कृष्ण और सुदामा मित्रता
उज्जयिनी की पावन नगरी में शिप्रा नदी के किनारे ऋषि
संदीपनी का आश्रम बड़ा ही मनमोहक था जहाँ वे अपने विद्यार्थीयों को वेद-शास्त्रों की शिक्षा दिया करते थे ।
श्रीकृष्ण और बलराम ऋषि संदीपनी के पास ही शिक्षा प्राप्त
करने पहुंचे । यहां श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई । दोनो की मित्रता की सभी गुरूकुल में मिशाल दिया करते थे ।
एक बार कि बात है , कृष्ण और सुदामा हमेशा की तरह जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे तभी ऋषि संदीपनी की पत्नी और
उनकी गुरूमाता ने एक पोटली में बांधकर कुछ भुने हुए चने
सुदामा को दिए और कहा कि भूख लगने पर दोनों मिल-बाँटकर खा ले । सुदामा ने वह पोटली अपनी धोती से बाँध ली
और दोनों मित्र जंगल की ओर चल पड़े ।
दोनों लकड़ी काटने घने जंगल में पहुंचे, तभी अचानक से तेज हवा चलने लगी और धीरे-धीरे मौसम भी खराब होता गया।
जोरों की बारिश शुरू हो गई और अंधेरा भी होने लगा । अब
दोनों मित्र सोचने लगे कि क्या करना चाहिए क्योंकि वे काफी
दूर आ गए थे और वहां से गुरूकुल भी दूर था उपर से ये
भयानक बारिश और अंधेरा। अब वे करे तो क्या ? तब दोनों
मित्रों ने फैसला किया कि आज की रात वे इसी जंगल में किसी पेड़ पर गुजरेंगे ।
दोनों मित्र एक पेड़ पर चढ़ गए और उसकी घने शाखाओ से
दुबक कर बैठ गए ताकि वे भीगें नहीं । इधर बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही है ।
सुबह से रात हो गई थी और दोनों ने कुछ न खाया था तभी
सुदामा को गुरूमाता के दिए चने की पोटली हाथ लगी और
वे बिना श्रीकृष्ण को दिए अकेले चने खाने लगे ।
अब भूख तो श्रीकृष्ण को भी लगी थी फलस्वरूप उन्हें भी गुरूमाता के दिए चनों की याद आई ।
श्रीकृष्ण - मित्र! जरा वे भुने हुए चने तो निकालो जो गुरूमाता ने आते समय दिया था । मुझे बहुत भूख लगी है, जरा वही खा के संतोष कर लूँ ।
सुदामा (चने नही देना चाहते हैं) - मित्र ! उन चनों को तो मै
गुरूकुल में ही भूल गया ।
श्रीकृष्ण - अच्छा कोई बात नहीं।
कुछ देर बाद श्रीकृष्ण को ऐसा लगता है कि सुदामा कुछ खा रहे हैं। और वे बोले -"मित्र सुदामा ! लगता है कि तुम कुछ
खा रहे हो ,शायद गुरूमाता ने तुम्हें छुपाकर कुछ खाने को
दिया है?"
सुदामा- नही मित्र मै कुछ नहीं खा रहा । ठंड के कारण मेरे
दाँत बज रहे हैं इसलिए शायद तुम्हें भ्रम हो रहा है ।
श्रीकृष्ण मन-ही-मन मुस्कुराते हैं और फिर कुछ नहीं कहते ।
ऐसा माना जाता है कि वे चने एक गरीब ब्रहामण स्त्री को भिक्षा मे मिले थे । जब वह घर लौटी तो रात हो चुकी थी तब
उसने निश्चय किया कि अगले दिन भगवान को भोग लगा कर
वह चने खाएगी और वह सो गई । दुर्भाग्य से उसी रात उसकी
कुटिया में चोर घुसा और चने की पोटली देखकर समझा कि
इसमें शायद सोने की अशर्फी है और उसे अपने साथ ले गया ।
अब वही चोर, संदीपनी के गुरूकुल में घुसा जो उस स्त्री की कुटिया से नजदीक था । जब चोर-चोर शोर हुआ तो वह पोटली वही छोड़ कर भागा । इस प्रकार वह पोटली
गुरूमाता को अगले दिन झाडू लगाते हुए मिली और उन्होंने सुदामा को वन जाने के समय दे दी ।
उधर उस ब्राह्ममणी को जब सुबह चने की पोटली न मिली तो उसने श्राप दिया कि जो भी वे चने खाऐगा वह दरिद्र हो जाए ।
कहते हैं कि सुदामा परम ज्ञानी थे और उन्हें उस श्राप के बारे में जान लिया था इसलिए उन्होंने अकेले चने खा लिया ताकि उनके परम मित्र को दरिद्रता न मिले ।
ऐसी थी सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता। जिसमें अपने मित्र के लिए सहर्ष त्याग करने को तैयार थे दोनों। ऐसा माना जाता है कि सुदामा की घोर दरिद्रता का यही कारण था जो उन्होंने
जानकर लिया था अपने परम सखा और प्रभु को बचाने ।
संदीपनी का आश्रम बड़ा ही मनमोहक था जहाँ वे अपने विद्यार्थीयों को वेद-शास्त्रों की शिक्षा दिया करते थे ।
श्रीकृष्ण और बलराम ऋषि संदीपनी के पास ही शिक्षा प्राप्त
करने पहुंचे । यहां श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई । दोनो की मित्रता की सभी गुरूकुल में मिशाल दिया करते थे ।
एक बार कि बात है , कृष्ण और सुदामा हमेशा की तरह जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे तभी ऋषि संदीपनी की पत्नी और
उनकी गुरूमाता ने एक पोटली में बांधकर कुछ भुने हुए चने
सुदामा को दिए और कहा कि भूख लगने पर दोनों मिल-बाँटकर खा ले । सुदामा ने वह पोटली अपनी धोती से बाँध ली
और दोनों मित्र जंगल की ओर चल पड़े ।
दोनों लकड़ी काटने घने जंगल में पहुंचे, तभी अचानक से तेज हवा चलने लगी और धीरे-धीरे मौसम भी खराब होता गया।
जोरों की बारिश शुरू हो गई और अंधेरा भी होने लगा । अब
दोनों मित्र सोचने लगे कि क्या करना चाहिए क्योंकि वे काफी
दूर आ गए थे और वहां से गुरूकुल भी दूर था उपर से ये
भयानक बारिश और अंधेरा। अब वे करे तो क्या ? तब दोनों
मित्रों ने फैसला किया कि आज की रात वे इसी जंगल में किसी पेड़ पर गुजरेंगे ।
दोनों मित्र एक पेड़ पर चढ़ गए और उसकी घने शाखाओ से
दुबक कर बैठ गए ताकि वे भीगें नहीं । इधर बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही है ।
सुबह से रात हो गई थी और दोनों ने कुछ न खाया था तभी
सुदामा को गुरूमाता के दिए चने की पोटली हाथ लगी और
वे बिना श्रीकृष्ण को दिए अकेले चने खाने लगे ।
अब भूख तो श्रीकृष्ण को भी लगी थी फलस्वरूप उन्हें भी गुरूमाता के दिए चनों की याद आई ।
श्रीकृष्ण - मित्र! जरा वे भुने हुए चने तो निकालो जो गुरूमाता ने आते समय दिया था । मुझे बहुत भूख लगी है, जरा वही खा के संतोष कर लूँ ।
सुदामा (चने नही देना चाहते हैं) - मित्र ! उन चनों को तो मै
गुरूकुल में ही भूल गया ।
श्रीकृष्ण - अच्छा कोई बात नहीं।
कुछ देर बाद श्रीकृष्ण को ऐसा लगता है कि सुदामा कुछ खा रहे हैं। और वे बोले -"मित्र सुदामा ! लगता है कि तुम कुछ
खा रहे हो ,शायद गुरूमाता ने तुम्हें छुपाकर कुछ खाने को
दिया है?"
सुदामा- नही मित्र मै कुछ नहीं खा रहा । ठंड के कारण मेरे
दाँत बज रहे हैं इसलिए शायद तुम्हें भ्रम हो रहा है ।
श्रीकृष्ण मन-ही-मन मुस्कुराते हैं और फिर कुछ नहीं कहते ।
ऐसा माना जाता है कि वे चने एक गरीब ब्रहामण स्त्री को भिक्षा मे मिले थे । जब वह घर लौटी तो रात हो चुकी थी तब
उसने निश्चय किया कि अगले दिन भगवान को भोग लगा कर
वह चने खाएगी और वह सो गई । दुर्भाग्य से उसी रात उसकी
कुटिया में चोर घुसा और चने की पोटली देखकर समझा कि
इसमें शायद सोने की अशर्फी है और उसे अपने साथ ले गया ।
अब वही चोर, संदीपनी के गुरूकुल में घुसा जो उस स्त्री की कुटिया से नजदीक था । जब चोर-चोर शोर हुआ तो वह पोटली वही छोड़ कर भागा । इस प्रकार वह पोटली
गुरूमाता को अगले दिन झाडू लगाते हुए मिली और उन्होंने सुदामा को वन जाने के समय दे दी ।
उधर उस ब्राह्ममणी को जब सुबह चने की पोटली न मिली तो उसने श्राप दिया कि जो भी वे चने खाऐगा वह दरिद्र हो जाए ।
कहते हैं कि सुदामा परम ज्ञानी थे और उन्हें उस श्राप के बारे में जान लिया था इसलिए उन्होंने अकेले चने खा लिया ताकि उनके परम मित्र को दरिद्रता न मिले ।
ऐसी थी सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता। जिसमें अपने मित्र के लिए सहर्ष त्याग करने को तैयार थे दोनों। ऐसा माना जाता है कि सुदामा की घोर दरिद्रता का यही कारण था जो उन्होंने
जानकर लिया था अपने परम सखा और प्रभु को बचाने ।
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