कहा - आपने मुझे जीवन दिया है तो इस दुनिया से मेरा उद्धार कीजिए।   शिव जी ने हंसकर कहा - तुम्हारे समान कोई कलियुग में ज्ञानी  , योगी और दानी न होगा ।  इतना कहकर शिव जी ने राजा विक्रमादित्य को एक कमल का फूल दिया और कहा " जब यह मुरझाने लगे तो समझना कि

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 25 / Raja Vikramaditya Ki Kahaniya

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ पच्चीसवीं पुतली त्रिनेत्री ने अपनी कहानी सुनाई - एक गरीब भाट था । उसकी एक लडक़ी थी जब वह विवाह के योग्य हुुई तो उसने सारी दुनिया के राजाओं के यहाँ चक्कर लगाया लेकिन कहीं से भी एक कौड़ी न मिली । तब वह राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचा और सारी बातें बता दी । राजा ने तुरंत उसे दस लाख रुपये और हीरे , लाल , मोती और सोने-चांदी के गहने थाल भर-भरकर दिए । भाट ने सब कुछ ब्याह में खर्च कर डाला । खाने के लिए भी अपने पास कुछ नहीं रखा ।  पुतली बोली - इतने दानी हो तो सिंहासन पर बैठों ।  राजा भोज परेशान हो गए । जब भी वे सिंहासन पर बैठने जाते पुतलियाँ उन्हें रोक देती और अपनी कहानी सुनाने लगती जिससे सिंहासन पर बैठने का मुहूर्त निकल जाता।  अगले दिन उसे छब्बीसवीं पुतली ने रोका और कहा कि पहले विक्रमादित्य जैसे नाम यश कमाओं तो ही इस सिंहासन पर बैठ सकते हो    छब्बीसवीं पुतली की कहानी अगले पोस्ट में पढें -

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 24 / Raja Vikramaditya Ki Kahaniya

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ  Raja Vikramaditya stories in hindi चौबीसवीं पुतली करूणावती ने कहना शुरू किया -  एक बार राजा विक्रमादित्य गंगाजी नहाने गया । वहां उसने देखा कि एक  बनिये की सुंदर स्त्री नदी के किनारे खड़ी एक साहूकार के लड़के से इशारों में बातें कर रही थी। थोड़ी देर में जब वे दोनों जाने लगे तो राजा ने अपने एक आदमी को उनके पीछे कर दिया । उसने लौटकर बताया कि जब वह स्त्री अपने घर पहुंची तो उसने अपना सिर खोलकर दिखाया , फिर छाती पर हाथ रखा और अंदर चली गई । राजा ने पूछा कि इसका क्या मतलब है तो उसने बताया कि "स्त्री ने कहा कि जब अंधेरी रात होगी तब मैं आऊंगी ।" साहूकार के लड़के ने उसी तरह इशारा करके अच्छा कहा ।  इसके बाद रात को राजा वहां आ गया।  जब रात अंधेरी हो गई तो राजा ने खिड़की पर कंकडी मारी । स्त्री समझ गई कि साहूकार का लड़का आ गया।  वह माल-मत्ता लेकर आई ।  राजा ने कहा - तुम्हारा आदमी जीता है अगर उसने राजा को सब बताया तो मुसीबत हो जाएगी । इसलिए पहले तुम उसे मार आओं।   स्त्री गई और कटारी से अपने पति को मार आई।  राजा ने सोचा कि जब यह अपने पति की नहीं हुई तो और किसकी हो

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 23 / Vikramaditya stories in hindi

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ तेईसवीं पुतली धर्मवती ने अपनी कहानी सुनाई - जब राजा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा तो उसने अपने दीवान से कहा कि तुमसे काम नहीं होगा । अच्छा होगा कि मेरे लिए बीस दूसरे आदमी दे दो । दीवान ने ऐसा ही किया । वे लोग काम करने लगे । दीवान सोचने लगा कि अब वह क्या करे कि राजा उससे खुश हो जाए । संयोग की बात है उस दिन उसे नदी में एक बहुत ही सुन्दर फूल बहता हुआ मिला , जिसे उसने राजा को भेट दिया । राजा बहुत खुश हुआ और कहा - इस फूल का पेड़ लाकर मुझे दो , नहीं तो मैं तुम्हें देश-निकाला दे दूंगा । दीवान बड़ा दुखी हुआ और एक नाव पर कुछ सामान लेकर जिधर से फूल बहकर आया था उधर चल दिया ।  चलते-चलते वह एक पहाड़ के पास पहुंचा , जहां से नदी में पानी आ रहा था।  वह नाव से उतरकर पहाड़ पर गया।  वहां उसने देखा कि शेर , हाथी , दहाड़ रहे हैं । वह आगे बढ़ा । ठीक वैसा ही एक फूल बहता हुआ दिखाई दिया । उसे आशा बंधी । आगे जाने पर उसे एक महल दिखाई दिया। वहां पेड़ में एक तपस्वी जंजीर से बंधा उलटा लटक रहा था और उसके घाव से जो लहू की बूँदें नीचे पानी में गिर रही थी , वे ही फूल बन जाती थी । बीस ओर योगी व

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 22 / Vikramaditya stories in hindi 22

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ  बाईसवीं पुतली अनुरोधवती ने कहना शुरू किया -  एक दिन राजा विक्रमादित्य ने अपने दीवान से पूछा कि आदमी बुद्धि अपने कर्म से पाता है  , या माता-पिता से ? दीवान ने कहा - महाराज पूर्व जन्म में जो जैसा कर्म करता है , विधाता उसके भाग्य में वैसा ही लिख देता है।   राजा ने कहा - यह तुम कैसे कह सकते हो ? जन्म लेते ही लड़का माता-पिता से सीखता है।   दीवान फिर बोला - नहीं महाराज कर्म का ही लिखा होता है।   इसपर राजा ने किया कि दूर बियवान में एक महल बनवाया और उसमें अपने दीवान के , ब्राह्मण के और कोतवाल के बेटे को जन्म लेते ही गूँगी , बहरी और अंधी दांइया देकर उस महल में भिजवा दिया । बारह वर्ष बाद उन्हें बुलाया । सबसे पहले अपने लड़के से पूछा - तुम्हारे क्या हाल है ? राजकुमार ने हंसकर कहा - आपके पुण्य से सब कुशल है ।  राजा ने खुश होकर दीवान की तरफ देखा।   दीवान ने कहा - महाराज यह सब कर्म का लिखा है । फिर राजा ने दीवान के बेटे को बुलाया और वही सवाल पूछा। उसने कहा - महाराज ! संसार में जो आता है , वह जाता भी है । सो कुशल कैसी ? सुनकर राजा विक्रमादित्य चुप हो गया । थोड़ी देर बाद उ

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 21 / Vikramaditya stories in hindi 21

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ  इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति की कहानी -  किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । वह बड़ा गुणी था । एक बार वह घूमते-घूमते कामानगरी पहुंचा । वहां कामसेन नाम का राजा राज्य करता था । उसके कामकंदला नाम की एक नर्तकी थी । जिस दिन ब्राह्मण वहां पहुंचा , कामकंदला का नाच हो रहा था । मृदंग की आवाज आ रही थी । आवाज़ सुनकर ब्राह्मण ने कहा कि राज की सभा के लोग कितने मूर्ख है , जो गुण पर विचार नही करते । पूछने पर पता चला कि जो मृदंग बजा रहा है , उसके हाथ में अंगूठा नहीं है । राजा ने सुना तो मृदंग बजाने वाले बुलाया और देखा कि उसका एक अंगूठा मोम का है । राजा ने ब्राह्मण को बहुत सारा धन दिया और अपनी सभा में बुला लिया । नृत्य चल रहा था । इतने में ब्राह्मण ने देखा कि एक भौंरा आया और कामकंदला को काट कर उड़ गया , लेकिन उस नर्तकी ने किसी को पता भी चलने न दिया । ब्राह्मण ने खुश होकर अपना सब कुछ उसे दे डाला । राजा को बहुत गुस्सा आया कि उसकी दी हुई चीज उसने क्यों दी और उसे देश निकाला दे दिया । कामकंदला चुपचाप उसके पीछे गई और उसे छिपाकर अपने घर ले आई । लेकिन दोनों डरकर वहां रहते थे ।  एक

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 20 / Stories of Raja Vikramaditya 20

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने कहना आरंभ किया -  एक बार कार्तिक के महीने में राजा विक्रमादित्य ने भजन-कीर्तन कराया । राजा की खबर मिलते ही दूर-दूर से राजा और योगी आए।  जब राजा सबको प्रसाद देने लगा तो उसने देखा कि सभी देवता तो है परंतु चन्द्रमा नही।  राजा ने वीरों को बुलाया और उनकी मदद से चन्द्रलोक पहुंचे।   वहां जाकर चन्द्रमा से कहा - हे देव ! मेरा क्या अपराध है , जो आपने आने की कृपा नही की।  आपके बिना काम अधूरा रहेगा ।    चन्द्रमा ने हंस कर कहा - तुम उदास न हो । मेरे जाने से जग में अंधेरा हो जाएगा । इसलिए मेरा जाना ठीक नहीं । तुम जाओ और अपना काम पूरा करो ।  इतना कहकर चन्द्रमा ने उन्हें अमृत देकर विदा किया। रास्ते में राजा ने देखा कि यम के दूत एक ब्राह्मण के प्राण लिए जा रहे है । राजा ने उनको रोका और पूछा । तब पता चला कि वे उज्जयिनी नगरी के एक ब्राह्मण के प्राण लिए जा रहे।   राजा ने कहा - पहले हमें उस ब्राह्मण को दिखा दो फिर ले जाना ।                  वे सब उज्जयिनी आए । राजा ने देखा कि वह तो उसी का पुरोहित है । राजा ने यम के दूतों को बात में लगाकर मुर्दे के मुंह

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 19 / Stories of Raja Vikramaditya 19

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा ने कहना शुरू किया -  एक ब्राह्मण हाथ पैर की लकीरों को अच्छे से जानता था । एक दिन उसने रास्ते में एक पैर के निशान देखे , जिसमें ऊपर को जाने वाली लकीर थी और कमल का फूल था । ब्राह्मण ने सोचा हो न हो कोई राजा इधर से अभी गुजरा है । यह सोचकर वह उन निशानों को देखता हुआ उधर चल दिया । कोसभर गया होगा कि उसे एक आदमी दिखाई दिया जो पेड़ से लकड़ियों का गट्ठर बांध रहा था ।  उसने पूछा - तुम कबसे यहां हो ? इधर कोई आया है क्या ? उसने जवाब दिया - मैं तो दो घड़ी रात से यहां हूँ।  आदमी तो दूर मुझे तो एक परिंदा भी नहीं नजर आया।   इस पर ब्राह्मण ने उसका पैर देखा रेखा और कमल दोनों मौजूद थे । ब्राह्मण सोच में पड़ गया कि आखिर मामला क्या है ? सब लक्षण राजा के होते हुए भी इसकी यह हालत है । ब्राह्मण ने उस आदमी से पूछा - तुम यहाँ कब से रहते हो और कब से यह काम कर रहे हो ? उसने बताया - मैं राजा विक्रमादित्य के नगर में रहता हूँ और जब से होश संभाला है तब से यही काम कर रहा हूँ । ब्राह्मण ने पूछा - क्यों तुमने बहुत दुख पाया है ? आदमी बोला - भगवान की इच्छा है किसी को हा

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 18 / Stories of Raja Vikramaditya 18

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ  अठारहवीं पुतली तारावती ने अपनी कहानी सुनाई -  एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में दो सन्यासी झगड़ते हुए आए । एक कहता था कि सब कुछ मन के वश में है । दूसरा कहता था कि सब कुछ ज्ञान है । ज्ञान से ही सब संभव है ।  राजा ने कहा - अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा । इसके बाद कई दिनों तक राजा विचार करता रहा । आखिर एक दिन उसने संन्यासीयों को बुलाकर कहा - महाराज ! यह शरीर मिट्टी , आग , हवा और पानी से बना है । मन इसका सरदार है । अगर यह मन के हिसाब से चले तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाए ।  इसलिए मन पर अंकुश होना जरूरी है । जो ज्ञानी लोग होते हैं उनकी काया अमर होती है । सो हे सन्यासीयों मन के साथ ज्ञान का होना भी जरुरी है ।  इस उत्तर से दोनों सन्यासी बहुत खुश हुए । उसमें से एक ने राजा को खगड़िया का एक ढेला दिया और कहा - राजन् । इस खगड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे , रात को वह सब शक्ले तुम्हें प्रत्यक्ष अपनी आखों से दिखाई देंगी ।  इतना कहकर दोनों सन्यासी चले गए । उनके जाने पर राजा ने अपने महल की सफाई कराई और फिर किवाड़ बन्द कर उसने कृष्ण , सरस्वती आदि की तस्वीरें ब

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 17 / Stories of Raja Vikramaditya 17

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सत्रहवीं पुतली विद्यावती ने अपनी कहानी सुनाई - एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा हुआ था । अचानक उसने पंडितों से पूछा - बताओं पाताल का राजा कौन है ? एक पंडित बोला - महाराज पाताल का राजा शेषनाग है। राजा की इच्छा हुई कि उसे देखे। उसने अपने वीरों को बुलाया । वे उसे पाताल लोक ले गए । राजा विक्रमादित्य ने देखा कि शेषनाग का महल रत्नों से जगमगा रहा है।  द्वार पर कमल के फूलों की बंदनवारे बंधी हुई है । घर-घर आनंद हो रहा है । खबर मिलते ही शेषनाग द्वार पर आया । पूछा कि तुम कौन हो ? राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय दिया और कहा कि आपके दर्शन की इच्छा थी सो पूरी हुई ।  शेषनाग राजा विक्रमादित्य को अपने महल के अंदर ले गया और खूब आवभगत की । राजा पांच-सात दिन वहां रहा । जब विदा मांगी तो शेषनाग ने उसे चार लाल दिए और कहा कि एक का गुण यह है कि , जितने चाहे गहने उससे ले लो । दूसरे लाल से हाथी-घोड़े-पालकियां मिलती थी तीसरे से लक्ष्मी और चौथे लाल से हरिभजन और अनेकों काम करने वालों की इच्छा पूर्ण होती थी ।  राजा अपने नगर वापस आया । उसे एक भूखा ब्राह्मण मिला । उसने भिक्षा मां

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 16 / Stories of Raja Vikramaditya 16

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ  सोलहवीं पुतली सत्यवती ने कहना प्रारंभ किया - उज्जयिनी नगरी में चार जात बसते थे । वहां एक बड़ा सेठ था जो सबकी सहायता करता था । जो भी उसके पास जाता खाली हाथ न लौटता था।  उस सेठ का एक पुत्र था जो बड़ा ही रूपवान और गुणवान था । सेठ ने सोचा कि अब एक अच्छी लड़की मिल जाए तो इसका ब्याह कर दूं । उसने ब्राह्मणों को बुलाकर लडकी की खोज में इधर-उधर भेजा।  एक ब्राह्मण ने सेठ को खबर दी कि समुद्र पार एक सेठ रहता है, जिसकी लड़की बड़ी ही रूपवती और गुणवती है । सेठ ने उसे वहां जाने के लिए कहा । ब्राह्मण जहाज मे बैठकर वहां गया । सेठ से मिला । सेठ ने सब पूछकर अपनी मंजूरी दे दी और आगे कि रस्म करने के लिए अपना एक ब्राह्मण उसके साथ भेज दिया । दोनों ब्राह्मण कई दिनों की दूरी तय कर उज्जयिनी नगरी पहुंचे ।  सेठ को समाचार मिला तो वह बहुत खुश हुआ । दोनों ओर से ब्याह की तैयारी होने लगी । ब्याह का दिन पास आया तो चिंता हुई कि इतने दूर देश इतने कम दिनों में कैसे पहुंचा जा सकता है । सब हैरान हुए तब किसी ने सेठ को बताया कि एक बढ़ई ने राजा विक्रमादित्य को एक उड़न-खटोला दिया है । वह उसे मिल जाए

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 15 / Stories of Raja Vikramaditya 15

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सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ पन्द्रहवीं पुतली सुन्दरवती ने कहना आरंभ किया -  एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा हुआ था।  कही से एक पंडित आया । उसने राजा को एक श्लोक सुनाया । उसका भाव था कि जब तक सूरज चाँद रहेगा , तब तक विद्रोही और विश्वासघाती कष्ट पाएगा । राजा ने उसे एक लाख दिए और कहा कि मुझे इसका मर्म समझाओं।   ब्राह्मण ने कहा - महाराज किसी राज्य में एक बूढ़ा अज्ञानी राजा था । उसकी एक रानी थी जिसे वह बहुत प्यार करता था । हमेशा उसे साथ रखता । दरबार में भी उसे साथ बिठाता । एक दिन उसके दीवान ने कहा - महाराज ! ऐसा करना अच्छा नहीं लगता । सभी दरबारी हंसते हैं । अच्छा हो कि आप रानी का एक चित्र बनवाकर उसे रख ले । राजा को यह सलाह पसंद आई । उसने एक बड़े होशियार चित्रकार को बुलाया । वह चित्रकार ज्योतिषी भी था । उसने राजा के कहने पर एक बहुत सुंदर चित्र बनाया । राजा को वह बहुत पसंद आया । लेकिन जब उसकी नज़र टांग पर पड़ी तो वहां एक तिल था । राजा को बड़ा गुस्सा आया कि रानी का यह तिल इसने कैसे देख लिया ।  उसने उसी समय चित्रकार को बुलाया और जल्लाद को आज्ञा दी कि इसी समय जंगल में ले जाकर इसकी आँख

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 14 / Stories of Raja Vikramaditya 14

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ चौदहवीं पुतली सुनयना ने कहना प्रारंभ किया -  एक बार राजा विक्रमादित्य को यज्ञ करने की इच्छा हुई । देश-देश के राजाओं महाराजाओं को न्योता भेजा गया । सातों द्वीपों के ब्राह्मणों को बुलाया गया । एक वीर को स्वर्ग भेजा देवताओं को बुलवाने के लिए । एक ब्राह्मण को राजा विक्रमादित्य ने समुद्र देव को न्योता देने भेजा । ब्राह्मण चला गया । चलते-चलते समुद्र के किनारे पहुंचा ।  वहां उसे पानी के सिवा और कुछ नहीं दिखा । उसने सोचा अब न्योता किसे दे ? तब उसने चिल्लाकर कहा हे समुद्र देव तुम यज्ञ में आना ।  जब वह वहां से चला तो ब्राह्मण के भेष में उसे समुद्र देव मिले।   समुद्र देव ने कहा - मैं आने के लिए तो तैयार हूँ परंतु मेरे साथ जल भी आएगा और इससे कई नगर डूब जाऐंगे। सो तुम राजा विक्रमादित्य से सारी बात कह देना और ये पांच लाल और घोड़ा सौगात के रूप में मेरी ओर से दे देना ।  ब्राह्मण पांचो लाल और घोड़ा लेकर वापस आया और राजा विक्रमादित्य से सारा हाल कह सुनाया । राजा विक्रमादित्य ने वे सारी चीजें उसी ब्राह्मण को दान में दे दी । ब्राह्मण खुश होकर चला गया ।  फिर चौदहवीं पुतली बोली

राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 13 / Stories of Raja Vikramaditya 13

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 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ तेरहवीं पुतली कीर्तिमति ने अपनी कहानी सुनाई -  एक बार राजा विक्रमादित्य जंगल में शिकार खेलने के लिए गया। बहुत से सैनिक और नौकर-चाकर भी उसके साथ थे । जंगल में जाकर शिकार की तैयारी हुई । इसी बीच राजा विक्रमादित्य की नजर एक परिंदे पर पड़ी । उसने बाज छोड़ा और स्वयं घोड़े पर सवार होकर उसे देखते हुए चला। चलते-चलते कोसों दूर निकल गया । शाम हुई तो उसे पता चला कि उसके साथ कोई नहीं हैं । चारों ओर घना जंगल था । रात होने पर राजा ने अपने घोड़े को एक पेड़ से बांध दिया और खुद उसकी जीन बिछाकर बैठ गया । तभी उसने देखा कि पास में जो नदी हैं वह बढ़ती आ रही है । राजा पीछे हट गया । नदी और बढ़ आई । उसी समय उसने देखा कि नदी की धारा में एक मुर्दा बहा जा रहा है और उस पर एक योगी और एक वेताल खींचातानी कर रहे हैं। वेताल कहता था कि मैं इसे हजार कोस दूर से लाया हूँ इसलिए इसे मैं खाऊंगा।  योगी कहता है इस पर मैं अपना मंत्र साधुगा।  जब झगड़ा किसी प्रकार नहीं निबटा तो उनकी नजर राजा पर पड़ी । वे उसके पास आए और सारा हाल कह सुनाया और कहा कि जो तुम फैसला कर दोगे हम मान लेंगे।  राजा ने कहा कि पहल