राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 23 / Vikramaditya stories in hindi

 सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ



तेईसवीं पुतली धर्मवती ने अपनी कहानी सुनाई -

जब राजा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा तो उसने अपने दीवान से कहा कि तुमसे काम नहीं होगा । अच्छा होगा कि मेरे लिए बीस दूसरे आदमी दे दो । दीवान ने ऐसा ही किया । वे लोग काम करने लगे । दीवान सोचने लगा कि अब वह क्या करे कि राजा उससे खुश हो जाए । संयोग की बात है उस दिन उसे नदी में एक बहुत ही सुन्दर फूल बहता हुआ मिला , जिसे उसने राजा को भेट दिया । राजा बहुत खुश हुआ और कहा - इस फूल का पेड़ लाकर मुझे दो , नहीं तो मैं तुम्हें देश-निकाला दे दूंगा । दीवान बड़ा दुखी हुआ और एक नाव पर कुछ सामान लेकर जिधर से फूल बहकर आया था उधर चल दिया । 


चलते-चलते वह एक पहाड़ के पास पहुंचा , जहां से नदी में पानी आ रहा था।  वह नाव से उतरकर पहाड़ पर गया।  वहां उसने देखा कि शेर , हाथी , दहाड़ रहे हैं । वह आगे बढ़ा । ठीक वैसा ही एक फूल बहता हुआ दिखाई दिया । उसे आशा बंधी । आगे जाने पर उसे एक महल दिखाई दिया। वहां पेड़ में एक तपस्वी जंजीर से बंधा उलटा लटक रहा था और उसके घाव से जो लहू की बूँदें नीचे पानी में गिर रही थी , वे ही फूल बन जाती थी । बीस ओर योगी वहां बैठे थे जिनका शरीर सूख कर काँटा हो गया था । 


दीवान ने बहुत से फूल इकठ्ठे किए और अपने नगर जाकर राजा को सब हाल कह सुनाया । 


सुनकर राजा विक्रमादित्य ने कहा - तुमने जो तपस्वी लटकता हुआ देखा वह मेरा ही शरीर है।  पूर्वजन्म में मैंने ऐसे ही तपस्या की थी।  बीस ओर योगी जो वहां बैठे थे वे तुम्हारे ही दिए बीस आदमी है । 


इतना बताकर राजा विक्रमादित्य ने कहा - तुम चिंता मत करो । जब तक मैं राजा रहूंगा , तुम दीवान रहोगे । अपना परिचय देने के लिए मैंने यह सब किया । अपने बड़े भाई को मैंने मारा तो इसमें मेरा दोष नहीं था । जो कर्म में लिखा रहता है वह होकर ही रहता है । 


पुतली बोली - राजा भोज अगर तुम ऐसे हो तो ही इस सिंहासन पर बैठने के योग्य हो । 





अगले दिन चौबीसवीं पुतली ने अपनी कहानी सुनाई ।



चौबीसवीं पुतली की कहानी अगले पोस्ट में पढें -

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