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तारा रानी की कहानी / Tara Rani ki kahani

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      Tara Rani ki kahani राजा स्पर्श माता भगवती के पुजारी थे, दिन रात माता की पूजा और ध्यान करते रहते थे । माता ने भी उन्हें राजपाट , धन-दौलत , ऐशो-आराम के सभी साधन दिया था परंतु फिर भी एक कमी थी । राजा को कोई संतान न थी । यही दुख उन्हें हमेशा सताता रहता था । वे माता से हरदम प्रार्थना करते कि मां मुझे आपने सब कुछ दिया है बस एक संतान दे दे तो मेरा जीवन पूर्ण हो जाएगा । मेरे वंश को आगे बढ़ाने वाला एक पुत्र मुझे दे दो ।                  एक दिन माता भगवती ने उनकी प्रार्थना सुन ली और उन्हें सपने में आकर दर्शन दिया । उन्होंने कहा वत्स मै तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ और तुझे यह वरदान देती हूँ कि जल्दी ही तुम्हारे घर में दो कन्याएं जन्म लेंगी । कुछ समय पश्चात राजा के घर में एक कन्या का जन्म हुआ । राजा ने अपने दरबारियों , पंडितो एवं ज्योतिषियों को बुलाया और बच्ची की जन्म कुंडली तैयार करने का आदेश दिया । पंडित तथा ज्योतिषियों ने कन्या की कुंडली तैयार की और तत्पश्चात सभी ने आकर राजा को बताया कि राजन् यह कन्या तो साक्षात देवी है । यह कन्या जहां भी कदम रखेगी वहां खुशियाँ ही खुशिया

विष्णु पुराण सृष्टि की उत्पत्ति / Vishnu Puran shristi ki Utpatti

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Vishnu Puran Shristi ki Utpatti 1 / 1 विष्णु पुराण में भगवान विष्णु की महिमा  विष्णु पुराण अठारह पुराणों में अत्यंत महत्वपूर्ण तथा प्राचीन है । इसकी रचना पराशर मुनि द्वारा की गई थी । इसके प्रतिपाद्य भगवान विष्णु है जो सृष्टि के आदिकारण , नित्य , अक्षय , अव्यय तथा एकरस है । इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिणाम , समुद्र , सूर्य आदि का परिणाम , पर्वत देवतादि की उत्पत्ति , मन्वन्तर , कल्प विभाग , संपूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है । भगवान विष्णु के प्रधान होते हुए भी यह पुराण विष्णु और शिव के अभिन्नता का प्रतिपादक है । विष्णु पुराण में मुख्य रूप से श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन है । श्रीराम कथा का भी संक्षेप में वर्णन मिलता है । अष्टादश महापुराणों मे श्रीविष्णु पुराण का स्थान बहुत ऊंचा है । इनमें अन्य विषयों के साथ भूगोल , कर्मकांड , ज्योतिष , और राजवंश और श्रीकृष्ण चरित्र आदि प्रसंगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन मिलता है । श्रीविष्णु पुराण में इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति , वर्ण व्यवस्था , आश्रम व्यवस्था , भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापक

हरतालिका तीज व्रत कथा 2020 /Hartalika teej vrat katha 2020

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                     Hartalika Teej Vrat Katha हरतालिका तीज को   तीज भी कहते हैं । यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया हस्त नक्षत्र के दिन होता है ।।  इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ गौरी-शंकर की पूजा करतींं है । तीज का त्यौहार विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल , बिहार , झारखंड , और मध्य प्रदेश में मनाया जाता है । तीज का त्यौहार करवा-चौथ से कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवा-चौथ में रात को चांद देखकर व्रत खोलने का नियम है वही दूसरी ओर तीज में पूरे दिन निर्जला व्रत रख कर अगले दिन पूजन के बाद ही व्रत खोलने का नियम है ।  इस व्रत से जुड़ी मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियां पार्वती जी  केे समान ही सूखपूर्वक पतिरमण करके शिवलोक को जाती है । सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने सुहाग को अखंड बनाने के लिए तथा अविवाहित युवतीयां मनचाहा वर पाने के लिए हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं । माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ के लिए सर्वप्रथम हरतालिका तीज का व्रत रखा था । स्त्रीयां इस दिन सोलह श्रृंगार करके गौरी-शंकर और भगवान गणेश की पूजा करतीं हैं। पूजा की चौकी पर रेत से गौरी-शंकर की प्रतिमा स्थापित क

वट सावित्री व्रत 2020 / vat savitri vrat

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                    Vat savitri puja विवाहित स्त्रीयां अपने पति की लंबी उम्र के लिए वट सावित्री का व्रत रखती हैै । सावित्री व्रत कथा के अनुसार वट वृक्ष के नीचे ही सावित्री के पति के शरीर में प्राण वापस आएं थेे , उनके सास-ससुर के आंखो की ज्योति और छिना हुआ राज्य वापस मिल गया । पुराणों के अनुसार वट वृक्ष में ब्रह्मा , विष्णु और महेश तीनों का वास होता है । वट वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा , व्रत , कथा आदि सुनने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है । भगवान बुद्ध को भी इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतः वट वृक्ष को ज्ञान , निर्वान व दीर्घायु की प्रतीक माना जाता है । देवी सावित्री को भारतीय संस्कृति में एक आदर्श नारीत्व व सौभाग्य पतिव्रता के लिए आदर्श चरित्र माना गया है । सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है । वट वृक्ष का पूजन और सावित्री सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ । पढ़े :-  सावित्री और सत्यवान इस दिन महिलाएं विधि - विधान के साथ पूजा - अर्चना कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के चारों ओर घूमकर स

कथा शनि देव की / Katha Shani Dev ki

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                    Shani Dev ki katha शास्त्रों के अनुसार कश्यप मुनि के वंशज भगवान सूर्य देव की पत्नी छाया के कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास की अमावस्या को शनि देव का जन्म हुआ । छाया ने भगवान भोलेनाथ की कठोर तपस्या की थी । तेज धूप और गर्मी के कारण शनि देव का वर्ण काला पड़ गया परंतु इस तप ने उन्हें असीम ताकत प्रदान किया । एक बार कि बात है जब भगवान सूर्य अपनी पत्नी छाया से मिलने गए तो शनि देव अपनी माता के गर्भ में थे और अपने पिता का तेज नहीं सह सकें और अपनी आँखे बंद कर ली ।भगवान सूर्य ने जब अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि उनका होने वाला पुत्र काला है जो उनका नहीं हो सकता । सूर्य ने छाया से अपना यह संदेह व्यक्त भी कर दिया । इस कारण शनि देव के मन में अपने पिता के प्रति शत्रु भाव पैदा हो गया । शनि के जन्म के पश्चात भी उनके पिता ने कभी उनके साथ पुत्र वत व्यवहार नहीं किया । बड़े होने के पश्चात शनि देव ने भगवान भोलेनाथ की कठोर तपस्या की और जब भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर वरदान मागने के लिए कहा तो शनि देव ने कहा कि उनके पिता सूर्य ने हमेशा उनकी माता का अनादर किया और उन्हें शनि की वजह से प्रताड़

