कृष्ण और सुदामा मिलन
महर्षि संदीपनी के गुरूकुल में भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की शुरुआत हुई। आगे चलकर श्रीकृष्ण द्वारकापुरी
के राजा बने परंतु सुदामा एक दरिद्र ब्रह्ममण के रूप में अपना
जीवन यापन करते रहे । नियमानुसार पाँच घरों में भिक्षा मांगने जाते और जो कुछ भी मिलता उसी में संतोष कर लेते ।
उनके दिन घोर दरिद्रता में बीत रहे थे । कभी-कभी तो ऐसा होता कि कई-कई दिनों तक उपवास में ही रहना पड़ता था ।
सुदामा और उनकी पत्नी को अपने उपवास की चिंता न थी परंतु वे अपने बच्चों को भूख से बिलबिलाते देखते तो उनका
ह्रदय दुख से फटने लगता परंतु वे कर भी क्या सकते थे ।
एक बार सुदामा जी की पत्नी ने उनसे प्रार्थना की कि वे अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास जाए । वे जरूर हमारी मदद करेंगे ।
पत्नी के बहुत मनाने पर सुदामा जी जाने के लिए तैयार हुए।
श्रीकृष्ण को कुछ भेंट देने के लिए वे अपने पड़ोसी के घर गई और एक मुट्ठी भर चावल उधार मांग लाई । उन थोड़े से
चावल को भुनकर एक पोटली में बांधी और पति को विदा कर दिया ।
रास्ते में हजारों कष्टों को झेलते हुए सुदामा जी द्वारकापुरी पहुंचे। न पाँव में जूते ना खाने को एक दाना और न ही तन ढकने लायक वस्त्र ही पहने हुए थे ।
जैसे ही वे परम वैभवशाली नगरी द्वारकापुरी पहुंचे, उन्हें अपनी दीन-दशा पर शर्म आने लगी। एक से एक सोने के भवन और आते-जाते लोगों का ऐश्वर्य देखकर वे संकोच से
एक ओर खड़े हो गए और नगर की भव्यता को देखने लगे ।
सुदामा जी मन ही मन सोच रहे थे कि जिस राजा की नगरी और प्रजा इतनी समृद्ध और वैभवशाली है वह राजा कितना प्रतापी होगा? जिसकी नगरी के सारे घर भवन जैसे है उसका
राजमहल कितना बड़ा होगा । क्या इतना बड़ा और धनवान राजा मुझ जैसे गरीब ब्राहमण को अपना मित्र मानेगा?
लक्ष्मी स्वंय जिसकी पटरानी हो और कई सुंदर रानियों से श्रीकृष्ण घिरे होंगे । उनके सामने मुझे अपना मित्र बताते हुए उन्हें लज्जित होना पडेगा ।
यह सब सोचकर सुदामा जी ने निश्चय किया कि वे यहां से ही वापस लौट जाएं पंरतु फिर उन्हें भूख से बिलखते अपने बच्चों तथा अपनी पत्नी की याद आई और वे श्रीकृष्ण के राजमहल
की ओर बढने लगे । जब वे राजमहल के दरवाजे तक पहुंचे और राजमहल देखा तो बस देखते ही रह गए । ऐसा लग रहा था मानो स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल हो ।
सुदामा ने एक दरबान को बुलाया और उससे महल के अंदर ले जाने की विनती की । उन्होंने दरबान को बताया कि श्रीकृष्ण उनके बाल-सखा और गुरु भाई है ।
जितने भी लोग वहां आस-पास खड़े थे सबने उस गरीब दीन हीन ब्राहमण को देखा जो खुद को श्रीकृष्ण का मित्र बता रहा था।
किसी प्रकार श्रीकृष्ण तक यह बात पहुंची कि उनका प्यारा बाल सखा सुदामा उनसे मिलने पहुंचा है और राजमहल के दरवाजे पर खड़ा है ।
श्रीकृष्ण उस समय अपनी रानियों के साथ बैठे आराम कर रहेथे जैसे ही यह समाचार उन तक पहुंचा वे जिस अवस्था में थे उसी तरह दौड़ पड़े। न सिर पर मुकुट न तन को ढ़का और न पैरों में खडऊ ही डालें ।
श्रीकृष्ण भागे-भागे दरवाजे पर आएं कि कहीं उनका सखा उनसे बिना मिले ही न लौट जाएं । जिसने भी द्वारिकाधीश को इस प्रकार देखा ,उसे अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। परंतु वे स्वयं श्रीकृष्ण ही थे जो इस तरह अपने मित्र का स्वागत करने दौड़े चले आए।
सुदामा ठीक उस समय द्वार पर से लौटना ही चाहते थे कि उनके मित्र ने उन्हें आकर रोक लिया और बड़े इज्जत के साथ उन्हें राजमहल ले गए ।
अंदर जाकर सुदामा जी तो संकोच से ओर सिकुड़े जा रहे थे परंतु श्रीकृष्ण ने उनके स्वागत सत्कार में कोई कमी न की ।
सभी राजसी ठाट-बाट के साथ उनका महल में प्रवेश कराया और खुद सुदामा के पैर धोकर पाँव के काँटे निकालने लगे जो उन्हें मार्ग में चुभे थे ।
अपने सखा की यह हालत देख वे खूब रोएं और सुदामा को बार -बार गले से लगाया । सुदामा जी भी अपने मित्र को इस प्रकार देखकर रोएं ।
इस तरह दोनों मित्रों का फिर से मिलन हुआ और दोनों ने अपने -अपने सुख-दुख बांटे ।
सुदामा कुछ दिनों तक श्रीकृष्ण के साथ उनके राजमहल में ही रहे तत्पश्चात उनसे विदा ली । जाते समय तो उन्होंने सुदामा जी को कुछ नहीं दिया परंतु उनकी सारी दरिद्रता दूर कर दी ।
के राजा बने परंतु सुदामा एक दरिद्र ब्रह्ममण के रूप में अपना
जीवन यापन करते रहे । नियमानुसार पाँच घरों में भिक्षा मांगने जाते और जो कुछ भी मिलता उसी में संतोष कर लेते ।
उनके दिन घोर दरिद्रता में बीत रहे थे । कभी-कभी तो ऐसा होता कि कई-कई दिनों तक उपवास में ही रहना पड़ता था ।
सुदामा और उनकी पत्नी को अपने उपवास की चिंता न थी परंतु वे अपने बच्चों को भूख से बिलबिलाते देखते तो उनका
ह्रदय दुख से फटने लगता परंतु वे कर भी क्या सकते थे ।
एक बार सुदामा जी की पत्नी ने उनसे प्रार्थना की कि वे अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास जाए । वे जरूर हमारी मदद करेंगे ।
पत्नी के बहुत मनाने पर सुदामा जी जाने के लिए तैयार हुए।
श्रीकृष्ण को कुछ भेंट देने के लिए वे अपने पड़ोसी के घर गई और एक मुट्ठी भर चावल उधार मांग लाई । उन थोड़े से
चावल को भुनकर एक पोटली में बांधी और पति को विदा कर दिया ।
रास्ते में हजारों कष्टों को झेलते हुए सुदामा जी द्वारकापुरी पहुंचे। न पाँव में जूते ना खाने को एक दाना और न ही तन ढकने लायक वस्त्र ही पहने हुए थे ।
जैसे ही वे परम वैभवशाली नगरी द्वारकापुरी पहुंचे, उन्हें अपनी दीन-दशा पर शर्म आने लगी। एक से एक सोने के भवन और आते-जाते लोगों का ऐश्वर्य देखकर वे संकोच से
एक ओर खड़े हो गए और नगर की भव्यता को देखने लगे ।
सुदामा जी मन ही मन सोच रहे थे कि जिस राजा की नगरी और प्रजा इतनी समृद्ध और वैभवशाली है वह राजा कितना प्रतापी होगा? जिसकी नगरी के सारे घर भवन जैसे है उसका
राजमहल कितना बड़ा होगा । क्या इतना बड़ा और धनवान राजा मुझ जैसे गरीब ब्राहमण को अपना मित्र मानेगा?
लक्ष्मी स्वंय जिसकी पटरानी हो और कई सुंदर रानियों से श्रीकृष्ण घिरे होंगे । उनके सामने मुझे अपना मित्र बताते हुए उन्हें लज्जित होना पडेगा ।
यह सब सोचकर सुदामा जी ने निश्चय किया कि वे यहां से ही वापस लौट जाएं पंरतु फिर उन्हें भूख से बिलखते अपने बच्चों तथा अपनी पत्नी की याद आई और वे श्रीकृष्ण के राजमहल
की ओर बढने लगे । जब वे राजमहल के दरवाजे तक पहुंचे और राजमहल देखा तो बस देखते ही रह गए । ऐसा लग रहा था मानो स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल हो ।
सुदामा ने एक दरबान को बुलाया और उससे महल के अंदर ले जाने की विनती की । उन्होंने दरबान को बताया कि श्रीकृष्ण उनके बाल-सखा और गुरु भाई है ।
जितने भी लोग वहां आस-पास खड़े थे सबने उस गरीब दीन हीन ब्राहमण को देखा जो खुद को श्रीकृष्ण का मित्र बता रहा था।
किसी प्रकार श्रीकृष्ण तक यह बात पहुंची कि उनका प्यारा बाल सखा सुदामा उनसे मिलने पहुंचा है और राजमहल के दरवाजे पर खड़ा है ।
श्रीकृष्ण उस समय अपनी रानियों के साथ बैठे आराम कर रहेथे जैसे ही यह समाचार उन तक पहुंचा वे जिस अवस्था में थे उसी तरह दौड़ पड़े। न सिर पर मुकुट न तन को ढ़का और न पैरों में खडऊ ही डालें ।
श्रीकृष्ण भागे-भागे दरवाजे पर आएं कि कहीं उनका सखा उनसे बिना मिले ही न लौट जाएं । जिसने भी द्वारिकाधीश को इस प्रकार देखा ,उसे अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। परंतु वे स्वयं श्रीकृष्ण ही थे जो इस तरह अपने मित्र का स्वागत करने दौड़े चले आए।
सुदामा ठीक उस समय द्वार पर से लौटना ही चाहते थे कि उनके मित्र ने उन्हें आकर रोक लिया और बड़े इज्जत के साथ उन्हें राजमहल ले गए ।
अंदर जाकर सुदामा जी तो संकोच से ओर सिकुड़े जा रहे थे परंतु श्रीकृष्ण ने उनके स्वागत सत्कार में कोई कमी न की ।
सभी राजसी ठाट-बाट के साथ उनका महल में प्रवेश कराया और खुद सुदामा के पैर धोकर पाँव के काँटे निकालने लगे जो उन्हें मार्ग में चुभे थे ।
अपने सखा की यह हालत देख वे खूब रोएं और सुदामा को बार -बार गले से लगाया । सुदामा जी भी अपने मित्र को इस प्रकार देखकर रोएं ।
इस तरह दोनों मित्रों का फिर से मिलन हुआ और दोनों ने अपने -अपने सुख-दुख बांटे ।
सुदामा कुछ दिनों तक श्रीकृष्ण के साथ उनके राजमहल में ही रहे तत्पश्चात उनसे विदा ली । जाते समय तो उन्होंने सुदामा जी को कुछ नहीं दिया परंतु उनकी सारी दरिद्रता दूर कर दी ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें