राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 20 / Stories of Raja Vikramaditya 20
सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ
बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने कहना आरंभ किया -
एक बार कार्तिक के महीने में राजा विक्रमादित्य ने भजन-कीर्तन कराया । राजा की खबर मिलते ही दूर-दूर से राजा और योगी आए। जब राजा सबको प्रसाद देने लगा तो उसने देखा कि सभी देवता तो है परंतु चन्द्रमा नही। राजा ने वीरों को बुलाया और उनकी मदद से चन्द्रलोक पहुंचे।
वहां जाकर चन्द्रमा से कहा - हे देव ! मेरा क्या अपराध है , जो आपने आने की कृपा नही की। आपके बिना काम अधूरा रहेगा ।
चन्द्रमा ने हंस कर कहा - तुम उदास न हो । मेरे जाने से जग में अंधेरा हो जाएगा । इसलिए मेरा जाना ठीक नहीं । तुम जाओ और अपना काम पूरा करो ।
इतना कहकर चन्द्रमा ने उन्हें अमृत देकर विदा किया। रास्ते में राजा ने देखा कि यम के दूत एक ब्राह्मण के प्राण लिए जा रहे है । राजा ने उनको रोका और पूछा । तब पता चला कि वे उज्जयिनी नगरी के एक ब्राह्मण के प्राण लिए जा रहे।
राजा ने कहा - पहले हमें उस ब्राह्मण को दिखा दो फिर ले जाना ।
वे सब उज्जयिनी आए । राजा ने देखा कि वह तो उसी का पुरोहित है । राजा ने यम के दूतों को बात में लगाकर मुर्दे के मुंह मे अमृत डाल दिया । वह जी उठा । यम के दूत निराश होकर चले गए ।
पुतली कहानी सुनाकर बोली - हे राजन्! तुम इतना पुरुषार्थ कर सको तो सिंहासन पर बैठों ।
राजा ने कीर्तन कराया ।
राजा भोज मन मारकर रह गया । अगले दिन फिर से जब वह सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ा तो इक्कीसवीं पुतली ने रोक लिया और अपनी कहानी सुनाने लगी ।
इक्कीसवीं पुतली की कहानी अगले पोस्ट में पढें-
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