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श्रीकृष्ण जन्म कथा - पौराणिक कथा | Shri Krishna Birth Story

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  Shri Krishna birth story श्रीकृष्ण जन्म कथा - पौराणिक कथा | Shri Krishna birth story भाद्रमास कृष्ण अष्टमी तिथि को आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र में देवकी और वासुदेव के पुत्र के रूप में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया । श्रीकृष्ण का जन्म देवकी के गर्भ से उनकी आठवीं संतान के रूप में हुआ ।  द्वापर युग में मथुरा में उग्रसेन नामक राजा राज्य करता था । उसके पुत्र कंस ने उसे गद्दी से उतार बंदी बना लिया और खुद मथुरा का राजा बन बैठा । भगवान श्रीकृष्ण की माता देवकी कंस की बहन थी।  यद्यपि कंस ने अपने पिता को बंदी बना कर रखा था लेकिन वह अपनी बहन देवकी को बहुत प्यार करता था । देवकी का विवाह यादववंशी राजा शूरसेन के पुत्र वसुदेव के साथ हुआ था ।   कंस देवकी को विदा करने के लिए रथ से जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई कि - हे कंस । अपनी जिस बहन देवकी को तुम इतने प्रेम से विदा कर रहे हो उसकी आठवीं संतान तेरा संहार करेगा । आकाशवाणी की बात सुनकर कंस क्रोध मे आकर  देवकी को मारने के लिए उद्धत हो गया । उसने सोचा न देवकी रहेगी न उसका पुत्र होगा। वसुदेव के समझाने पर की वह अपनी आठवीं संतान उसे सौंप दे

तारा रानी की कहानी / Tara Rani ki kahani

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      Tara Rani ki kahani राजा स्पर्श माता भगवती के पुजारी थे, दिन रात माता की पूजा और ध्यान करते रहते थे । माता ने भी उन्हें राजपाट , धन-दौलत , ऐशो-आराम के सभी साधन दिया था परंतु फिर भी एक कमी थी । राजा को कोई संतान न थी । यही दुख उन्हें हमेशा सताता रहता था । वे माता से हरदम प्रार्थना करते कि मां मुझे आपने सब कुछ दिया है बस एक संतान दे दे तो मेरा जीवन पूर्ण हो जाएगा । मेरे वंश को आगे बढ़ाने वाला एक पुत्र मुझे दे दो ।                  एक दिन माता भगवती ने उनकी प्रार्थना सुन ली और उन्हें सपने में आकर दर्शन दिया । उन्होंने कहा वत्स मै तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ और तुझे यह वरदान देती हूँ कि जल्दी ही तुम्हारे घर में दो कन्याएं जन्म लेंगी । कुछ समय पश्चात राजा के घर में एक कन्या का जन्म हुआ । राजा ने अपने दरबारियों , पंडितो एवं ज्योतिषियों को बुलाया और बच्ची की जन्म कुंडली तैयार करने का आदेश दिया । पंडित तथा ज्योतिषियों ने कन्या की कुंडली तैयार की और तत्पश्चात सभी ने आकर राजा को बताया कि राजन् यह कन्या तो साक्षात देवी है । यह कन्या जहां भी कदम रखेगी वहां खुशियाँ ही खुशिया