वाल्मीकि रामायण

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                    Valmiki writing Ramayana वाल्मीकि रामायण संस्कृत साहित्य का एक आरंभिक महाकाव्य है  जो संस्कृत भाषा में अनुष्टुप छंदो मे रचित है । इसमें श्रीराम के चरित्र का उत्तम एवं वृहद वर्णन काव्य रूप में उपस्थित हुआ है । महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित होने के कारण इसे वाल्मीकि रामायण कहा जाता है । वर्तमान में राम के चरित्र पर आधारित जितने भी ग्रंथ है वे सब वाल्मीकि रामायण पर ही आधारित है । वाल्मीकि रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि भी माना जाता है । यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आयामों को प्रतिबिंबित करने वाला होने के कारण साहित्य में अक्षय निधि है । काव्यगुणों की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण अद्वितीय महाकाव्य है । यह महाकाव्य संस्कृत काव्यों की परिभाषा का आधार है । यह अन्य रचनाकारों के लिए पथ-प्रदर्शक ग्रंथ रहे है ।  यह महाकाव्य वाल्मीकि जी की पूर्णत मौलिक कृति है । रामायण की कथावस्तु राम के चारों ओर ताना बाना बुनती है । राम इस महाकाव्य के नायक है । ईश्वरीय विशिष्टता और असाधारण गुणों के स्वामी होते हुए भी राम के किसी क्

आखिर क्यों हंसने लगा मेघनाद का कटा सिर

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                          मेघनाद एक वीर राक्षस योद्धा था जिसने इन्द्र पर जीत हासिल करने की वजह से इन्द्रजीत नाम मिला । मेघों की आड़ मे युद्ध करने की वजह से रावण का यह पुत्र मेघनाद कहलाया । अपने पिता रावण की आज्ञानुसार वह भगवान राम , लक्ष्मण और उनकी सेना  को समाप्त करने के लिए युद्ध करने लगा लेकिन लक्ष्मण के एक धातक बाण से उसका सर धड़ से अलग हो गया ।  मेघनाद बहुत ताकतवर था जब उसका सर धड़ से अलग होकर नीचे गिरा तो वानर सेना और स्वयं श्रीराम उसके सर को निहारने लगे । श्रीराम ने उसके सर को संभाल कर रख लिया और उसकी एक भुजा को बाण के द्वारा उसकी पत्नी सुलोचना के महल में पहुंचा दिया । वे सुलोचना को मेघनाद के वध की सूचना देना चाहते थे । वह भुजा जब सुलोचना ने देखीं तो उसे विश्वास नहीं हुआ कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और यह उसकी भुजा है । उसने कहा कि अगर तुम वास्तव मे मेरे पति की भुजा हो तो लिखकर मेरी दुविधा को दूर करों । सुलोचना के इतना कहते ही भुजा हरकत करने लगी और तब उसने एक खड़िय लाकर उस भुजा को दी । उस कटे हुए हाथ ने वहां जमीन पर लक्ष्मण जी के प्रशं

कैसे किया लक्ष्मण जी ने मेघनाद का वध

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                            लंका विजय के बाद प्रभु श्रीराम का चौदह वर्ष का वनवास पूरा हुआ और वे अयोध्या के राजा बने । एक बार कि बात है, अगस्त्यमुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध पर चर्चा करने लगे भगवान राम ने बताया कि कैसे उन्होंने रावण और कुम्भकर्ण जैसे मायावी राक्षसों का और लक्ष्मण ने मेघनाद का वध किया अगस्त्यमुनि ने कहा - 'प्रभु ! भले ही रावण और कुम्भकर्ण जैसे अति विशाल और मायावी राक्षसों का वध अपने किया लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाद ही था जिसका वध लक्ष्मण ने किया । मेघनाद ने तो इन्द्र को पराजित कर लंका में कैद करके रखा था । वह तो ब्रह्मा जी ने दान में मेघनाद से इन्द्र को मांग कर मुक्त किया था । ऐसे महारथी का वध लक्ष्मण ने किया यह बड़ी बात है ।' प्रभु श्रीराम ने आश्चर्य से पूछा - 'ऋषिवर कैसे मेघनाद का वध करना रावण और कुम्भकर्ण को मारने से ज्यादा मुश्किल था?' अगस्त्यमुनि ने कहा - 'प्रभु ! मेघनाद को यह वरदान प्राप्त था कि उसका वध वही कर सकता है जो चौदह वर्ष से न सोया हो न चौदह वर्षों से खाया हो और जिसने चौदह वर्षों से न ही किसी

अप्सरा मेनका और विश्वामित्र की प्रेम कथा

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                    ऋषि विश्वामित्र अपनी तपस्या मे लीन थे । वह इतने ध्यानमग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है । उनके कठोर तपस्या के प्रभाव से स्वर्ग मे इन्द्र का सिंहासन डोलने लगा । नारद मुनि ने देवराज इन्द्र को बताया कि मृत्युलोक मे एक तपस्वी वन मे कठोर तप मे लीन है । उनकी तपस्या में कोई विध्न नहीं पड रहा है । यह सुनकर देवराज को अपने सिंहासन की चिंता सताने लगी । इन्द्र ने स्वर्गलोक की अप्सरा मेनका को मृत्युलोक मे विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा । उन्हें पूरा विश्वास था कि विश्वामित्र मेनका को देखकर तप करना भूल जाएंगे । बर्षों से तपस्या में बैठे ऋषि का शरीर बहुत कठोर हो चुका था उनकी तपस्या भंग करना कोई आसान काम न था । उन पर मेनका की सुंदरता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वे काम को अपने बस में कर चुके थे । आखिरकार इन्द्र को कामदेव का सहारा लेना पड़ा । कामदेव के कामुक तीर ऋषि विश्वामित्र पर चलाया जिससे उनके मन मे मेनका के लिए आकर्षण पैदा हुआ । उनके ह्रदय में प्रेम के अंकुर फूटने लगे । इधर मेनका का कार्य भी सफल हुआ

उर्वशी पुरूरवा

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              एक बार नारद मुनि राजा पुरूरवा के रूप , गुण , बुद्धि और युद्धकौशल की प्रशंसा देवराज इंद्र से कर रहे थे । स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा उर्वशी उस समय वही मौजूद थी और देवर्षि नारद से राजा पुरूरवा का बखान सुन रहीं थीं । उर्वशी ने मृत्युलोक के राजा की इतनी प्रशंसा सुनी तो वह उन्हें देखने के लिए लालायित हो गई । बिना कुछ सोचे वह मृत्युलोक पहुंच गई और जब उसने पुरूरवा को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गई दूसरी ओर राजा पुरूरवा भी उर्वशी के रूप सौंदर्य को देखते ही उसपर मर मिटे । उन्होंने तत्काल ही उर्वशी के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । उर्वशी को पुरूरवा का विवाह प्रस्ताव मंजूर था परंतु उसने राजा के सामने दो शर्तें रख दी । पुरूरवा उस समय उर्वशी के लिए इतने पागल हुए कि बिना सुने उन्होंने दोनों शर्तें मान भी लिया । उर्वशी की पहली शर्त थी कि वे उसके दो भेड़ो की रक्षा करेंगे क्योंकि वह उन भेड़ो को अपने पुत्र समान समझतीं है । उसकी दूसरी शर्त यह थी कि वे एक दूसरे को नग्न अवस्था में अपने यौन संबंधो के समय ही देखेंगे । अगर पुरूरवा ने एक भी वचन तोड़ा तो वह

शंकुतला और दुष्यंत की प्रेम कथा

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                          एक बार कि बात है , हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गए । जिस वन मे वे आखेट के लिए गए थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था । ऋषिवर के दर्शन के लिए राजा दुष्यंत उनके आश्रम पहुंचे । पुकारने पर एक अति सुन्दर युवती कुटिया से निकल कर आती हैं और राजा से कहतीं हैं 'हे राजन्! ऋषिवर तो तीर्थ यात्रा पर निकले हैं । आपका ऋषि कण्व के आश्रम में स्वागत है ।' उस युवती को देखकर राजा दुष्यंत बोले - 'हे देवि ! आप कौन है ? मेरे विचार से तो यह आजन्म ब्रहमचारी कण्व ऋषि का आश्रम लगता है ।' युवती ने कहा - 'मेरा नाम शंकुतला हैं और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ ' दुष्यंत उस युवती की बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोले 'देवी ऋषिवर तो आजन्म ब्रहमचारी है , फिर आप उनकी पुत्री कैसे हो सकतीं हैं ?'  इसपर शंकुतला ने कहा - ' वास्तव मे मेरे माता-पिता ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका है । मेरे जन्म होने के पश्चात मेरी माता ने मुझे वन में छोड़ दिया जहां पर शकुंन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की । ऋषि कण्व की दृष्टि मुझपर पड़

अमरनाथ धाम की कथा

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                        पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार , एक बार माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ से पूछा - ' प्रभु आप अजर अमर है और मुझे हर बार एक नया जन्म लेकर नए स्वरूप में कठोर तपस्या करनी पडती है आपको पाने के लिए , मेरी इतनी कठोर परीक्षा क्यों लेते है ? आपके कंठ में पड़े इस नरमुण्ड माला और आपके अमर होने का क्या रहस्य है ? तब भगवान भोलेनाथ ने माता से कहा कि वे उन्हें एकांत में गुप्त स्थान मे अमर कथा सुनाएंगे ताकि कोई अन्य जीव उसे सुन न ले । यह अमर कथा जो भी सुनेगा वह अमरत्व प्राप्त कर लेगा । भोलेनाथ माता पार्वती को अमरनाथ की पवित्र गुफा में यह कथा माता को सुनाते हैं । कथा सुनते - सुनते माता पार्वती को नींद आ जाती है और वे वही सो जातीं हैं जिसका पता भोलेनाथ को नहीं चलता क्योंकि वे कथा सुनाने मे रमे होते है उस समय वहां दो सफेद कबूतरों का जोडा था जो ध्यानपूर्वक भोलेनाथ की कथा सुन रहे थे । वे बीच-बीच में गूं गूं की आवाज़ निकाल रहे थे । इस कारण भोलेनाथ को लगा कि पार्वती जी कथा सुन हुँकार भर रही है । और इस तरह दोनो कबूतरों ने अमर होने की कथा प

गयासुर की कथा

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                        पुराणों  के अनुसार गया (बिहार) नगर में एक राक्षस रहा करता था जिसका नाम था गयासुर  । गयासुर को वरदान मिला था कि जो भी उसे देखेगा या स्पर्श करेगा वह सीधे बैकुंठ जाएगा । इस कारण से यमलोक सूना होने लगा । इससे परेशान होकर यमराज ने त्रिदेव से कहा कि प्रभु गयासुर के वरदान के कारण अब पापी और अधर्मी व्यक्ति भी बैकुंठ जाने लगें हैं । इसका कोई उपाय निकालिए । यमराज के कहने पर ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए और बोले 'वत्स ! तुम परम पवित्र हो इसलिए देवताओं की इच्छा है कि हम तुम्हारी पीठ पर यज्ञ करें ।' गयासुर इसके  लिए सहर्ष तैयार हो गया । तब गयासुर के पीठ पर सभी देवता और स्वयं विष्णु जी गदा धारण कर स्थित हो गए । गयासुर के शरीर को स्थिर करने के लिए एक बड़ी सी शिला भी रखी गई । इसे आज प्रेत शिला के नाम से जाना जाता है । गयासुर के इस समर्पण को देखकर भगवान विष्णु बड़े प्रसन्न हुए और गयासुर को वरदान दिया कि अब से यह स्थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ वह गया  नाम से जानाा जाएगा । यहाँ पर पिंडदान और श्राद्ध करने वाले को पुण्य और

