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जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी / Jain Dharma ke 24ve Tirthakar Mahavir swami

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महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वें और अंतिम तीर्थंकर माने जाते हैं । उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था । वे अहिंसा के सच्चे पुजारी थे । हिंसा , पशुबलि , जाति-पाति भेदभाव जिस समय बढ़ गया उसी समय महावीर और बुद्ध का जन्म हुआ था । दोनों महापुरुषों ने इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई और अहिंसा को बढावा दिया ।       Mahavir swami 24th Tirthakar of Jain Dharma ईसा पूर्व 599 में वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ तीसरी संतान के रूप में वर्धमान का जन्म हुआ था । यही वर्धमान आगे चलकर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी बने । महावीर को वीर , अतिवीर और सन्मति भी कहा जाता है । महावीर स्वामी का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल बाद भी उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाता है । महावीर स्वामी पंचशील सिद्धांत के प्रवर्तक थे । जैन ग्रंथो के अनुसार 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के 298 वर्ष बाद महावीर स्वामी का जन्म चैत्र मास के 13वें दिन में हुआ था । बिहार के मुजफ्फरपुर जिले का आज जो बसाढ़ गांव है वह उस समय का वैशाली थ

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर कौन थे / Jain Dharma ke 24 Tirthakar kaun the

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जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए । तीर्थंकर का अर्थ है - तारने वाला । तीर्थंकर को अरिहंत कहा जाता है । अरिहंत का मतलब होता है , जिसने अपने अंदर के शत्रुओं पर विजय पा लिया हो । एक ऐसा व्यक्ति जिसने कैवल्य ज्ञान को प्राप्त कर लिया हो । अरिहंत का मतलब भगवान भी होता है । जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए । 1. ऋषभदेव :-  ऋषभदेव का जन्म चैत्र मास की कृृष्ण की अष्टमी-नवमी को अयोध्या मे हुआ । इनके दो पुत्र भरत और बाहुुबली तथा दो पुत्रियां ब्रह्मी  और सुुंदरी हुई । ऋषभनाथ को जन्म से ही समस्त कलााओं का ज्ञान था । उन्होंने हजारों बर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया और फिर अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटकर खुद दिगम्बर तपस्वी बन गए । उनके साथ सैकड़ो लोगों ने उनका अनुसरण किया । जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं । अतः उन्हें एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा । पूर्णता प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपना मौन व्रत तोड़ा और संपूर्ण आर्यावर्त में लगभग 99 साल तक लोगों को जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त होने का उपाय बताया । अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के क

जैन धर्म में अक्षय तृतीया का महत्व

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                          Rishavnath (ऋषभदेव) जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ हुए जिन्हेे ऋषभनाथ कहा जाता है । उन्हें जन्म से ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था और समस्त कलाओं के ज्ञाता थे । युवा होने पर उनका विवाह नंदा और सुनंदा से हुआ । नंदा से भरत का जन्म हुआ जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (ऐसा जैन धर्मावलंबीयो का मानना है ) । आदिनाथ के सौ पुत्र और दो पुत्रियां हुई । ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया और फिर अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटकर खुद दिगम्बर तपस्वी बन गए । उनके साथ सैकड़ो लोगों ने उनका अनुसरण किया । जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं । अतः आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा । इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे जहां श्रेयांश ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया । अतः उस दिन अक्षय तृतीया के शुभ दिन ही भगवान ऋषभनाथ ने एक वर्ष के निराहार के बाद इक्षु ( शोरडी-गन्ने) रस से पारण किया था । इस कारण जैन धर्मावलंबीय