विष्णु पुराण सृष्टि की उत्पत्ति / Vishnu Puran shristi ki Utpatti

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Vishnu Puran Shristi ki Utpatti 1 / 1 विष्णु पुराण में भगवान विष्णु की महिमा  विष्णु पुराण अठारह पुराणों में अत्यंत महत्वपूर्ण तथा प्राचीन है । इसकी रचना पराशर मुनि द्वारा की गई थी । इसके प्रतिपाद्य भगवान विष्णु है जो सृष्टि के आदिकारण , नित्य , अक्षय , अव्यय तथा एकरस है । इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिणाम , समुद्र , सूर्य आदि का परिणाम , पर्वत देवतादि की उत्पत्ति , मन्वन्तर , कल्प विभाग , संपूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है । भगवान विष्णु के प्रधान होते हुए भी यह पुराण विष्णु और शिव के अभिन्नता का प्रतिपादक है । विष्णु पुराण में मुख्य रूप से श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन है । श्रीराम कथा का भी संक्षेप में वर्णन मिलता है । अष्टादश महापुराणों मे श्रीविष्णु पुराण का स्थान बहुत ऊंचा है । इनमें अन्य विषयों के साथ भूगोल , कर्मकांड , ज्योतिष , और राजवंश और श्रीकृष्ण चरित्र आदि प्रसंगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन मिलता है । श्रीविष्णु पुराण में इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति , वर्ण व्यवस्था , आश्रम व्यवस्था , भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापक

भीम और हनुमान की कहानी / Bheem aur hanuman ki kahani

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भीम और हनुमान की कहानी / BHEEM AND HANUMAN STORY महाभारत के पांच पांडव भाइयों मे से एक भीम का जन्म पवनदेव के आशीर्वाद स्वरुप हुआ था । क्योंकि माता कुंती को यह वरदान प्राप्त था कि वह जिस भी देवता का आह्वान करके उनसे पुत्र की इच्छा रखेगी उस देवता से उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी । इस तरह पांडु भीम के धर्मपिता हुए । भीम युधिष्ठिर से छोटे और अर्जुन , नकुल और सहदेव से बड़े थे । कहते हैं कि भीम मे सौ हाथियों का बल था । वे हमेशा भोजन के बारे में ही सोचते और अगर भोजन मिल जाए तो बस भीम को और कुछ नहीं दिखता था । भीम का पूरा नाम भीमसेन था ।  उनका विवाह द्रौपदी और हिडिम्बा के साथ हुआ था । Also Read :-  भीम और राक्षसी हिडिम्बा का विवाह/ Bheem aur rakchhasi hidimba ka vivah द्रौपदी से उन्हें सुतासोमा और हिडिम्बा से घटोत्कच नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी । उनके दोनों पुत्र महाभारत युद्ध में ही मारे गए । भीम बहुत विशालकाय शरीर के हष्ट-पुष्ट थे । उन्हें अपनी ताकत का बहुत घमंड था । भगवान श्रीकृष्ण ने उनका यह घमंड तोड़ने के लिए हनुमान जी को बुलाया । हनुमान जी त्रेता युग में भगवान राम के अनन्य भक्त थ

अर्जुन सुभद्रा प्रेम मिलन / Arjun shubhadra prem milan

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   सुभद्रा से कितना प्रेम करते थे अर्जुन Arjun shubhadra prem milan अर्जुन सुभद्रा प्रेम मिलन | Arjuna and shubhadra love story महाभारत में अर्जुन की चार पत्नियों का जिक्र मिलता है - द्रौपदी , उलूपी , चित्रांगदा और सुभद्रा ।  परंतु अपनी चारों पत्नियों मे से द्रौपदी और सुभद्रा के साथ रहे । सुभद्रा श्रीकृष्ण और बलराम की बहन थी । बलराम और सुभद्रा का जन्म वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से हुआ था ।                                  जब अर्जुन द्रोणाचार्य से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तभी उनकी भेंट सुभद्रा के चचेरे भाई गदा से हुई थी जो अक्सर सुभद्रा के रूप व गुणों की चर्चा अर्जुन से किया करते थे । अर्जुन को सुभद्रा से मन ही मन प्रेम हो जाता है । एक बार कि बात है , अर्जुन को बारह साल की लंबी यात्रा पर जाना पडता है इसी क्रम में उनकी मुलाकात उलूपी और चित्रांगदा से होती हैं । अर्जुन अपनी यात्रा जारी रखते हैं और इसी क्रम में द्वारका पहुँचते हैं जहाँ अपने परम मित्र श्रीकृष्ण से उनकी मुलाकात होनी है । अर्जुन के मन मे अपने वर्षों पुराने प्रेम सुभद्रा को देखने की इच्छा होती है । अर्जुन यति का रूप

हरतालिका तीज व्रत कथा 2020 /Hartalika teej vrat katha 2020

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                     Hartalika Teej Vrat Katha हरतालिका तीज को   तीज भी कहते हैं । यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया हस्त नक्षत्र के दिन होता है ।।  इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ गौरी-शंकर की पूजा करतींं है । तीज का त्यौहार विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल , बिहार , झारखंड , और मध्य प्रदेश में मनाया जाता है । तीज का त्यौहार करवा-चौथ से कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवा-चौथ में रात को चांद देखकर व्रत खोलने का नियम है वही दूसरी ओर तीज में पूरे दिन निर्जला व्रत रख कर अगले दिन पूजन के बाद ही व्रत खोलने का नियम है ।  इस व्रत से जुड़ी मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियां पार्वती जी  केे समान ही सूखपूर्वक पतिरमण करके शिवलोक को जाती है । सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने सुहाग को अखंड बनाने के लिए तथा अविवाहित युवतीयां मनचाहा वर पाने के लिए हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं । माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ के लिए सर्वप्रथम हरतालिका तीज का व्रत रखा था । स्त्रीयां इस दिन सोलह श्रृंगार करके गौरी-शंकर और भगवान गणेश की पूजा करतीं हैं। पूजा की चौकी पर रेत से गौरी-शंकर की प्रतिमा स्थापित क

बुद्ध पूर्णिमा 2020

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          Buddha Purnima 2020 वर्तमान में पूरे विश्व मे करोडों लोग भगवान बुद्ध के अनुयायी हैं । भारत के साथ-साथ चीन , नेपाल , सिंगापुर , वियतनाम , थाईलैंड , जापान , कम्बोडिया , श्रीलंका , मलेशिया , म्यांमार जैसे कई देशों में बुद्ध पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है । भारत के बिहार स्थित बौद्ध गया बुद्ध के अनुयायीयों सहित हिन्दुओं के लिए भी एक धार्मिक स्थल है । नेपाल के कुशीनगर में बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर लगभग एक महिने का मेला लगता है । श्रीलंका तथा कुछ अन्य देशों में बुद्ध पूर्णिमा के शुभ अवसर को वेसाक उत्सव के रूप में मनाया जाता है । बौद्ध अनुयायी इस दिन अपने घरों में दीये जलाते हैं फूलों से सजाते हैं , बौद्ध ग्रंथो का पाठ किया जाता है । इस दिन स्नान-दान का भी काफी महत्व है । वैशाख पूर्णिमा के दिन ही भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था इसलिए वैशाख मास की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है । लेकिन वैशाख पूर्णिमा के दिन न ही सिर्फ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था बल्कि उन्हें बरसों जंगलों में भटकते और तपस्या करते हुए इसी दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई थी । बरसों की कठिन तपस्

वट सावित्री व्रत 2020 / vat savitri vrat

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                    Vat savitri puja विवाहित स्त्रीयां अपने पति की लंबी उम्र के लिए वट सावित्री का व्रत रखती हैै । सावित्री व्रत कथा के अनुसार वट वृक्ष के नीचे ही सावित्री के पति के शरीर में प्राण वापस आएं थेे , उनके सास-ससुर के आंखो की ज्योति और छिना हुआ राज्य वापस मिल गया । पुराणों के अनुसार वट वृक्ष में ब्रह्मा , विष्णु और महेश तीनों का वास होता है । वट वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा , व्रत , कथा आदि सुनने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है । भगवान बुद्ध को भी इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतः वट वृक्ष को ज्ञान , निर्वान व दीर्घायु की प्रतीक माना जाता है । देवी सावित्री को भारतीय संस्कृति में एक आदर्श नारीत्व व सौभाग्य पतिव्रता के लिए आदर्श चरित्र माना गया है । सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है । वट वृक्ष का पूजन और सावित्री सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ । पढ़े :-  सावित्री और सत्यवान इस दिन महिलाएं विधि - विधान के साथ पूजा - अर्चना कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के चारों ओर घूमकर स

कथा शनि देव की / Katha Shani Dev ki

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                    Shani Dev ki katha शास्त्रों के अनुसार कश्यप मुनि के वंशज भगवान सूर्य देव की पत्नी छाया के कठोर तपस्या से ज्येष्ठ मास की अमावस्या को शनि देव का जन्म हुआ । छाया ने भगवान भोलेनाथ की कठोर तपस्या की थी । तेज धूप और गर्मी के कारण शनि देव का वर्ण काला पड़ गया परंतु इस तप ने उन्हें असीम ताकत प्रदान किया । एक बार कि बात है जब भगवान सूर्य अपनी पत्नी छाया से मिलने गए तो शनि देव अपनी माता के गर्भ में थे और अपने पिता का तेज नहीं सह सकें और अपनी आँखे बंद कर ली ।भगवान सूर्य ने जब अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि उनका होने वाला पुत्र काला है जो उनका नहीं हो सकता । सूर्य ने छाया से अपना यह संदेह व्यक्त भी कर दिया । इस कारण शनि देव के मन में अपने पिता के प्रति शत्रु भाव पैदा हो गया । शनि के जन्म के पश्चात भी उनके पिता ने कभी उनके साथ पुत्र वत व्यवहार नहीं किया । बड़े होने के पश्चात शनि देव ने भगवान भोलेनाथ की कठोर तपस्या की और जब भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर वरदान मागने के लिए कहा तो शनि देव ने कहा कि उनके पिता सूर्य ने हमेशा उनकी माता का अनादर किया और उन्हें शनि की वजह से प्रताड़

मोहिनी एकादशी व्रत कथा / Mohini ekadashi vrat katha

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            कथानुसार, समुद्र मंथन के दौरान देवताओं और असुरों के बीच अमृत कलश को लेकर युद्ध छिड़ गया । उस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया । जिसे देखकर असुर मोहित हो गए और अमृत कलश से उनका ध्यान हट गया । सभी देवताओं ने अमृत पान किया और अमर हो गए । जिस दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया वह तिथि वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी । यही कारण है कि इस तिथि को मोहिनी एकादशी के रूप में मनाया जाता है । इस दिन भगवान विष्णु के मोहिनी रूप की पूजा की जाती है । भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को बताया था मोहिनी एकादशी का महत्व  कथा के अनुसार एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि हे माधव वैशाख शुक्ल एकादशी की कथा और पूजन विधि के बारे में कृपया बताएं । कृष्ण ने कहा कि यह कथा जो मै आपको बताने जा रहा हूँ वह गुरु वशिष्ठ ने प्रभु श्रीराम को बताया था । एक बार श्रीराम ने ऋषि वशिष्ठ से पूछा कि हे गुरुदेव किसी ऐसे व्रत के बारे मे बताइए जिससे समस्त दुखो और पापों का नाश हो जाए । तब ऋषि वशिष्ठ ने कहा कि हे राम मोहिनी एकादशी का व्रत करने से सभी दुखों का नाश होता है और

रावण ने बंदी क्यों बनाया शनि देव को

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                  रावण ज्योतिषी शास्त्र का ज्ञाता था । जब रावण की महारानी मंदोदरी गर्भवती थी तो वह चाहता था कि उसका होने वाला  पुत्र दीर्घायु और सर्वशक्तिमान हो । वह चाहता था कि उसका होने वाला पुत्र ऐसे नक्षत्रों में पैदा हो जिससे वह दीर्घायु और महा-पराक्रमी हो जाए । इसके लिए रावण ने सभी ग्रह नक्षत्रों  को यह आदेश दिया कि जब उसका पुत्र मेघनाद पैदा होने  वाला हो तो शुभ और सर्वश्रेष्ठ स्थितियों में रहे । चूंकि सभी रावण से डरते थे अतः सभी ग्रह नक्षत्र डर के मारे रावण की इच्छानुसार उच्च स्थित में विराजमान हो गए परंतु शनि देव  को रावण की यह बात पसंद नहीं आई ।  शनि देव आयु की रक्षा करने वाले है , परंतु रावण जानता था कि सभी उसकी बात मानते हैं परंतु शनि देव उससे जरा भी  नहीं डरते और वह उसकी बात कदापि नहीं मानेंगे ।  अतः रावण ने बल का प्रयोग कर शनि देव को ऐसी स्थिति में रखा जिससे कि उसके पुत्र की आयु लंबी हो सके । उस समय तो रावण ने जैसे चाहा शनि देव को रख लिया परंतु जैसे ही मेघनाद के जन्म का समय निकट आया तो शनि देव ने अपनी