सोने की लंका

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                      मोह माया से दूर रहने वाले भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं । बहुत ही सादा जीवन और तपस्या में लीन रहने वाले भगवान भोलेनाथ को स्वर्ण से अधिक भस्म प्रिय है ।                                        एक बार कि बात है, भोलेनाथ और माता पार्वती से मिलने के लिए भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी आए । कैलाश पर्वत पर अधिक ठंड होने के कारण माता लक्ष्मी ठंड से ठिठुरने लगीं । उन्होंने माता पार्वती से व्यंग मे कहा कि आप एक राजकुमारी होते हुए इस प्रकार का जीवन कैसे जी सकतीं हैं । जब वे जाने लगीं तो उन्होंने भोलेनाथ और पार्वती जी को बैकुंठ आने का न्योता दिया । कुछ दिनों बाद भोलेनाथ और माता पार्वती भी बैकुंठ गए । माता पार्वती ने जब बैकुंठ के वैभव को देखा तो उनके मन मे भी लालसा हुई कि उनका भी एक वैभवशाली महल हो । कैलाश पहुंचने के बाद माता भोलेनाथ से हठ करने लगीं कि उनके लिए भी एक वैभवशाली महल का निर्माण करवाया जाए । भोलेनाथ मान गए और विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि माता के लिए एक अति सुन्दर स्वर्ण महल का निर्माण करें ।

श्रीकृष्ण ने तोड़ा रानी सत्यभामा का अहंकार

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                    भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ अपनेे सिंहासन पर विराजमान थे । निकट ही गरूड़ जी और सुदर्शन चक्र भी बैठे थे । तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था । बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा कि - 'हे प्रभु ! त्रेता युग में आपने श्रीराम के रूप में जन्म लिया था सीता आपकी पत्नी थी । क्या वह मुझसे भी ज्यादा सुंदर थी? द्वारिकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का घमंड हो गया है । तभी गरूड़ जी ने कहा कि भगवन क्या मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है ? इधर सुदर्शन चक्र से भी न रहा गया और तो बोले -'भगवन ! मैंने आपकों बड़े-बड़े युद्धों में विजयश्री दिलवायी है । क्या मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? श्रीकृष्ण मन-ही-मन मुस्कुरा रहे थे । वे समझ गए कि इन तीनों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट करने का समय आ गया है । ऐसा सोचकर भगवान श्रीकृष्ण ने गरूड़ से कहा कि - 'हे गरूड़ ! तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि भगवान राम माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।' द्वारिकाधीश भगवान

जाने कौन थी भगवान राम की बहन

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         दक्षिण भारत के रामायण के अनुसार भगवान राम की बहन का नाम शांता था जो चारों भाइयों से बड़ी थी । शांता राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थी । लेेेकिन राजा दशरथ ने पैदा होने के कुछ वर्षों बाद अंग देश के राजा को दे दिया था शांता का पालन-पोषण अंग देश के राजा रोमपद  और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया जो कौशल्या की बहन थी । रानी वर्षिणी निसंतान थी और एक बार जब वह अयोध्या आई थी तो उन्होंने हंसी-हंसी मे बच्चे की मांग की । राजा दशरथ ने वचन दे दिया तत्पश्चात शांता को उनकी मौसी ने गोद ले लिया । शांता चौसठ कलाओं में पारंगत थी और देखने में भी अत्यधिक सुंदर थी परंतु ऐसा कहा गया है कि शांता के जन्म के बाद भयानक सूखा पड़ा था जिसकी वजह से दशरथ ने अपनी बेटी को गोद दे दिया था । एक बार कि बात है राजा रोमपद और शांता दोनों पिता पुत्री किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे तभी एक ब्राह्मण उनके पास खेती के लिए सहायता हेतु आया परंतु राजा ने ध्यान नहीं दिया । अपने भक्त की बेइज्जती इन्द्र न सहन कर सके और क्रोध में उन्होंने अंग देश में बारिश होने नहीं दी । जिस कारण से सूखा पड़

