कैसे बनें द्रोण आचार्य द्रोणाचार्य
महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक द्रोणाचार्य,ऋषि भारद्वाज
के पुत्र थे। उनका जन्म एक द्रोण (दोनें) कलश में हुआ था ,
जिस कारण उनका नाम द्रोणा या द्रोण रखा गया। अपने
पिता के आश्रम में रहते हुए ही इन्होंने चारों वेदों की शिक्षा ली
और उसमें पारंगत हो गए ।
एक बार भगवान परशुराम
अपनी सारी संपत्ति ब्राहमणों में दान कर तपस्या करने चले
गए। दूर दूर से ब्रहामण उनसे दान लेने के लिए पहुंच रहें थे ।
द्रोण भी गए। जब वे पहुंचे तो परशुराम जी अपना सब
कुछ दान कर चुके थे । उन्होंने द्रोण से कहा कि- "वत्स!
तुमने आने में विलम्ब कर दिया । अब तो मेरे पास सिर्फ मेरे
अस्त्र-शस्त्र बचे हुए हैं। "
द्रोण ने कहा कि - "गुरूदेव ! मुझे आपके इन अस्त्र-शस्त्रों
को पाकर बहुत प्रसन्नता होगी । परंतु आपको मुझे शस्त्र विद्या
की शिक्षा देनी होगी ।"
और इस प्रकार द्रोण परशुराम जी के शिष्य बनकर अस्त्र -
शस्त्र विद्या में भी पारंगत हो गए । वेदों की शिक्षा तो उन्होंने
पहले से ही अपने पिता से ले रखी थी । अततः शिक्षा ग्रहण
करने के बाद द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि के
साथ हुआ और इनका एक पुत्र अश्वथामा पैदा हुआ ।
द्रोण का जीवन बहुत गरीबी में बीत रहा था । एक बार कि
बात है उनके पुत्र अश्वथामा ने अपनी माँ से दूध माँगा, अब
दूध तो था नहीं घर में और लाती भी कहां से ? तब माता
कृपि ने दूध की जगह पानी में आटा घोलकर दे दिया । यह
देखकर द्रोण का ह्रदय दुखी हो उठा और उन्होंने निश्चय किया
कि वे अपनी गरीबी दूर करके ही रहेंगे और तब उन्हें सर्वप्रथम
अपने गुरूकुल के मित्र द्रुपद की याद आई जो अब पांचाल
राज्य के नरेश हैं ।
तत्पश्चात द्रोण अपने मित्र से मिलने पांचाल राज्य पहुंचे ।
उन्हें लगा कि उनका मित्र देखते ही पहचान लेगा और उनका
स्वागत सत्कार करेगा । वे उसे अपनी गरीबी के बारे में
बताएगें । उन्हें अपने मित्र पर विश्वास था कि वह उनकी मदद
अवश्य करेगा । परंतु अब स्थिति बदल चुकी थी। द्रुपद अब
कोई गुरुकुल के विद्यार्थी नहीं रहे,अब वे एक बहुत बड़े राज्य
के नरेश है । हर समय अपने मंत्रियों और सैनिकों से घिरे रहते
हैं। उनके पास अपने परिजनों से मिलने तक़ का अवकाश
नहीं है ।
बड़ी कोशिशों के बाद एक दिन पांचाल नरेश द्रुपद
से मिलने का अवसर द्रोण को मिला परंतु उनके मित्र ने उन्हें
पहचानने से भी इंकार कर दिया और उनकी भरी सभा में