जगन्नाथ रथयात्रा से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें

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                               जगन्नाथ मंदिर को हिन्दू धर्म मेंं चारों धाम में से एक माना गया है । यहां हर वर्ष भगवान जगन्नाथ की भव्य रथयात्रा निकाली जाती है जो सिर्फ देश में नहीं विश्व भर में अति प्रसिद्ध हैं । जगन्नाथ पुरी को मुख्यतः पुरी नाम से जाना जाता है । रथयात्रा की धूम दस दिनों तक चलती है और इस समय पूरे देश से लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं । भगवान जगन्नाथ को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है जिनकी महिमा का उल्लेख धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में भी किया गया है । जगन्नाथ रथयात्रा में श्रीकृष्ण , बलराम और उनकी बहन सुभद्रा का रथ होता है । जो इस रथयात्रा में शामिल होकर रथ को खींचते हैं उन्हें सौ यज्ञों के बराबर का पुण्य मिलता है । हिन्दू धर्म में जगन्नाथ रथयात्रा का बहुत महत्व है । मान्यता के अनुसार भगवान जगन्नाथ के रथ को निकालकर प्रसिद्ध गुंडिचा माता मंदिर पहुंचाया जाता है जहाँ भगवान जगन्नाथ आराम करते हैं । गुंडिचा माता मंदिर में भारी तैयारीयां होती हैं । इस यात्रा को पूरे भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता है । रथयात्रा में सबसे पहला रथ बलराम

जैन धर्म में अक्षय तृतीया का महत्व

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                          Rishavnath (ऋषभदेव) जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ हुए जिन्हेे ऋषभनाथ कहा जाता है । उन्हें जन्म से ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था और समस्त कलाओं के ज्ञाता थे । युवा होने पर उनका विवाह नंदा और सुनंदा से हुआ । नंदा से भरत का जन्म हुआ जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (ऐसा जैन धर्मावलंबीयो का मानना है ) । आदिनाथ के सौ पुत्र और दो पुत्रियां हुई । ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया और फिर अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटकर खुद दिगम्बर तपस्वी बन गए । उनके साथ सैकड़ो लोगों ने उनका अनुसरण किया । जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं । अतः आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा । इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे जहां श्रेयांश ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया । अतः उस दिन अक्षय तृतीया के शुभ दिन ही भगवान ऋषभनाथ ने एक वर्ष के निराहार के बाद इक्षु ( शोरडी-गन्ने) रस से पारण किया था । इस कारण जैन धर्मावलंबीय

आठ पौराणिक मनुष्य जो आज भी जीवित है / Hindu mythology 8 immortal people

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                        जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है , गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था कि आत्मा तो अजर-अमर है और यह एक निश्चित समय के लिए शरीर धारण करती है । शरीर नश्वर है , परंतु हिन्दू पुराणों के अनुसार माता के गर्भ से जन्म लेने वाले आठ ऐसे व्यक्ति हैं जो चिरंजीवी है । इनकी मृत्यु आज तक नही हुई है । ऐसा माना जाता है कि ऐ आठों किसी नियम, वचन या श्राप से बंधे हुए है और दिव्य शक्तियों से युक्त एक दिव्य आत्मा है । हिन्दू धर्म के अनुसार वे आठ जीवित अजर अमर महामानव है । इन आठ महामानवों के नाम इस प्रकार है - द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वथामा , दैत्यराज राजा बलि , महर्षि वेदव्यास , अंजनी पुत्र हनुमान , कृपाचार्य , भगवान परशुराम , विभीषण और ऋषि मार्कंडेय । मान्यता के अनुसार जो भी व्यक्ति सुबह-सुबह इन आठों महामानवों का नाम स्मरण करते हैं उसके सारे रोग बीमारी खत्म हो जाती है और वह मनुष्य सौ वर्षों तक जीता है । हनुमान जी - श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने जब माता सीता को अशोक वाटिका में प्रभु श्रीराम का संदेश पहुंचाया

परशुराम जयंती पर जाने भगवान परशुराम की जीवन कथा / Parsuram

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                      Bhagwan Parsuram भगवान परशुराम  का जन्म अक्षय तृतीया  को हुआ था इसलिए अक्षय तृतीया को परशुराम जयंती के रूप में भी मनाया जाता है । वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम पहर में उच्च ग्रहों से युक्त मिथुन राशि में माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ । परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है और उनका जन्म त्रेता युग ( रामायण काल) में हुआ था । पुराणों के अनुसार उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि के द्वारा पुत्रेष्ठि यज्ञ के वरदान स्वरुप रेणुका के गर्भ से मध्य प्रदेश के इंदौर जिला मे ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ । पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण संस्कार के फलस्वरूप उनका नाम राम पड़ा । वे जमदग्नि के पुत्र होने के कारण जामदग्नय और शंकर जी द्वारा प्रदत परशु धारण किये रहने के कारण परशुराम कहलाए । आरंभिक शिक्षा उन्हें ऋषि विश्वामित्र और ऋषि ऋचीक के आश्रम में प्राप्त हुई । तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान भोलेनाथ के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर व

कब है अक्षय तृतीया जाने पौराणिक कथा

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                          Akshay Tiritya 2020 वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अधिष्ठात्री देवी माता गौरी है । उनकी साक्षी मे किया गया धर्म-कर्म दान अक्षय हो जाता है , इसलिए इस तिथि को अक्षय तृतीया कहा जाता है । अक्षय तृतीया से समस्त मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाते है । अक्षय तृतीया का पौराणिक कथाओं में वर्णन :- महाभारत काल में जब पांडवो को तेरह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास मिला था तभी एक बार उनकी कुटिया में दुर्वासा ऋषि पधारें । उस समय द्रौपदी से जितना भी हुआ उसने ऋषि का बड़ी श्रद्धा और प्रेम से स्वागत सत्कार किया जिससे दुर्वासा ऋषि बहुत प्रसन्न भी हुए । दुर्वासा ऋषि ने उस समय द्रौपदी को एक अक्षय पात्र दिया । साथ ही द्रौपदी को बताया कि आज अक्षय तृतीया है , अतः आज के दिन जो भी धरती पर श्री हरी विष्णु की विधि - विधान से पूजा - अर्चना करेगा तथा उनको चने का सत्तू, गुड़ मौसमी फल , वस्त्र , जल से भरा घड़ा तथा दक्षिणा के साथ श्री विष्णु के निमित्त दान करेगा , उसके घर का भण्डार सदैव भरा रहेगा । उसके धन-धान्य का क्षय नहीं होगा , उसमें अक्षय व

आखिर क्यों हंसने लगा मेघनाद का कटा सिर

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                          मेघनाद एक वीर राक्षस योद्धा था जिसने इन्द्र पर जीत हासिल करने की वजह से इन्द्रजीत नाम मिला । मेघों की आड़ मे युद्ध करने की वजह से रावण का यह पुत्र मेघनाद कहलाया । अपने पिता रावण की आज्ञानुसार वह भगवान राम , लक्ष्मण और उनकी सेना  को समाप्त करने के लिए युद्ध करने लगा लेकिन लक्ष्मण के एक धातक बाण से उसका सर धड़ से अलग हो गया ।  मेघनाद बहुत ताकतवर था जब उसका सर धड़ से अलग होकर नीचे गिरा तो वानर सेना और स्वयं श्रीराम उसके सर को निहारने लगे । श्रीराम ने उसके सर को संभाल कर रख लिया और उसकी एक भुजा को बाण के द्वारा उसकी पत्नी सुलोचना के महल में पहुंचा दिया । वे सुलोचना को मेघनाद के वध की सूचना देना चाहते थे । वह भुजा जब सुलोचना ने देखीं तो उसे विश्वास नहीं हुआ कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और यह उसकी भुजा है । उसने कहा कि अगर तुम वास्तव मे मेरे पति की भुजा हो तो लिखकर मेरी दुविधा को दूर करों । सुलोचना के इतना कहते ही भुजा हरकत करने लगी और तब उसने एक खड़िय लाकर उस भुजा को दी । उस कटे हुए हाथ ने वहां जमीन पर लक्ष्मण जी के प्रशं

कैसे किया लक्ष्मण जी ने मेघनाद का वध

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                            लंका विजय के बाद प्रभु श्रीराम का चौदह वर्ष का वनवास पूरा हुआ और वे अयोध्या के राजा बने । एक बार कि बात है, अगस्त्यमुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध पर चर्चा करने लगे भगवान राम ने बताया कि कैसे उन्होंने रावण और कुम्भकर्ण जैसे मायावी राक्षसों का और लक्ष्मण ने मेघनाद का वध किया अगस्त्यमुनि ने कहा - 'प्रभु ! भले ही रावण और कुम्भकर्ण जैसे अति विशाल और मायावी राक्षसों का वध अपने किया लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाद ही था जिसका वध लक्ष्मण ने किया । मेघनाद ने तो इन्द्र को पराजित कर लंका में कैद करके रखा था । वह तो ब्रह्मा जी ने दान में मेघनाद से इन्द्र को मांग कर मुक्त किया था । ऐसे महारथी का वध लक्ष्मण ने किया यह बड़ी बात है ।' प्रभु श्रीराम ने आश्चर्य से पूछा - 'ऋषिवर कैसे मेघनाद का वध करना रावण और कुम्भकर्ण को मारने से ज्यादा मुश्किल था?' अगस्त्यमुनि ने कहा - 'प्रभु ! मेघनाद को यह वरदान प्राप्त था कि उसका वध वही कर सकता है जो चौदह वर्ष से न सोया हो न चौदह वर्षों से खाया हो और जिसने चौदह वर्षों से न ही किसी

अप्सरा मेनका और विश्वामित्र की प्रेम कथा

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                    ऋषि विश्वामित्र अपनी तपस्या मे लीन थे । वह इतने ध्यानमग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है । उनके कठोर तपस्या के प्रभाव से स्वर्ग मे इन्द्र का सिंहासन डोलने लगा । नारद मुनि ने देवराज इन्द्र को बताया कि मृत्युलोक मे एक तपस्वी वन मे कठोर तप मे लीन है । उनकी तपस्या में कोई विध्न नहीं पड रहा है । यह सुनकर देवराज को अपने सिंहासन की चिंता सताने लगी । इन्द्र ने स्वर्गलोक की अप्सरा मेनका को मृत्युलोक मे विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा । उन्हें पूरा विश्वास था कि विश्वामित्र मेनका को देखकर तप करना भूल जाएंगे । बर्षों से तपस्या में बैठे ऋषि का शरीर बहुत कठोर हो चुका था उनकी तपस्या भंग करना कोई आसान काम न था । उन पर मेनका की सुंदरता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वे काम को अपने बस में कर चुके थे । आखिरकार इन्द्र को कामदेव का सहारा लेना पड़ा । कामदेव के कामुक तीर ऋषि विश्वामित्र पर चलाया जिससे उनके मन मे मेनका के लिए आकर्षण पैदा हुआ । उनके ह्रदय में प्रेम के अंकुर फूटने लगे । इधर मेनका का कार्य भी सफल हुआ