तारा रानी की कहानी / Tara Rani ki kahani
Tara Rani ki kahani |
राजा स्पर्श माता भगवती के पुजारी थे, दिन रात माता की पूजा और ध्यान करते रहते थे । माता ने भी उन्हें राजपाट , धन-दौलत , ऐशो-आराम के सभी साधन दिया था परंतु फिर भी एक कमी थी । राजा को कोई संतान न थी । यही दुख उन्हें हमेशा सताता रहता था । वे माता से हरदम प्रार्थना करते कि मां मुझे आपने सब कुछ दिया है बस एक संतान दे दे तो मेरा जीवन पूर्ण हो जाएगा । मेरे वंश को आगे बढ़ाने वाला एक पुत्र मुझे दे दो ।
एक दिन माता भगवती ने उनकी प्रार्थना सुन ली और उन्हें सपने में आकर दर्शन दिया । उन्होंने कहा वत्स मै तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ और तुझे यह वरदान देती हूँ कि जल्दी ही तुम्हारे घर में दो कन्याएं जन्म लेंगी । कुछ समय पश्चात राजा के घर में एक कन्या का जन्म हुआ । राजा ने अपने दरबारियों , पंडितो एवं ज्योतिषियों को बुलाया और बच्ची की जन्म कुंडली तैयार करने का आदेश दिया ।
पंडित तथा ज्योतिषियों ने कन्या की कुंडली तैयार की और तत्पश्चात सभी ने आकर राजा को बताया कि राजन् यह कन्या तो साक्षात देवी है । यह कन्या जहां भी कदम रखेगी वहां खुशियाँ ही खुशियाँ होंगी । यह कन्या भी माता भगवती की पुजारी होगी । राजा ने अपनी कन्या का नाम तारा रखा ।
थोड़े समय पश्चात माता रानी के वरदान स्वरुप एक और कन्या का जन्म हुआ । ज्योतिषियों ने इस कन्या की कुंडली बनाई तो वे उदास हो गए और राजा से कहा कि यह कन्या आपके लिए शुभ नहीं है । राजा ने पंडितों और ज्योतिषियों से पूछा कि मैंने कौन से बुरे कर्म किया था जो इस कन्या ने मेरे घर में जन्म लिया ।
ज्योतिषियों ने अपनी विद्या से यह पता लगाया और राजा को बताया कि यह दोनों कन्याएं जिन्होंने आपके घर में जन्म लिया है , वे पिछले जन्म में राजा इन्द्र की अप्सराएँ थी । दोनों को एक बार पृथ्वीलोक देखने की इच्छा हुई , कि लोग वहां कैसे रहते हैं । वे दोनों एकादशी के दिन पृथ्वी लोक पर आई और तारा ने निश्चय किया कि आज वे एकादशी का व्रत करेंगी । उसने अपनी छोटी बहन रूक्मन को बाजार से फल लाने के लिए भेजा । बाजार में रूक्मन को मछली के पकौड़ा दिखा । उसका मन ललच गया और उसने खरीदकर खा लिया । तारा के लिए वह फल लेते आई । जब तारा ने देखा कि रूक्मन बस उसके हिस्से का फल लेकर आई है तो उसने पूछा । रूक्मन ने सारी बात सच सच बता दी । तारा ने उसके ऐसे कृत्य को देखकर उसे श्राप दिया कि जा नीच तुने एकादशी के दिन मांस खाया है । छिपकलि बनकर तू सारी जीवन कीड़े-मकोड़े ही खाते रहना ।
उसी जगह गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ रहते थे । उनका एक शिष्य बड़ा ही चालाक और घमंडी था । एक दिन उनका वह घमंडी शिष्य अपने कमंडल में जल रखकर , एकान्त में तप करने के लिए चला गया । वह अपनी तपस्या में लीन था तभी वहां एक प्यासी कपिला गाय वहां आ पहुंची और कमंडल में मुंह डालकर सारा जल पी गई । खाली कमंडल के गिरने से आवाज़ हुई तब जाकर उस सन्यासी की समाधि टूटी । उसने देखा कि गाय ने सारा पानी पी लिया था । सन्यासी ने गुस्से में आकर उस गाय को बुरी तरह से पीटा जिससे वह लहू-लुहान हो गई । यह खबर जब गुरु गोरख को मिली तो उन्होंने उस शिष्य को बहुत भला-बुरा कहा और अपने आश्रम से निकाल दिया । कुछ समय पश्चात उन्होंने गाय पर हुए अत्याचार के लिए एक यज्ञ करवाया । जब यज्ञ का पता उस शिष्य को चला जिसने गाय को पीटा था , उसने सोचा कि अपने अपमान का बदला लेने का यह समय सही है । उसने एक पक्षी का रूप धरा और अपनी चोंच में सर्प को लेकर यज्ञ के भंडारे के भोजन में डाल दिया । इस बात का पता किसी को नहीं चला परंतु तारा की बहन रूक्मन जो श्राप के कारण छिपकली बनकर उसी जगह थी , ने सर्प का इस प्रकार भंडारे में गिरना देख लिया । उसे उस समय दया और परोपकार की भावना उत्पन्न हो गई । वह भंडारे के होने तक चुपचाप वहां दिवार में चिपकी सही समय की प्रतीक्षा करने लगीं । कई लोगों के प्राणों की रक्षा के लिये उसने अपने प्राण न्योछावर करने का निश्चय कर लिया । जैसे ही भंडारे की खीर सभी को दी जाने लगी वह उस कडाही में गिर पड़ी जिसमें सर्प गिरा था । पहले तो लोग छिपकली को भला-बुरा कहने लगे पर जब उन्होंने कडाही को खाली किया और उसमें से मरा सर्प निकला तो वहां उपस्थित सभी लोगों ने छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे इस योनि से मुक्ति मिले और सबसे श्रेष्ठ मनुष्य रूप में उसका जन्म हो ।
उसी छिपकली ने राजा स्पर्श की छोटी कन्या के रूप में जन्म लिया । ज्योतिषियों ने राजा से कहा कि यह कन्या आपके लिए बहुत हानिकारक हैं अतः इसे मार दे । राजा स्पर्श ने उसे मरवाने से मना कर दिया और तत्पश्चात सबकी सहमति से उस कन्या को संदूक में भरकर नदी मे प्रवाहित कर दिया गया । जिस भंगी को वह कन्या मिली उसके कोई संतान न थी अतः उसने उसका लालन-पालन बड़े अच्छे से किया । कन्या का नाम रूक्को रखा गया और जब वह बड़ी हुई तो उसका विवाह कर दिया गया ।
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वही राजा की पहली कन्या तारा का विवाह अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के साथ हुआ था । रूक्को की सास राजा हरिश्चंद्र के महल में साफ सफाई का काम करती थी । एक दिन वह बीमार हो गई तो रूक्को उसकी जगह काम पर गई ।
महाराज हरिश्चंद्र की पत्नी तारा ने जब रूक्को को देखा तो वह अपने पूर्व कर्मो के फल से उसे पहचान गई । तारा ने जब उसे अपनी बहन कहा तो रूक्को ने कहा कि वह नीच जाति की है वह उसकी बहन कैसे हो सकती हैं । तारा ने रूक्को को पूर्व जन्म की सारी बात बताई और कहा कि जो हुआ उसे भूल जाओ और अपने इस जन्म को संवारो । माता वैष्णो देवी सारे मनोरथ पूरे करने वाली है । रूक्को बहुत खुश हुई और तारा से उपाय पूछा । तारा ने बताया कि जो लोग श्रद्धापूर्वक माता वैष्णो देवी की पूजा व जागरण करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है ।
रूक्को ने मन्नत मांगी कि अगर उसे पुत्र होगा तो वह माता रानी का जगराता कराएगी । माता रानी ने उसपर कृपा कि और उसे पुत्र की प्राप्ति हुई परंतु वह भूल गई कि उसे जागरण करवाना है । जब उसका पुत्र पांच साल का हुआ तो उसे माता (चेचक ) आ गई । दुखी होकर रूक्को अपनी बहन तारा के पास गई और सब कुछ कहा । तारा ने कहा कि जरूर तुमसे कोई गलती हुई है तब रूक्को को छः साल पुरानी बात याद आ गई और उसने अपनी गलती मानी । उसने कहा कि वह कल ही माता का जगराता कराएगी फलस्वरूप उसका पुत्र तुरंत ठीक हो गया ।
रूक्को मंदिर के पुजारी को जागरण करने के लिए कहने को गई परंतु पुजारी ने नीच जाति के घर पर जागरण करने से मना कर दिया । तब रूक्को ने कहा कि माता रानी के सामने कोई बड़ा छोटा नहीं है , वह सब पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखती है । तब पुजारी ने कहा कि अगर महारानी तारा तुम्हारे घर जगराते पर पधारे तो हम जरूर आएंगे ।
