राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 18 / Stories of Raja Vikramaditya 18
सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ
अठारहवीं पुतली तारावती ने अपनी कहानी सुनाई -
एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में दो सन्यासी झगड़ते हुए आए । एक कहता था कि सब कुछ मन के वश में है । दूसरा कहता था कि सब कुछ ज्ञान है । ज्ञान से ही सब संभव है ।
राजा ने कहा - अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा ।
इसके बाद कई दिनों तक राजा विचार करता रहा । आखिर एक दिन उसने संन्यासीयों को बुलाकर कहा - महाराज ! यह शरीर मिट्टी , आग , हवा और पानी से बना है । मन इसका सरदार है । अगर यह मन के हिसाब से चले तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाए । इसलिए मन पर अंकुश होना जरूरी है । जो ज्ञानी लोग होते हैं उनकी काया अमर होती है । सो हे सन्यासीयों मन के साथ ज्ञान का होना भी जरुरी है ।
इस उत्तर से दोनों सन्यासी बहुत खुश हुए । उसमें से एक ने राजा को खगड़िया का एक ढेला दिया और कहा - राजन् । इस खगड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे , रात को वह सब शक्ले तुम्हें प्रत्यक्ष अपनी आखों से दिखाई देंगी ।
इतना कहकर दोनों सन्यासी चले गए । उनके जाने पर राजा ने अपने महल की सफाई कराई और फिर किवाड़ बन्द कर उसने कृष्ण , सरस्वती आदि की तस्वीरें बनाई। रात होने पर वे सब उसे साफ दिखने लगे। वे आपस में जो बात करते थे वह राजा विक्रमादित्य को भी सुनाई देता था । सवेरे सब गायब हो जाते और दीवार पर बस चित्र बने रह जाते ।
अगले दिन राजा ने घोड़े , हाथी , पालकी , रथ , फौज आदि बनाया। रात को यह सब दिखाई दिए । इसी तरह तीसरे दिन मृदंग , सितार , बीन , बांसुरी , करताल आदि के साथ बजाने वाले भी बना दिया । रात भर वह गाना सुनता रहा ।
राजा रोज कुछ न कुछ बनाता और उसका तमाशा देखता । इस तरह कई दिन निकल गया । उधर जब राजा महल में रानियों के पास नहीं गए तो उन्हें चिंता हुई । पहले उन्होंने आपस में सलाह की फिर चार रानियां मिलकर राजा के पास आई । राजा ने उन्हें सारी बातें बता दी । रानियों ने कहा हमें बड़ा दुख है । हम महल में आप ही के सहारे है ।
राजा विक्रमादित्य ने कहा - मुझे बताओ , मैं क्या करू ? जो मांगो सो दूंगा ।
रानियों ने वह खगड़िया सी मांग ली । राजा ने बड़े आनंद से उन्हें दे दी ।
पुतली ने कहा - राजा भोज ! देखों कैसी बढ़िया चीज राजा विक्रमादित्य के हाथ लगी थी परंतु मांगने पर तुरंत दे दी । तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठों ।
आज का दिन भी निकल गया और राजा भोज सिंहासन पर न बैठ सका। अगले दिन फिर से उन्हें उन्नीसवीं पुतली ने रोक लिया ।
उन्नीसवीं पुतली की कहानी अगले पोस्ट में पढें -
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