जैन धर्म में अक्षय तृतीया का महत्व
Rishavnath (ऋषभदेव) |
जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ हुए जिन्हेे
ऋषभनाथ कहा जाता है । उन्हें जन्म से ही संपूर्ण शास्त्रों
का ज्ञान था और समस्त कलाओं के ज्ञाता थे । युवा होने पर
उनका विवाह नंदा और सुनंदा से हुआ । नंदा से भरत का
जन्म हुआ जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने और उन्हीं के
नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (ऐसा जैन धर्मावलंबीयो का मानना है ) । आदिनाथ के सौ पुत्र और दो
पुत्रियां हुई । ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य
किया और फिर अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटकर खुद
दिगम्बर तपस्वी बन गए । उनके साथ सैकड़ो लोगों ने उनका
अनुसरण किया ।
जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन
रहते हैं । अतः आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा ।
इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे
जहां श्रेयांश ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया । अतः उस दिन
अक्षय तृतीया के शुभ दिन ही भगवान ऋषभनाथ ने एक वर्ष
के निराहार के बाद इक्षु ( शोरडी-गन्ने) रस से पारण किया था ।
इस कारण जैन धर्मावलंबीयों की मान्यता है कि गन्ने के रस
को इक्षु रस भी कहते हैं और इस कारण से यह दिन इक्षु
तृतीया अथवा अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया ।
इस प्रकार एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या करने के पश्चात
ऋषभनाथ को कैवल्य ( भूत , भविष्य और वर्तमान) ज्ञान
की प्राप्ति हुई थी । पूर्णता प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपना
मौन व्रत तोड़ा और हज़ारो वर्षों तक धर्म-विहार किया और
लोगों को जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त होने का उपाय बताया ।
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