आदिकवि वाल्मीकि
बहुत पहले की बात है,एक बार देवर्षि नारद मुनि किसी जंगल से गुज़र रहे थे तभी उन्हें पीछे से किसी ने दबोचा । वे अचानक कुछ समझ नहीं सके और खुद को बचाने की कोशिश की ।
जब उन्होंने पकड़ने वाले व्यक्ति को देखा तो उन्हें एक खूंखार सा दिखने वाला आदमी खड़ा देखा।
उस व्यक्ति ने नारद जी को एक पेड़ से बाँध दिया और कहा कि जो भी तुम्हारे पास है वह मुझे दे दो नहीं तो तुम्हें जान से मार दूंगा ।
नारदजी - हे वत्स! तुम कौन हो और मुझसे क्या मांग रहे हो?
रत्नाकर (डाकू ) - मैं एक डाकू हूँ और इस जंगल से आने-जाने वाले व्यक्तियों को पकड़कर उनका धन लुटता हूँ । तुम्हारे पास भी जो है मुझे दे दो अन्यथा अच्छा नहीं होगा ।
नारदजी - क्या तुम जानते हो कि तुम जो कार्य कर रहे हो वह बहुत बड़ा पाप है ?
रत्नाकर - मुझे नहीं पता कि मैं पाप कर रहा हूँ या पूण्य । बस मुझे इतना पता है कि इससे मेरी और मेरे परिवार की जरूरत पूरी हो रही है।
नारदजी - अच्छा तो यह नीच कार्य जो तुम कर रहे हो अपने परिजनों के लिए जरा उनसे पूछो कि वे इस पाप में तुम्हारे भागीदार बनेंगे? क्या वे तुम्हारे पापों का बोझ लेने के लिए तैयार है ?
रत्नाकर - हाँ मेरा परिवार मेरे साथ हमेशा खड़ा है इस बात का मुझे पूर्ण विश्वास है ।
नारदजी - ठीक है ! तुम अपने परिजनों से यह बात पूछ कर आओ अगर वे तुम्हारे पापों को लेने के लिए तैयार है तो मैं तुम्हें बहुत धन दूंगा।
रत्नाकर डाकू अपने परिजनों से यह बात पूछता है परंतु कोई भी उसके कर्मों का फल नहीं भोगना चाहता । यह बात उसने आकर नारदजी को बताई । रत्नाकर मन ही मन सोचने लगता है कि जिस परिवार के लिए उसने इतने बुरे काम किए उन लोगों ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया।
नारदजी रत्नाकर डाकू की मन की बात ताड़ लेते हैं और कहते है - वत्स ! इस संसार में ऐसा ही होता है। कोई किसी का अपना नहीं होता बस सब अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते है । मनुष्य को अच्छे कर्म करने चाहिए तभी उसका उद्धार हो सकता है । अपने पापों का भोग मनुष्य को स्वयं भोगना पड़ता है ।
रत्नाकर को नारदजी की बात सुनकर अपने किए पर पश्चाताप होने लगा और उनसे मुक्ति का मार्ग पूछने लगा ।
नारदजी ने उसे राम नाम का मंत्र दिया परंतु जीवन भर मार -काट करने वाले रत्नाकर के मुंह से राम नाम निकला ही नहीं।
तब नारदजी ने कहा कि तुम राम-राम की जगह मरा-मरा का ही जाप करो तुम्हारा इसी में उद्धार है।
रत्नाकर मरा-मरा के जाप में ही ऐसा लीन हुआ कि कब उसके शरीर में दीमकों ने अपना कब्जा कर लिया उसे पता ही नहीं चला । ब्रहमा जी ने प्रसन्न होकर रत्नाकर डाकू को त्रिकालदर्शी और परम ज्ञानी होने का वरदान प्रदान किया ।
इस तरह रत्नाकर डाकू 'वाल्मीकि ' बने और ब्रहमा जी की प्रेेरणा से आगे चलकर संस्कृृृत के प्रथम 'महाकाव्य रामायण ' की रचना की और आदिकवि वाल्मीकि नाम से विख्यात हुुुए ।
आज 'आश्विन मास की पूर्णिमा ' को 'वाल्मीकि जयन्ती '
के रूप में मनाया जाता है । कहा जाता है कि वाल्मीकि जी का जन्म इस दिन ब्रहमा जी के मानस पुत्र प्रचेता के घर हुआ था परंतु एक भीलनी ने बचपन में ही इनका अपहरण कर लिया था । इस तरह इनका पालन पोषण भील जनजाति में हुआ और आगे चलकर ये डाकू रत्नाकर बने ।
जब उन्होंने पकड़ने वाले व्यक्ति को देखा तो उन्हें एक खूंखार सा दिखने वाला आदमी खड़ा देखा।
उस व्यक्ति ने नारद जी को एक पेड़ से बाँध दिया और कहा कि जो भी तुम्हारे पास है वह मुझे दे दो नहीं तो तुम्हें जान से मार दूंगा ।
नारदजी - हे वत्स! तुम कौन हो और मुझसे क्या मांग रहे हो?
रत्नाकर (डाकू ) - मैं एक डाकू हूँ और इस जंगल से आने-जाने वाले व्यक्तियों को पकड़कर उनका धन लुटता हूँ । तुम्हारे पास भी जो है मुझे दे दो अन्यथा अच्छा नहीं होगा ।
नारदजी - क्या तुम जानते हो कि तुम जो कार्य कर रहे हो वह बहुत बड़ा पाप है ?
रत्नाकर - मुझे नहीं पता कि मैं पाप कर रहा हूँ या पूण्य । बस मुझे इतना पता है कि इससे मेरी और मेरे परिवार की जरूरत पूरी हो रही है।
नारदजी - अच्छा तो यह नीच कार्य जो तुम कर रहे हो अपने परिजनों के लिए जरा उनसे पूछो कि वे इस पाप में तुम्हारे भागीदार बनेंगे? क्या वे तुम्हारे पापों का बोझ लेने के लिए तैयार है ?
रत्नाकर - हाँ मेरा परिवार मेरे साथ हमेशा खड़ा है इस बात का मुझे पूर्ण विश्वास है ।
नारदजी - ठीक है ! तुम अपने परिजनों से यह बात पूछ कर आओ अगर वे तुम्हारे पापों को लेने के लिए तैयार है तो मैं तुम्हें बहुत धन दूंगा।
रत्नाकर डाकू अपने परिजनों से यह बात पूछता है परंतु कोई भी उसके कर्मों का फल नहीं भोगना चाहता । यह बात उसने आकर नारदजी को बताई । रत्नाकर मन ही मन सोचने लगता है कि जिस परिवार के लिए उसने इतने बुरे काम किए उन लोगों ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया।
नारदजी रत्नाकर डाकू की मन की बात ताड़ लेते हैं और कहते है - वत्स ! इस संसार में ऐसा ही होता है। कोई किसी का अपना नहीं होता बस सब अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते है । मनुष्य को अच्छे कर्म करने चाहिए तभी उसका उद्धार हो सकता है । अपने पापों का भोग मनुष्य को स्वयं भोगना पड़ता है ।
रत्नाकर को नारदजी की बात सुनकर अपने किए पर पश्चाताप होने लगा और उनसे मुक्ति का मार्ग पूछने लगा ।
नारदजी ने उसे राम नाम का मंत्र दिया परंतु जीवन भर मार -काट करने वाले रत्नाकर के मुंह से राम नाम निकला ही नहीं।
तब नारदजी ने कहा कि तुम राम-राम की जगह मरा-मरा का ही जाप करो तुम्हारा इसी में उद्धार है।
रत्नाकर मरा-मरा के जाप में ही ऐसा लीन हुआ कि कब उसके शरीर में दीमकों ने अपना कब्जा कर लिया उसे पता ही नहीं चला । ब्रहमा जी ने प्रसन्न होकर रत्नाकर डाकू को त्रिकालदर्शी और परम ज्ञानी होने का वरदान प्रदान किया ।
इस तरह रत्नाकर डाकू 'वाल्मीकि ' बने और ब्रहमा जी की प्रेेरणा से आगे चलकर संस्कृृृत के प्रथम 'महाकाव्य रामायण ' की रचना की और आदिकवि वाल्मीकि नाम से विख्यात हुुुए ।
आज 'आश्विन मास की पूर्णिमा ' को 'वाल्मीकि जयन्ती '
के रूप में मनाया जाता है । कहा जाता है कि वाल्मीकि जी का जन्म इस दिन ब्रहमा जी के मानस पुत्र प्रचेता के घर हुआ था परंतु एक भीलनी ने बचपन में ही इनका अपहरण कर लिया था । इस तरह इनका पालन पोषण भील जनजाति में हुआ और आगे चलकर ये डाकू रत्नाकर बने ।
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