बेइज्जती भी की । द्रोण के मानस पटल पर इस बात का
बहुत गहरा असर पड़ा और वे सब कुछ छोड़ निकल पड़े
हरिद्वार की दिशा में सन्यासी बनने।
शाम के समय में वे हस्तिनापुर राज्य में पहुंचे और एक कुएं
के पास रात बिताने की सोची। तभी कुछ बालक उनके पास
पहुंचे और निवेदन किया कि वे उनकी गेंद जो कुएं में गिर गई
हैं उसे निकाल दे ।
द्रोण बोले- "बालकों चिंता मत करो मैं तुम्हारी गेंद अभी
निकाले देता हूँ। "
द्रोण धनुर्विद्या में विद्वान थे और बह्ममण होने
के बाद भी वे क्षत्रियों की तरह धनुष-बाण रखा करते थे।
उन्होंने गेंद को लक्ष्य करके एक बाण चलाया। बाण सीधा
गेंद के फलक पर जा लगा और सीधे खड़ा रह गया। फिर
उन्होंने पहले बाण को लक्ष्य करके एक ओर बाण चलाया जो
क्रमशः पहले बाण पर लगा । इस प्रकार कई बाण और
चलाने के बाद आखिर बाण उनके हाथों में आ गया और गेंद
आसानी से बाहर आ गई। सभी बालक बहुत खुश हुए और
द्रोण को धन्यवाद दिया । परंतु उनमें से एक बालक ऐसा भी
था जो द्रोण की धनुर्विद्या से बहुत ज्यादा मुग्ध हुआ और
उनसे धनुर्विद्या सिखने की प्रबल इच्छा भी हुई । यह बालक
और कोई नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ धनुरधारी अर्जुन थे और बाकी
बालक कौरव-पांडव राजकुमार थे ।
अर्जुन ने अपने संरक्षक और पितामह भीष्म को जाकर द्रोण
की विलक्षण धनुर्विद्या के बारे में बताया और कहा कि वह
गुरु द्रोण से ही धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
अगले दिन पितामह द्रोण से मिलने गए और उन्होंने भी उनकी
प्रतिभा को पहचाना और तत्पश्चात गुरु द्रोण को कौरवों और
पांडव राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा के लिए गुरु पद पर
प्रतिष्ठित किया । पांडव कौरव राजकुमारों का गुरु बन द्रोण
को मान-सम्मान,प्रतिष्ठा और धन सब कुछ मिला ।
इस प्रकार द्रोण "आचार्य द्रोणाचार्य "
के रूप में प्रसिद्ध हुए और महाभारत के युद्ध में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई ।
के पुत्र थे। उनका जन्म एक द्रोण (दोनें) कलश में हुआ था ,
जिस कारण उनका नाम द्रोणा या द्रोण रखा गया। अपने
पिता के आश्रम में रहते हुए ही इन्होंने चारों वेदों की शिक्षा ली
और उसमें पारंगत हो गए ।
एक बार भगवान परशुराम
अपनी सारी संपत्ति ब्राहमणों में दान कर तपस्या करने चले
गए। दूर दूर से ब्रहामण उनसे दान लेने के लिए पहुंच रहें थे ।
द्रोण भी गए। जब वे पहुंचे तो परशुराम जी अपना सब
कुछ दान कर चुके थे । उन्होंने द्रोण से कहा कि- "वत्स!
तुमने आने में विलम्ब कर दिया । अब तो मेरे पास सिर्फ मेरे
अस्त्र-शस्त्र बचे हुए हैं। "
द्रोण ने कहा कि - "गुरूदेव ! मुझे आपके इन अस्त्र-शस्त्रों
को पाकर बहुत प्रसन्नता होगी । परंतु आपको मुझे शस्त्र विद्या
की शिक्षा देनी होगी ।"
और इस प्रकार द्रोण परशुराम जी के शिष्य बनकर अस्त्र -
शस्त्र विद्या में भी पारंगत हो गए । वेदों की शिक्षा तो उन्होंने
पहले से ही अपने पिता से ले रखी थी । अततः शिक्षा ग्रहण
करने के बाद द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि के
साथ हुआ और इनका एक पुत्र अश्वथामा पैदा हुआ ।
द्रोण का जीवन बहुत गरीबी में बीत रहा था । एक बार कि
बात है उनके पुत्र अश्वथामा ने अपनी माँ से दूध माँगा, अब
दूध तो था नहीं घर में और लाती भी कहां से ? तब माता
कृपि ने दूध की जगह पानी में आटा घोलकर दे दिया । यह
देखकर द्रोण का ह्रदय दुखी हो उठा और उन्होंने निश्चय किया
कि वे अपनी गरीबी दूर करके ही रहेंगे और तब उन्हें सर्वप्रथम
अपने गुरूकुल के मित्र द्रुपद की याद आई जो अब पांचाल
राज्य के नरेश हैं ।
तत्पश्चात द्रोण अपने मित्र से मिलने पांचाल राज्य पहुंचे ।
उन्हें लगा कि उनका मित्र देखते ही पहचान लेगा और उनका
स्वागत सत्कार करेगा । वे उसे अपनी गरीबी के बारे में
बताएगें । उन्हें अपने मित्र पर विश्वास था कि वह उनकी मदद
अवश्य करेगा । परंतु अब स्थिति बदल चुकी थी। द्रुपद अब
कोई गुरुकुल के विद्यार्थी नहीं रहे,अब वे एक बहुत बड़े राज्य
के नरेश है । हर समय अपने मंत्रियों और सैनिकों से घिरे रहते
हैं। उनके पास अपने परिजनों से मिलने तक़ का अवकाश
नहीं है ।
बड़ी कोशिशों के बाद एक दिन पांचाल नरेश द्रुपद
से मिलने का अवसर द्रोण को मिला परंतु उनके मित्र ने उन्हें
पहचानने से भी इंकार कर दिया और उनकी भरी सभा में
बेइज्जती भी की । द्रोण के मानस पटल पर इस बात का
बहुत गहरा असर पड़ा और वे सब कुछ छोड़ निकल पड़े
हरिद्वार की दिशा में सन्यासी बनने।
शाम के समय में वे हस्तिनापुर राज्य में पहुंचे और एक कुएं
के पास रात बिताने की सोची। तभी कुछ बालक उनके पास
पहुंचे और निवेदन किया कि वे उनकी गेंद जो कुएं में गिर गई
हैं उसे निकाल दे ।
द्रोण बोले- "बालकों चिंता मत करो मैं तुम्हारी गेंद अभी
निकाले देता हूँ। "
द्रोण धनुर्विद्या में विद्वान थे और बह्ममण होने
के बाद भी वे क्षत्रियों की तरह धनुष-बाण रखा करते थे।
उन्होंने गेंद को लक्ष्य करके एक बाण चलाया। बाण सीधा
गेंद के फलक पर जा लगा और सीधे खड़ा रह गया। फिर
उन्होंने पहले बाण को लक्ष्य करके एक ओर बाण चलाया जो
क्रमशः पहले बाण पर लगा । इस प्रकार कई बाण और
चलाने के बाद आखिर बाण उनके हाथों में आ गया और गेंद
आसानी से बाहर आ गई। सभी बालक बहुत खुश हुए और
द्रोण को धन्यवाद दिया । परंतु उनमें से एक बालक ऐसा भी
था जो द्रोण की धनुर्विद्या से बहुत ज्यादा मुग्ध हुआ और
उनसे धनुर्विद्या सिखने की प्रबल इच्छा भी हुई । यह बालक
और कोई नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ धनुरधारी अर्जुन थे और बाकी
बालक कौरव-पांडव राजकुमार थे ।
अर्जुन ने अपने संरक्षक और पितामह भीष्म को जाकर द्रोण
की विलक्षण धनुर्विद्या के बारे में बताया और कहा कि वह
गुरु द्रोण से ही धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
अगले दिन पितामह द्रोण से मिलने गए और उन्होंने भी उनकी
प्रतिभा को पहचाना और तत्पश्चात गुरु द्रोण को कौरवों और
पांडव राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा के लिए गुरु पद पर
प्रतिष्ठित किया । पांडव कौरव राजकुमारों का गुरु बन द्रोण
को मान-सम्मान,प्रतिष्ठा और धन सब कुछ मिला ।
इस प्रकार द्रोण "आचार्य द्रोणाचार्य "
के रूप में प्रसिद्ध हुए और महाभारत के युद्ध में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई ।
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