जब प्रभु श्रीराम ने छुपकर मारा वानरराज बाली को

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वानर राज बाली किष्किन्धा का राजा और सुग्रीव का बडा भाई था । बाली का विवाह तारा के साथ हुआ था । तारा एक अप्सरा थी । बाली के पिता का नाम वानरश्रेष्ट ऋक्ष था । स्वर्ग के राजा इन्द्र बाली के धर्म पिता थे । उसका एक पुत्र भी था जिसका नाम अंगद था । बाली मल्ल युद्ध और गदा युद्ध में पारंगत था । उस समय पृथ्वी पर उससे बलशाली ओर कोई न था । इसके अलावा बाली को उसके धर्म पिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार मिला था । जिसे ब्रह्मा जी ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि यह हार पहनकर बाली जब भी युद्धक्षेत्र में युद्ध करने उतरेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और वह शक्ति बाली को मिल जाएगी । इस कारण बाली अजेय था । बाली ने अपनी शक्ति के बल पर दुदुम्भी , मायावी और रावण तक को पराास्त करके रखा था । परंतु बाली बड़ा अधर्मी था । उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक हडप कर उसे अपने राज्य से बाहर कर दिया था । श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने सुग्रीव को प्रभु श्रीराम से मिलवाया । राम के आश्वासन देने पर कि वे बाली का स्वयं वध करेंगे सुग्रीव ने बाली क

समुद्र मंथन की कथा

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एक बार राजा बलि के नेतृत्व में दैत्यों की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्र को हराकर वहां भी अधिकार कर लिया । अब तीनों लोकों में असुरों का साम्राज्य फैल गया और देवराज इन्द्र उस समय दुर्वासा ऋषि के श्राप से कमजोर हो चुके थे । जब देवताओं को कुछ समझ नहीं आया तो वे अपनी समस्या लिए सृष्टि के पालनहार देवता विष्णु जी के पास गए । उन्होंने देवताओं से कहा कि वे असुरों से अभी संधि कर ले और उनके साथ मिलकर  समुद्र मंथन करे । इसमें चौदह रत्नों की प्राप्ति  होगी जिसमें से एक अमृत भी होगा । (चूँकि देेेवता उस समय कमजोर हो गए थे इसलिए विष्णु जी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा। ) जब अमृत मिल जाएगा तो देवता उसे पीकर अमर और शक्तिशाली हो जाएँगे तत्पश्चात असुरों को हराना संभव होगा । देवताओं ने विष्णु जी के कहे अनुसार असुर राज बलि से अमृत निकलने की बात की और कहा कि वे अभी संधि कर ले क्योंकि अमृत पाने का यही मौका है और वह मान भी गया । क्षीर सागर में समुद्र मंथन शुरू हुआ । मन्दराचल पर्वत को मथंंनी और वासुकी नाग को नेती बनाया गया । वासुकी नाग को कष्ट न हो इसलिए भगवान वि

भगवान विष्णु के दशावतार

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हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव  त्रिदेव माने जाते हैंं । ब्रह्मा को सृष्टि का सृजनकर्ता तथा शिव को संहारक माना गया है। विष्णु सृष्टि के पालनहार देवता हैं । विष्णु जी की धर्मपत्नी माता लक्ष्मी  है और इनका निवास स्थान क्षीर सागर है जहां वे शेषनाग  पर विश्राम करते हैं । विष्णु जी की नाभि से ही ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई है । अपने ऊपरी दाएँ हाथ में विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र धारण कर रखा है तथा नीचे के दाएँ हाथ में गदा लिए है। बाएं हाथ में क्रमश कमल और शंख धारण किये हुए हैं । भगवान विष्णु के अवतार लेने का कारण उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता  मेंं बताया है । उन्होंने स्वयं कहा है कि " संसार में जब जब धर्म की हानि और पाप की जय होगी तब तब मैं इस संसार को पाप और पापियोंं से बचाने और फिर सेे धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित होता रहूँगा ।" श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार होंगे - मत्स्यावतार , कूर्मावतार , वराहवतार, नरसिंहवतार, वामनावतार, परशुरामवतार, रामवतार,कृष्णावतार,बुद्धवतार और कल्कि अवतार ।  मत्स्या