राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 21 / Vikramaditya stories in hindi 21
सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ
इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति की कहानी -
किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । वह बड़ा गुणी था । एक बार वह घूमते-घूमते कामानगरी पहुंचा । वहां कामसेन नाम का राजा राज्य करता था । उसके कामकंदला नाम की एक नर्तकी थी । जिस दिन ब्राह्मण वहां पहुंचा , कामकंदला का नाच हो रहा था । मृदंग की आवाज आ रही थी । आवाज़ सुनकर ब्राह्मण ने कहा कि राज की सभा के लोग कितने मूर्ख है , जो गुण पर विचार नही करते । पूछने पर पता चला कि जो मृदंग बजा रहा है , उसके हाथ में अंगूठा नहीं है । राजा ने सुना तो मृदंग बजाने वाले बुलाया और देखा कि उसका एक अंगूठा मोम का है । राजा ने ब्राह्मण को बहुत सारा धन दिया और अपनी सभा में बुला लिया । नृत्य चल रहा था । इतने में ब्राह्मण ने देखा कि एक भौंरा आया और कामकंदला को काट कर उड़ गया , लेकिन उस नर्तकी ने किसी को पता भी चलने न दिया । ब्राह्मण ने खुश होकर अपना सब कुछ उसे दे डाला । राजा को बहुत गुस्सा आया कि उसकी दी हुई चीज उसने क्यों दी और उसे देश निकाला दे दिया । कामकंदला चुपचाप उसके पीछे गई और उसे छिपाकर अपने घर ले आई । लेकिन दोनों डरकर वहां रहते थे ।
एक दिन ब्राह्मण ने कहा - अगर राजा को मालूम हो गया तो हम मुसीबत में पड़ सकते हैं । इसलिए मैं कहीं ओर ठिकाना करके तुम्हें यहां से ले जाऊंगा ।
इतना कहकर ब्राह्मण उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के पास गया और उससे सब हाल कह सुनाया । राजा ब्राह्मण को लेकर अपनी सेना सहित कामानगरी की ओर बढ़ा । दस कोस इधर ही डेरा डाला । इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने वैद्य का वेश धारण किया और कामकंदला के पास गया । ब्राह्मण की याद में वह बड़ी बैचैन हो गई थी ।
राजा ने कहा - ऐसे ही हमारे यहां एक माधव नाम का एक ब्राह्मण था , विरह के दुख में मर गया । इतना सुनकर कामकंदला ने आह भरी और उसके प्राण निकल गए । राजा ने लौटकर यह खबर जब ब्राह्मण को सुनाई तो उसकी भी जान चली गई । राजा को बड़ा दुख हुआ और वह चंदन की चिता बनाकर खुद जलने के लिए तैयार हो गया । इसी बीच राजा के दो वीर आए और कहा - महाराज ! आप दुखी न हो । हम अभी अमृत लाकर ब्राह्मण और कामकंदला को जिंदा कर देंगे ।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने कामानगरी के राजा से युद्ध किया और उसे हरा दिया । कामकंदला उसे मिल गई और उसने बड़े धूम-धाम से ब्राह्मण का विवाह उसके साथ कर दिया ।
इक्कीसवीं पुतली बोली - हे राजन्! अगर तुममें इतना साहस है तो सिंहासन पर बैठों । राजा भोज चुप रह गया ।
अगले दिन उसे बाईसवीं पुतली ने अपनी कहानी सुनाई ।
बाईसवीं पुतली की कहानी अगले पोस्ट में पढें -
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