समुद्र मंथन की कथा
एक बार राजा बलि के नेतृत्व में दैत्यों की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्र को हराकर वहां भी अधिकार कर लिया । अब तीनों लोकों में असुरों का साम्राज्य फैल गया और देवराज इन्द्र उस समय दुर्वासा ऋषि के श्राप से कमजोर हो चुके थे । जब देवताओं को कुछ समझ नहीं आया तो वे अपनी समस्या लिए सृष्टि के पालनहार देवता विष्णु जी के पास गए । उन्होंने देवताओं से कहा कि वे असुरों से अभी संधि कर ले और उनके साथ मिलकर समुद्र मंथन करे । इसमें चौदह रत्नों की प्राप्ति होगी जिसमें से एक अमृत भी होगा । (चूँकि देेेवता
उस समय कमजोर हो गए थे इसलिए विष्णु जी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा। ) जब अमृत मिल जाएगा तो देवता उसे पीकर अमर और शक्तिशाली हो जाएँगे तत्पश्चात असुरों को हराना संभव होगा ।
देवताओं ने विष्णु जी के कहे अनुसार असुर राज बलि से अमृत निकलने की बात की और कहा कि वे अभी संधि कर ले क्योंकि अमृत पाने का यही मौका है और वह मान भी गया । क्षीर सागर में समुद्र मंथन शुरू हुआ । मन्दराचल पर्वत को मथंंनी और वासुकी नाग को नेती बनाया गया । वासुकी नाग को कष्ट न हो इसलिए भगवान विष्णु ने उसे गहन निद्रा प्रदान की । दानव रूप लेकर दानवों और देव रूप में देवताओं में शक्ति का संचार कियाा ।
जब समुद्र मंथन शुरू हुआ तो देवताओं ने वासुकी नाग के मुख को पकड़ा तो असुरों को इसमें देवताओं की चाल नजर आई । उन्हें लगा कि मुख की ओर पकड़ने में जरूर कोई फायदा है इसलिए उन्होंने कहा कि वे मुख की ओर पकड़ेगें तत्पश्चात देवताओं ने वासुकी नाग की पूंछ पकड़ी ।
मंथन शुरू हुआ तो सबसे पहले हलाहल विष से भरा पात्र निकला जिसके प्रभाव से सभी जलनेे लगे । सभी ओर हाहाकार मच गया कि इस विष को कौन धारण करेगा ? तब देवों के देव महादेव ने उस विष का पान किया और नीलकंठ
कहलाए ।
समुद्र मंथन फिर से शुरू हुआ और इस बार कामधेनु गाय निकली जिसे कल्याणकारी ऋषियों को दे दिया गया। तीसरे मेंं उच्चै:श्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्य राज बलि ने रख लिया ।
उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जो इन्द्र देव का वाहन बना । ऐरावत के पश्चात कौस्तुभमणि निकला जिसे भगवान विष्णु ने धारण किया । इसके बाद क्रमश कल्पवृक्ष और रंभा नामक अप्सरा निकली जिसे देवलोक में रख लिया गया ।
मंथन के समय जब मंथनी (मन्दराचल पर्वत ) डूबने लगा तब भगवान विष्णु ने कूर्मावतार (कछुआ अवतार ) लेेेकर मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर स्थित कर लिया और उसे डूबने से बचाया । आगे फिर समुद्र को मथने से देवी लक्ष्मी निकली जिन्होंने खुद ही विष्णु जी को वर लिया ।
लक्ष्मी जी के बाद देवी वारूणी मदिरा का पात्र लिए कन्याा रूप में निकली जिसे असुरों ने रखा । फिर क्रमश चन्द्रमा ,
परिजात वृक्ष और शंख निकला । चन्द्रमा की इच्छानुसार शिव जी ने उन्हें अपने सिर पर धारण किया। परिजात वृक्ष को स्वर्ग में स्थान दिया गया और शंंख विष्णु जी ने धारण किया ।
अंत में ध्वनतरि 'अमृत' का कलश लेेेकर निकलेे । असुरों ने यह कलश का पात्र छीन लिया और आपस में झगडनें लगे ।
देवताओं के पास इतनी शक्ति न थी कि वे असुरों से अमृत के लिए झगड़ते और निराश हो देखने लगे। इसी समय भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया और असुरों को मोहित कर
अमृत कलश उनसे ले लिया और देवताओं में बाँट दिया।
देवताओं की इस चाल को राहु नामक असुर ने समझ लिया और देवताओं का रूप लेकर देवताओं के बीच बैठ गया और अमृत को मुंह में डाल लिया । जब उसके कंठ में अमृत चला गया तो सूर्यदेेव और चन्द्रमा ने उसे पहचान लिया और पुकार कर कहा 'यह राहु दैत्य है ' फलस्वरूप विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सर धड से अलग कर दिया ।
अमृत के प्रभाव से उसका सर धड राहु केतु नामक दो ग्रहों में बंंट गया और अंतरिक्ष में स्थित हो गया । ऐ दोनों ग्रह ही बैर
भावना से सूर्य और चन्द्रमा को ग्रहण लगाते हैं।
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उस समय कमजोर हो गए थे इसलिए विष्णु जी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा। ) जब अमृत मिल जाएगा तो देवता उसे पीकर अमर और शक्तिशाली हो जाएँगे तत्पश्चात असुरों को हराना संभव होगा ।
देवताओं ने विष्णु जी के कहे अनुसार असुर राज बलि से अमृत निकलने की बात की और कहा कि वे अभी संधि कर ले क्योंकि अमृत पाने का यही मौका है और वह मान भी गया । क्षीर सागर में समुद्र मंथन शुरू हुआ । मन्दराचल पर्वत को मथंंनी और वासुकी नाग को नेती बनाया गया । वासुकी नाग को कष्ट न हो इसलिए भगवान विष्णु ने उसे गहन निद्रा प्रदान की । दानव रूप लेकर दानवों और देव रूप में देवताओं में शक्ति का संचार कियाा ।
जब समुद्र मंथन शुरू हुआ तो देवताओं ने वासुकी नाग के मुख को पकड़ा तो असुरों को इसमें देवताओं की चाल नजर आई । उन्हें लगा कि मुख की ओर पकड़ने में जरूर कोई फायदा है इसलिए उन्होंने कहा कि वे मुख की ओर पकड़ेगें तत्पश्चात देवताओं ने वासुकी नाग की पूंछ पकड़ी ।
मंथन शुरू हुआ तो सबसे पहले हलाहल विष से भरा पात्र निकला जिसके प्रभाव से सभी जलनेे लगे । सभी ओर हाहाकार मच गया कि इस विष को कौन धारण करेगा ? तब देवों के देव महादेव ने उस विष का पान किया और नीलकंठ
कहलाए ।
समुद्र मंथन फिर से शुरू हुआ और इस बार कामधेनु गाय निकली जिसे कल्याणकारी ऋषियों को दे दिया गया। तीसरे मेंं उच्चै:श्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्य राज बलि ने रख लिया ।
उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जो इन्द्र देव का वाहन बना । ऐरावत के पश्चात कौस्तुभमणि निकला जिसे भगवान विष्णु ने धारण किया । इसके बाद क्रमश कल्पवृक्ष और रंभा नामक अप्सरा निकली जिसे देवलोक में रख लिया गया ।
मंथन के समय जब मंथनी (मन्दराचल पर्वत ) डूबने लगा तब भगवान विष्णु ने कूर्मावतार (कछुआ अवतार ) लेेेकर मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर स्थित कर लिया और उसे डूबने से बचाया । आगे फिर समुद्र को मथने से देवी लक्ष्मी निकली जिन्होंने खुद ही विष्णु जी को वर लिया ।
लक्ष्मी जी के बाद देवी वारूणी मदिरा का पात्र लिए कन्याा रूप में निकली जिसे असुरों ने रखा । फिर क्रमश चन्द्रमा ,
परिजात वृक्ष और शंख निकला । चन्द्रमा की इच्छानुसार शिव जी ने उन्हें अपने सिर पर धारण किया। परिजात वृक्ष को स्वर्ग में स्थान दिया गया और शंंख विष्णु जी ने धारण किया ।
अंत में ध्वनतरि 'अमृत' का कलश लेेेकर निकलेे । असुरों ने यह कलश का पात्र छीन लिया और आपस में झगडनें लगे ।
देवताओं के पास इतनी शक्ति न थी कि वे असुरों से अमृत के लिए झगड़ते और निराश हो देखने लगे। इसी समय भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया और असुरों को मोहित कर
अमृत कलश उनसे ले लिया और देवताओं में बाँट दिया।
देवताओं की इस चाल को राहु नामक असुर ने समझ लिया और देवताओं का रूप लेकर देवताओं के बीच बैठ गया और अमृत को मुंह में डाल लिया । जब उसके कंठ में अमृत चला गया तो सूर्यदेेव और चन्द्रमा ने उसे पहचान लिया और पुकार कर कहा 'यह राहु दैत्य है ' फलस्वरूप विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सर धड से अलग कर दिया ।
अमृत के प्रभाव से उसका सर धड राहु केतु नामक दो ग्रहों में बंंट गया और अंतरिक्ष में स्थित हो गया । ऐ दोनों ग्रह ही बैर
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