रूक्को ने यह बात जाकर तारा को बतलाई तो उन्होंने जगराते मे आने के लिए सहर्ष स्वीकार कर लिया । जब रूक्को यह बात पुजारियों को बताने गई तो वहां एक सेन नामक नाई था जिसने महारानी तारा के नीच जाति की रूक्को के घर जाने के बारे में सुन लिया और यह बात जाकर राजा हरिश्चंद्र को बता दी ।
राजा हरिश्चंद्र को सेन नाई की बात पर विश्वास नहीं हुआ । महारानी भंगियो के घर नहीं जा सकती है , फिर भी उन्होंने परीक्षा लेने के लिए अपनी ऊँगली में चीरा लगा लिया ताकि उन्हें नींद न आए । रानी तारा ने जब देखा कि जगराते का समय हो रहा है और महाराज नहीं सो रहे तो रानी ने माता वैष्णो देवी से प्रार्थना कि हे माता किसी तरह से राजा को सुला दे ताकि मैं जगराते में सम्मिलित हो सकूँ । कुछ देर बाद राजा को नीद आ गई और महारानी चलीं गई । राजा की नींद खुली तो वे भी महारानी के पीछे गए और वहीं एक कोने में जाकर बैठ गए जहां जगराता हो रहा था ।
जब जागरण समाप्त हुआ तो सबने माता रानी की जयजय कार की तत्पश्चात प्रसाद बांटा गया । रानी को जब प्रसाद मिला तो उन्होंने अपनी झोली में रख लिया । यदि देख सबने पूछा कि आपने प्रसाद क्यों नहीं खाया अगर आप नहीं खाएगी तो कोई नहीं खाएगा ।
रानी ने कहा जो प्रसाद मुझे आपने दिया वह मैंने महाराज के लिए रख दिया अब मुझे मेरा प्रसाद दे । रानी ने वह प्रसाद खा लिया । तत्पश्चात रानी तारा महल के लिए आगे बढी तो महाराज हरिश्चंद्र ने उनका रास्ता रोक लिया और कहा तुने मेरे कुल की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दिया और नीचे जाति के घर का प्रसाद खाकर अपना धर्म भ्रष्ट कर लिया और अब मेरा धर्म भ्रष्ट करना चाहती है । ऐसा कहते हुए जब राजा ने रानी की झोली में देखा तो भगवती की कृपा से उसमें चंपा , गुलाब , गेंदे के फूल , कच्चे चावल और सुपारीयां दिखाई दी , यह देख राजा को बहुत आश्चर्य हुआ । राजा हरिश्चंद्र रानी तारा को लेकर महल लौट आए ।
रानी ने ज्वाला मईया की कृपा से बिना किसी साधन के आग प्रज्वलित करके दिखाया जिससे राजा का आश्चर्य और बढ़ गया । रानी तारा राजा हरिश्चंद्र से बोली - देवी के साक्षात दर्शन के लिए बहुत बड़ा त्याग करना पडेगा । देवी दर्शन की अभिलाषा से राजा ने अपने पुत्र की बलि दे दी । ऐसी सच्ची श्रद्धा और भक्ति देख माता रानी सिंह पर सवार होकर प्रकट हो गई । राजा उनके दर्शन पाकर कृतार्थ हो गए , उनका मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया । माता की महिमा देख हरिश्चंद्र अति प्रसन्न हुए और माता से क्षमा याचना कर उनकी वंदना की ।
रानी ने ज्वाला मईया की कृपा से बिना किसी साधन के आग प्रज्वलित करके दिखाया जिससे राजा का आश्चर्य और बढ़ गया । रानी तारा राजा हरिश्चंद्र से बोली - देवी के साक्षात दर्शन के लिए बहुत बड़ा त्याग करना पडेगा । देवी दर्शन की अभिलाषा से राजा ने अपने पुत्र की बलि दे दी । ऐसी सच्ची श्रद्धा और भक्ति देख माता रानी सिंह पर सवार होकर प्रकट हो गई । राजा उनके दर्शन पाकर कृतार्थ हो गए , उनका मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया । माता की महिमा देख हरिश्चंद्र अति प्रसन्न हुए और माता से क्षमा याचना कर उनकी वंदना की ।
देवी के अंतर्धान होने के बाद राजा हरिश्चंद्र ने रानी तारा से कहा कि - मैं तुम्हारे आचरण से बहुत प्रसन्न हूँ । तुम्हारी भक्ति अद्भुत है । तुम जैसी पत्नी पाकर मैं धन्य हो गया ।
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