कृष्ण बलराम और सुभद्रा की जगन्नाथ धाम में मूर्ति
पुरी के जगन्नाथ धाम मंदिर में भगवान कृष्ण बलराम और सुभद्रा की जैसी छवि विराजमान हैं उसके पीछे एक बहुत ही सुन्दर कथा है । भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम थे और सुभद्रा उनकी छोटी बहन थी। कहते हैं भगवान कृष्ण की लीला को तो देवताओं के लिए भी समझना मुश्किल था तो हम तो साधारण मनुष्य है।
एक बार अपने शयनकक्ष में केशव रात में सोते हुए नींद में राधे राधे नाम जपने लगे । जब रूक्मिणी जी ने सुना तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। यह बात उन्होंने अन्य रानियों तथा माता रोहिणी को बताई तथा उनसे गोपियों के साथ हुई रासलीला के बारे में बताने की इच्छा जताई।
माता रोहिणी ने पहले तो बात टालनी चाही परंतु रुक्मिणी जी के हठ करने पर बताने के लिए तैयार हो गई। उससे पहले उन्होंने कहा कि यह एक रहस्यमय लीला है तो सबसे पहले सुभद्रा को बाहर पहरे पर बिठा दो ताकि कोई और यह कथा न सुन सके । उसी समय भगवान माधव और भैया बलराम वहां आ पहुंचे। सुभद्रा ने उन्हें उचित कारण बता कर वहां दरवाजे पर रोक लिया परन्तु कमरे के बाहर भी कृष्ण और गोपियों की रहस्यमई रासलीला की कथा सुनाई दे रही थी।
कथा सुनने से माधव, बलराम भैया और सुभद्रा भाव विभोर हो गए और उनकी अवस्था अद्भुत हो गई । ऐसी अवस्था जैसे ठीक से देखने पर भी किसी के हाथ पैर सही से दिख ही नहीं रहा हो । माना जाता है कि उसी समय अचानक से वहां पर देवर्षि नारदजी का आगमन हुआ और उन्होंने प्रभु के साथ बलराम भैया और सुभद्रा को उस अवस्था में सर्वप्रथम देखा तो भाव विभोर हो गए। उन्होंने माधव से प्राथना की कि " हे प्रभु ! आप तीनों के जिस अद्भुत महाभाव में लीन मूर्तिस्थ को देखकर मैं धन्य हो गया कृपया सामान्य जनों के दर्शन के लिए उस अवस्था में मूर्तिस्थ विराजमान हो। " भगवान कृष्ण ने नारदजी की बात पर तथास्तु कह दिया।
माना जाता है कि भगवान कृष्ण बलराम और सुभद्रा जी के जिस अद्भुत महाभाव रूप को नारदजी ने दर्शन किया था वहीं छवि आज भी पुरी के जगन्नाथ धाम मंदिर में विराजमान हैं जिसे स्वयं विश्वकर्मा जी ने बनाया था।
मूर्ति निर्माण की कथा इस प्रकार है कि उड़ीसा के राजा इन्द्रयुम्न को सपने में यह आदेश मिला कि वे भगवान की मूर्ति का निर्माण कार्य शुरू करें । अगले दिन उन्हें समुद्र में तैरता हुआ एक लड़की का लठ्ठा मिला जिससे उन्हें काष्ठ प्रतिमा कि निर्माण कराना था। उसी समय देवशिल्पी विश्वकर्मा वहां पर एक बूढ़े शिल्पी के रूप में आते हैं और राजा के सामने यह शर्त रखते हैं कि जिस कमरे में वह मूर्ति का निर्माण करेंगे उसका दरवाजा बंद रहेगा । अगर ग़लती से भी दरवाजा खुला तो वह काम छोड़कर चले जाएंगे। राजा प्रतिदिन दरवाजे के बाहर मूर्ति बनने की आवाज सुनाई देती थी जिस दिन उन्हें अंदर से कोई आवाज नहीं सुनी तो दरवाजा खोला तो बूढ़ा शिल्पी वहां नहीं था। जैसे कि विश्वकर्मा ने कहा था और भगवान कृष्ण बलराम और सुभद्रा की मूर्ति अधूरी रह गई। राजा बहुत दुखी हुए उसी समय आकाशवाणी हुई कि प्रभु इसी रूप में विराजमान होना चाहते हैं।
प्रभु की इच्छानुसार आज भी वह उसी अधूरी स्वरूप की पूजा की जाती है।
मान्यता के अनुसार जब श्री कृष्ण भगवान की मृत्यु हुई उसके पहले ही उनके संपूर्ण कुल का सर्वनाश हो गया था और जिससे वे बहुत दुखी थे, जिस कारण से पांडवों ने उनका दाह संस्कार किया। कहते हैं कि उनका दिल जलता ही रहा तो उन्होंने जल में प्रवाहित कर दिया तब उनका दिल एक लठ्ठे के रूप में परिवर्तित हो जाता है और यह लठ्ठा राजा इन्द्रयुम्न को मिलता है और वे इसे भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर स्थापित कर देते हैं।
मंदिर की मूर्ति हर बारह वर्ष में बदल दी जाती है लेकिन उनका हृदय स्वरुप यह लठ्ठा अपरिवर्तित रहता है। जब यह परिवर्तन किया जाता है तो मंदिर के पुजारी की आंखों में पट्टी बांध दी जाती है।
जय जगन्नाथ।।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें