चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग -1
326ईसा पूर्व में सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। किसी राजा मे इतना सामर्थ्य न था कि वह अकेला सिकंदर की सेना को टक्कर दे सकें । भारत के सभी छोटे राज्यों के राजा आपस में शत्रुता का भाव रखते थे। सभी अपनी-अपनी सीमाएं बढ़ाना चाहते थे किसी में एकता की भावना न थी और न कोई संपूर्ण भारत को ही अपना देश समझता था ।
जब सिकंदर ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया तो तक्षशिला का राजा आम्भिक डर गया और बिना युद्ध किए ही सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली और उसकी हर प्रकार से सहायता करने लगा। उस समय तक्षशिला विद्या और कला की नगरी हुआ करती थी । तक्षशिला विश्वविद्यालय में दूर -दूर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आया करते थे। विश्वविद्यालय में एक से एक शिक्षक थे जिनमें से एक महान शिक्षक और व्यक्तित्व का नाम था 'आचार्य चाणक्य ' । चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के शिक्षक और विचारक थे । उन्हें तक्षशिला नरेश आम्भिक का इस प्रकार बिना युद्ध लड़े किसी विदेशी आक्रमणकर्ता की अधीनता स्वीकार कर लेना अच्छा नहीं लगा । उन्होंने आम्भिक को ऐसा करने से मना किया परंतु असफल रहेे।
चाणक्य जानते थे कि सिकंदर को अकेले हराना बहुत मुश्किल है और इसलिए वे भारत के सभी छोटे राज्यों में घूम-घूम कर वहां के राजाओं को आने वाले खतरे के लिए आगाह करते हुए सभी को एकजुट होकर सिकंदर से सामना करने के लिए तैयार करते परंतु किसी राजा ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया । सभी अपने अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे थे ।
उस समय चाणक्य को आखिरी सहारा 'मगध ' नजर आया ।
मगध महाजनपद उस समय सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हुआ करता था जिसके पास बहुत बडी सेना थी । चाणक्य की जन्मभूमि भी मगध ही थी फलस्वरूप वे मगध के राजा घनानंद के पास पहुंचे।
चाणक्य घनानंद के दरबार में पहुंचे और दरबान से कहा कि उन्हें राजा से राज्य के सुरक्षा के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातचीत करनी है परंतु उसने उन्हें अंदर जाने नहीं दिया क्योंकि उस समय घनानंद अपने विलास में डूबा हुआ था और किसी को भी अंदर जाने की सख्त मनाही थी ।
परंतु चाणक्य दरबान की बात को अनदेखा कर देते है और जबरदस्ती अंदर चले जाते हैं। वहां उस समय संगीत की महफ़िल लगी हुई थी और घनानंद मदिरा (शराब) के नशे में पागलों की भांति नाच रहा था।
चाणक्य ने घनानंद को सिकंदर के आने वाले खतरे के बारे में बताया लेकिन घनानंद ने आचार्य की बहुत बेइज्जती की ओर उन्हें धक्के मारकर भरी सभा से निकाल दिया ।
उस समय आचार्य चाणक्य ने अपनी शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की कि जब तक वे संपूर्ण नंद वंश का सर्वनाश न कर दे और उसकी जगह एक योग्य व्यक्ति को मगध के सिंहासन पर न बैठा दे ,वे अपनी शिखा न बांधेगे । और इस प्रकार उनकी अखंड प्रतिज्ञा तब पूरी हुई जब उन्होंने मगध की राजगद्दी पर 'चन्द्रगुप्त मौर्य ' को बिठाया और अपने अखंड भारत के सपने को पूूर्ण किया।
आचार्य चाणक्य वे पहले व्यक्ति थे हमारे इतिहास में जिन्होंने पहली बार संपूर्ण भारत को एक देश के रूप में देखा और उसे एक सूत्र में पिरोया भी। उससे पहले तो यह देश महाजनपदो मे बंटा हुआ था । न कोई खुद को भारतीय समझता था और न किसी मे एकता की भावना ही थी ।
पसंद आया तो पोस्ट शेयर करें :-
जरूर देखें :-
० चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग-2
० चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग-3
Recent post :-
• औरंगजेब और जैनाबाई
• जब अलाउद्दीन खिलजी की बेटी को प्यार हुआ एक राजपूत राजकुमार से
• मुमताज और शाहजहाँ की अमर प्रेम कहानी
• बेहद दर्दनाक थी मुमताज की मौत
• एक रात के लिए जी उठे महाभारत युद्ध में मृत योद्धा
जब सिकंदर ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया तो तक्षशिला का राजा आम्भिक डर गया और बिना युद्ध किए ही सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली और उसकी हर प्रकार से सहायता करने लगा। उस समय तक्षशिला विद्या और कला की नगरी हुआ करती थी । तक्षशिला विश्वविद्यालय में दूर -दूर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आया करते थे। विश्वविद्यालय में एक से एक शिक्षक थे जिनमें से एक महान शिक्षक और व्यक्तित्व का नाम था 'आचार्य चाणक्य ' । चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के शिक्षक और विचारक थे । उन्हें तक्षशिला नरेश आम्भिक का इस प्रकार बिना युद्ध लड़े किसी विदेशी आक्रमणकर्ता की अधीनता स्वीकार कर लेना अच्छा नहीं लगा । उन्होंने आम्भिक को ऐसा करने से मना किया परंतु असफल रहेे।
चाणक्य जानते थे कि सिकंदर को अकेले हराना बहुत मुश्किल है और इसलिए वे भारत के सभी छोटे राज्यों में घूम-घूम कर वहां के राजाओं को आने वाले खतरे के लिए आगाह करते हुए सभी को एकजुट होकर सिकंदर से सामना करने के लिए तैयार करते परंतु किसी राजा ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया । सभी अपने अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे थे ।
उस समय चाणक्य को आखिरी सहारा 'मगध ' नजर आया ।
मगध महाजनपद उस समय सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हुआ करता था जिसके पास बहुत बडी सेना थी । चाणक्य की जन्मभूमि भी मगध ही थी फलस्वरूप वे मगध के राजा घनानंद के पास पहुंचे।
चाणक्य घनानंद के दरबार में पहुंचे और दरबान से कहा कि उन्हें राजा से राज्य के सुरक्षा के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातचीत करनी है परंतु उसने उन्हें अंदर जाने नहीं दिया क्योंकि उस समय घनानंद अपने विलास में डूबा हुआ था और किसी को भी अंदर जाने की सख्त मनाही थी ।
परंतु चाणक्य दरबान की बात को अनदेखा कर देते है और जबरदस्ती अंदर चले जाते हैं। वहां उस समय संगीत की महफ़िल लगी हुई थी और घनानंद मदिरा (शराब) के नशे में पागलों की भांति नाच रहा था।
चाणक्य ने घनानंद को सिकंदर के आने वाले खतरे के बारे में बताया लेकिन घनानंद ने आचार्य की बहुत बेइज्जती की ओर उन्हें धक्के मारकर भरी सभा से निकाल दिया ।
उस समय आचार्य चाणक्य ने अपनी शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की कि जब तक वे संपूर्ण नंद वंश का सर्वनाश न कर दे और उसकी जगह एक योग्य व्यक्ति को मगध के सिंहासन पर न बैठा दे ,वे अपनी शिखा न बांधेगे । और इस प्रकार उनकी अखंड प्रतिज्ञा तब पूरी हुई जब उन्होंने मगध की राजगद्दी पर 'चन्द्रगुप्त मौर्य ' को बिठाया और अपने अखंड भारत के सपने को पूूर्ण किया।
आचार्य चाणक्य वे पहले व्यक्ति थे हमारे इतिहास में जिन्होंने पहली बार संपूर्ण भारत को एक देश के रूप में देखा और उसे एक सूत्र में पिरोया भी। उससे पहले तो यह देश महाजनपदो मे बंटा हुआ था । न कोई खुद को भारतीय समझता था और न किसी मे एकता की भावना ही थी ।
पसंद आया तो पोस्ट शेयर करें :-
जरूर देखें :-
० चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग-2
० चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग-3
Recent post :-
• औरंगजेब और जैनाबाई
• जब अलाउद्दीन खिलजी की बेटी को प्यार हुआ एक राजपूत राजकुमार से
• मुमताज और शाहजहाँ की अमर प्रेम कहानी
• बेहद दर्दनाक थी मुमताज की मौत
• एक रात के लिए जी उठे महाभारत युद्ध में मृत योद्धा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें