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उर्वशी पुरूरवा

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              एक बार नारद मुनि राजा पुरूरवा के रूप , गुण , बुद्धि और युद्धकौशल की प्रशंसा देवराज इंद्र से कर रहे थे । स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा उर्वशी उस समय वही मौजूद थी और देवर्षि नारद से राजा पुरूरवा का बखान सुन रहीं थीं । उर्वशी ने मृत्युलोक के राजा की इतनी प्रशंसा सुनी तो वह उन्हें देखने के लिए लालायित हो गई । बिना कुछ सोचे वह मृत्युलोक पहुंच गई और जब उसने पुरूरवा को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गई दूसरी ओर राजा पुरूरवा भी उर्वशी के रूप सौंदर्य को देखते ही उसपर मर मिटे । उन्होंने तत्काल ही उर्वशी के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । उर्वशी को पुरूरवा का विवाह प्रस्ताव मंजूर था परंतु उसने राजा के सामने दो शर्तें रख दी । पुरूरवा उस समय उर्वशी के लिए इतने पागल हुए कि बिना सुने उन्होंने दोनों शर्तें मान भी लिया । उर्वशी की पहली शर्त थी कि वे उसके दो भेड़ो की रक्षा करेंगे क्योंकि वह उन भेड़ो को अपने पुत्र समान समझतीं है । उसकी दूसरी शर्त यह थी कि वे एक दूसरे को नग्न अवस्था में अपने यौन संबंधो के समय ही देखेंगे । अगर पुरूरवा ने एक भी वचन तोड़ा तो वह

शंकुतला और दुष्यंत की प्रेम कथा

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                          एक बार कि बात है , हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गए । जिस वन मे वे आखेट के लिए गए थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था । ऋषिवर के दर्शन के लिए राजा दुष्यंत उनके आश्रम पहुंचे । पुकारने पर एक अति सुन्दर युवती कुटिया से निकल कर आती हैं और राजा से कहतीं हैं 'हे राजन्! ऋषिवर तो तीर्थ यात्रा पर निकले हैं । आपका ऋषि कण्व के आश्रम में स्वागत है ।' उस युवती को देखकर राजा दुष्यंत बोले - 'हे देवि ! आप कौन है ? मेरे विचार से तो यह आजन्म ब्रहमचारी कण्व ऋषि का आश्रम लगता है ।' युवती ने कहा - 'मेरा नाम शंकुतला हैं और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ ' दुष्यंत उस युवती की बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोले 'देवी ऋषिवर तो आजन्म ब्रहमचारी है , फिर आप उनकी पुत्री कैसे हो सकतीं हैं ?'  इसपर शंकुतला ने कहा - ' वास्तव मे मेरे माता-पिता ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका है । मेरे जन्म होने के पश्चात मेरी माता ने मुझे वन में छोड़ दिया जहां पर शकुंन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की । ऋषि कण्व की दृष्टि मुझपर पड़

श्रीकृष्ण ने तोड़ा रानी सत्यभामा का अहंकार

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                    भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ अपनेे सिंहासन पर विराजमान थे । निकट ही गरूड़ जी और सुदर्शन चक्र भी बैठे थे । तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था । बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा कि - 'हे प्रभु ! त्रेता युग में आपने श्रीराम के रूप में जन्म लिया था सीता आपकी पत्नी थी । क्या वह मुझसे भी ज्यादा सुंदर थी? द्वारिकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का घमंड हो गया है । तभी गरूड़ जी ने कहा कि भगवन क्या मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है ? इधर सुदर्शन चक्र से भी न रहा गया और तो बोले -'भगवन ! मैंने आपकों बड़े-बड़े युद्धों में विजयश्री दिलवायी है । क्या मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? श्रीकृष्ण मन-ही-मन मुस्कुरा रहे थे । वे समझ गए कि इन तीनों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट करने का समय आ गया है । ऐसा सोचकर भगवान श्रीकृष्ण ने गरूड़ से कहा कि - 'हे गरूड़ ! तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि भगवान राम माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।' द्वारिकाधीश भगवान

भोलेनाथ के वाहन नंदी की कथा

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                  भगवान भोलेनाथ की घोर तपस्या के बाद शिलाद ऋषि ने नंदी को अपने पुत्र केे रूप में पाया । शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र को संपूर्ण वेदों का ज्ञान दिया । एक बार कि बात है , ऋषि शिलाद के आश्रम में मित्र और वरूण नाम के दो दिव्य ऋषि पधारें ।  नंदी ने अपने पिता की आज्ञानुसार उनकी बड़ी सेवा की । जब वे जाने लगे तो उन्होंने ऋषि शिलाद को तो लंबी आयु और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया परंतु नंदी को नहीं । यह देखकर शिलाद ऋषि ने उन दिव्य ऋषियों से पूछा कि आपने मुझे आशीर्वाद दिया परंतु मेरे पुत्र को क्यों नहीं तो उन दिव्य ऋषियों ने कहा कि नंदी अल्पायु है । यह सुनकर शिलाद ऋषि चिंतित हो गए । तब नंदी ने अपने पिता से कहा कि आप मेरी चिंता क्यों करते हैं मेरा जन्म तो महादेव की कृपा से हुआ है और वही मेरी रक्षा आगे भी करेंगे । इतना अपने पिता से कहकर नंदी भुवन नदी के किनारे भगवान भोलेनाथ की तपस्या करने के लिए चले गए । कठोर तप के बाद भोलेनाथ प्रकट हुए और कहा वरदान मांगो वत्स! तब नंदी ने कहा कि प्रभु मै हमेशा आपके सानिध्य में रहना चाहता हूँ । नंदी की अनन्य भक्ति

देवयानी और राजा ययाति का विवाह

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 एक बार कि बात है , दैत्यगुरू शुक्रराचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखी और दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के साथ उद्यान घूूूमने निकली । घूमते हुए वे सब उद्यान के सरोवर में  अपने-अपने वस्त्र उतारकर स्नान करने लगी । सुंदरता के मामले में देेवयानी की सुंदरता अलौकिक थी दूसरी ओर राजकुमारी शर्मिष्ठा भी अति सुंदर थी ।  जब वे सब सुुंदरियां स्नान कर रही थी ठीक उसी समय भगवान शिव और पार्वती माता उस जगह से गुजर रहे थे । भगवान शंंकर को देेेखकर   सभी युवतियां लज्जावश दौडकर अपने वस्त्र धारण करने लगी । शीघ्ररता में शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र धारण कर लिया जिससे देवयानी अत्यधिक क्रोधित हुई  और गुस्से में शर्मिष्ठा को बुरा-भला कहने लगी । देेवयानी ने इसे अपना अपमान समझा । देवयानी के अपशब्द सुनकर शर्मिष्ठा भी अपमान से तिलमिला उठी और उसके वस्त्रों को छीनकर उसे एक कुएं में ढकेल दिया और वहां से चली गई । उसी समय राजा ययाति उस जगह आखेेेट करते हुए पहुंचे और पानी की खोज में कुएं तक पहुंच गए । कुुुुएं मेंं उन्होंने देवयानी के सुंदर मुख को देख तो देखते ही रह गए । ययाति ने देवयानी को कुएं से बाहर निकाला ।

कच और देवयानी

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बात उस समय की है जब देवताओं और दानवों में त्रिलोक विजय के लिए युद्ध हो रहा था । देवताओं के गुरु बृहस्पति थे तथा दानवों के गुरु शुक्रराचार्य थे । दोनों गुरूओं का आपस में बहुत होड़ था। दैत्य गुरू शुक्रराचार्य संजीवनी विद्या के जानकार थे । वे मरे हुए दैत्यों को अपनी विद्या से दोबारा जीवित कर देते थे जिससे बल और बुद्धि में श्रेष्ठ देवताओं में बहुत आतंक था । देवताओं के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा । सेवा, श्रद्धा और भक्ति से ही दैत्य गुरू शुक्रराचार्य को प्रसन्न किया जा सकता था अतः बृहस्पति ने अपने रूपवान और ब्रहमचारी पुत्र कच को को गुरु शुक्रराचार्य के पास भेजा । कच शुक्रराचार्य के आश्रम में रहकर गुरु की सेवा करने लगे । दूसरी ओर कच की मित्रता गुरु शुक्रराचार्य की पुत्री देवयानी से हुई ।  देेवयानी अत्यंत सुन्दर और बुद्धिमान युवती थी । दोनों को एक दूसरे का साथ बहुत पसन्द था । देवयानी मन-ही-मन में कच से प्रेम करने लगी थी ।  शुक्रराचार्य भी अपने परम शिष्य की सेवा और भक्ति से गदगद हो गये थे । Kacha and devyani उधर जब यह बात दैत्यों को पता चला कि देवताओं ने कच को सं

रुक्मिणी हरण तथा श्रीकृष्ण रुक्मिणी विवाह

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विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री देवी रुक्मिणी माता लक्ष्मी का अवतार थीं और उनका विवाह श्रीकृष्ण सेे निश्चित था । रुक्मिणी भी श्रीकृष्ण की प्रशंसा सुनकर उनसे प्रेम करने लगी तथा माता जगदंबा के सामने उन्होंने मन में कृष्ण को ही अपना पति मान लिया था ।                                राजा भीष्मक के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी । ज्येष्ठ पुत्र का नाम रूक्मि था जिसे ब्रह्मा जी से ब्रह्मास्त्र प्राप्त था । रुक्मिणी की माता पिता तथा चारों भाई चाहते थे कि उसका विवाह कृष्ण के साथ हो क्योंकि वे जानते थे और रुक्मिणी मन ही मन कृष्ण से प्रेम करती है इसलिए उसने अपने लिए आयोजित स्वयंवर में आने से मना कर दिया था परंतु रूक्मि कृष्ण को अपना शत्रु मानता था और इसलिए रुक्मिणी का विवाह अपने परम मित्र शिशुपाल के साथ करने का निर्णय ले चुका था । राजा भीष्मक तथा अन्य चारों रूक्मि की शक्ति से डरते थे अतः वे उसका विरोध न कर सके । परिणामस्वरूप भीष्मक ने शिशुपाल के पास अपनी पुत्री के विवाह के लिए निमंत्रण भेज दिया अतः वह बारात लेकर विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर के पास पहुंचा । बारात क्या शिशुपाल, जरासंध, पौण्ड्रक ,

शिव और सती की कथा

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ब्रह्मा जी के मानस पुत्र प्रजापति दक्ष  की पुत्री के रूप में देवी आदि शक्ति  ने माता सती के रूप मेंं जन्म लिया । स्वंयभू मनुु की पुत्री प्रसूति के गर्भ से सोलह कन्याओं का जन्म हुआ था जिनमें से एक सती थी । उस समय शिव और शक्ति अलग-अलग थे इसलिए ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र दक्ष से शक्ति की उपासना करने के लिए कहा ताकि माता उनकी पुत्री के रूप में जन्म ले सके और उन दोनों का मिलन हो सके । प्रजापति दक्ष की सभी कन्याएं एक से एक गुणवती थी। पहली कन्या स्वाहा का विवाह अग्नि देव दूसरी कन्या स्वधा का विवाह पितृगण के साथ माता सती का विवाह शिवजी के साथ तथा शेष तेरह कन्याओं का विवाह धर्म के साथ हुआ । समयानुसार जब देवी सती विवाह योग्य हुई तो दक्ष ने अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपनी पुत्री का विवाह शिवजी के साथ कर दिया । देवी अपने पति के साथ कैलाश में खुशी-खुशी रहने लगी । एक बार जब ब्रह्मा जी ने देवलोक में एक सभा का आयोजन किया था तो सभी देवता वहां मौजूद थे। स्वयं शिव भी उस सभा में पधारे हुए थे। जब प्रजापति दक्ष वहां पहुंचे तो सभी देवता उनके स्वागत में खड़े हो गए परंतु शिव जी ब्रह्मा जी के साथ

नल और दमयंती की कथा

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प्राचीन समय में नल नामक राजा निषद देश में राज्य करते थे। नल बहुत ही सुंदर , वीर और प्रतापी राजा थे । मगर उन्हें जुआ खेलने की बुरी लत थी ।                                        उन्हीं दिनों विदर्भ (पूर्वी महाराष्ट्र) में भी एक बड़े प्रतापी राजा हुआ करते थे जिनका नाम भीमक था । राजा भीमक ने ऋषि दमन को प्रसन्न करके चार संतानें प्राप्त की थी । तीन पुत्र और एक पुत्री । पुत्री का नाम दमयंती था जो लक्ष्मी के समान सुंदर और गुणवती थी । दमयंती के रूप की चर्चा दूर-दूर तक थी । राजा नल ने भी दमयंती के बारे मे सुना और उससे प्रेम करने लगे। एक बार वे जब अपने बगीचे में घूम रहे थे तो वहां उन्होंने कुछ हंसो को देखा और उनमें से एक को पकड़ लिया । हंस ने राजा से कहा कि आप मुझे छोड़ दीजिए तो हम सभी दमयंती के पास जाकर आपकी ऐसी प्रंशसा करेंगे कि वह आपसे विवाह कर लेगी । नल ने हंस को छोड़ दिया और वे सभी उडकर विदर्भ देश की ओर चले।  वहां वे सभी दमयंती के बगीचे में गए । दमयंती ने हंसो को देखा तो वह बहुत खुश हुई और उन्हें पकड़ने का प्रयास करने लगी ।                                       दमयंती जिस भी हंस क

सावित्री और सत्यवान

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प्राचीन समय में दक्षिण कश्मीर  में मद्रदेश नामक एक राज्य था । वहां के राजा का नाम अश्वपति था।  राजा की एकमात्र पुुत्री का नाम सावित्री  था । वह बहुत सुुुन्दर और सुशील कन्या थी । जब सावित्री विवाह के योग्य हुुुई तो राजा को उसके लिए योग्य वर की चिन्ता हुुई और उन्होंनेे वर की तलाश शुरू  कर दिया। बहुत ढूूँढने पर भी कोई वर राजा को अपनी पुत्री  के लिए पंसद नहीं आया तब उन्होंने सावित्री से खुद कोई वर चुुन लेने के लिए कहा । एक बार सावित्री राजर्षियों के तपोवन से गुजर रही थी , तभी वहां उसने एक युवक को देखा जो घोड़ो के बच्चे के साथ खेल रहा था । उसके सिर पर जटा और शरीर में छाल के वस्त्र तथा मुख पर अद्भुत तेज था । जब रथ वहां ठहरा तो वह युवक सावित्री का परिचय पूछने गया और परिचय पाकर राजकुमारी का अपने आश्रम में स्वागत किया तत्पश्चात अपना नाम सत्यवान तथा अपनेे पिता का नाम धुुमंतसेन   बताया जो पूर्व में सालवा देश के राजा थे । अपना राज्य और आखों की ज्योति खो देने के पश्चात इसी तपोवन में तपस्या कर रहे हैं । अगले दिन सावित्री वहां से अपने राजमहल लौटी और अपने पिता को सत्यवान के बारे में बताया । उ

क्यों मनाया जाता है धनतेरस का त्योहार

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                                                                                 कार्तिक मास की कृृष्ण त्रियोदशी के दिन हिन्दुु धर्म में धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है । ऐसा माना जाता है कि इसी दिन भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे । धन्वंतरि को भगवान विष्णु का ही अंंशावतार माना जाता है । संसार में चिकित्सा विज्ञान और आयुर्वेद के प्रसार के लिए ही भगवान ने धन्वंतरि का अवतार लिया था।  इस दिन धन्वंतरि के प्रकट होने के उपलक्ष्य में धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है । हिन्दु पौराणिक कथाओं के अनुसार देवताओं ने असुरों के साथ मिलकर अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया था। मंथन की प्रक्रिया के दौरान ओर भी रत्नों की प्राप्ति हुई थी जो बहुमूल्य थी । सबसे अंत मे अमृत निकला था जिसे असुरों ने देवताओं से छीन लिया था। समुद्र मंथन से ही धन और संपन्नता की देवी लक्ष्मी निकली है। धनतेरस में किसी भी धातु से बनी वस्तु को खरीदने का रिवाज है।  इसके अलावा लक्ष्मीजी और गणेश जी की मूर्ति को भी लोग इस दिन बड़ी श्रद्धा से खरीदते हैं। कहा जाता है कि इस दिन धातु की बनी वस्तुएं खरीदना बहुत

ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी

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स्वयंभू मनु  के पुत्र राजा उत्तानपाद की दो पत्नियां सुनीति और सुरुचि थी। सुनीति से ध्रुव  और सुरुचि से उत्तम नाम के दो पुत्र थे । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी परंतु राजा को अत्यधिक प्रेम अपनी छोटी रानी सुरुचि से था । एक बार बालक ध्रुव अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठा हुआ था तभी रानी सुरुचि वहां आई । जब उसने अपनी सौतन के पुत्र को अपने पति की गोद में बैठा हुआ देखा तो वह डाह से जलने लगी और क्रोध में आकर पांच वर्ष के बालक ध्रुव को पिता की गोद से हटा कर अपने पुत्र उत्तम को बैठा दिया और बोली राजा की गोद और सिंहासन पर बैठने का हक सिर्फ मेरे पुत्र को हैं ।                बालक ध्रुव को अपनी विमाता के इस व्यवहार से बहुत ज्यादा दुख हुआ और वह दौड़ा-दौड़ा अपनी माता सुनीति के पास पहुंचा और सारी बातें बताई । तब माता सुनीति ने कहा - ''पुत्र ! अगर स्थान ही पाना है तो सबसे श्रेष्ठ स्थान पाने की कोशिश करो । भगवान विष्णु की शरण में जाओ उन्हें अपना सहारा बनाओ । बालक ध्रुव के मन में अपनी माता की बातों का गहरा असर पड़ा और वह पांच वर्ष का बालक उसी समय घर छोड़कर चल पड़ा । रास्ते में उसे नारद मु

सृष्टि रचना

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सभी जानते हैं कि, ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की है परंतु जब पहलेे-पहल उन्होंने सृृष्टि रची तो उसमें विकास था ही नहीं । न किसी का जन्म और न ही किसी की मृत्यु होती थी । पहले ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि रचना का संकल्प लिया तो उनके मन से मरीचि , नेत्रों से अत्रि ,मुख से सरस्वती, कान से पुलस्तय, नाभि से पुलह , हाथ से कृतु , त्वचा से भृगु , प्राण से वशिष्ठ , अंगूठे से दक्ष, तथा गोद से नारद उत्पन्न हुए । इसी प्रकार उनके दाएँ स्तन से धर्म , पीठ से अधर्म, ह्रदय से काम, दोनो भौंहों से क्रोध, तथा  नीचे के ओंठ से लोभ उत्पन्न हुए । इस तरह यह संपूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुआ । एक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी अपनी मानस पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गए और उन्हें अपनी पत्नी बना लिया जिससे मनु का जन्म हुआ। जब जल प्रलय हुआ और पृृथ्वी पर जीवन मृृत्यु का चक्र चलना शुरू हुआ  तो मनु पृथ्वी के प्रथम मानव बनेें । इसलिए मनु को आदिमानव भी कहा जाता है। मनु का विवाह शतरूपा से हुुुआ । दोनों के पांच संतानें हुई :- उत्तानपाद , प्रियव्रत , आकूति , देवहूती और   प्रसूति  । मनु की तीनों पुत्रि

शिव की उत्पत्ति

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विष्णु पुराण के अनुसार शिव की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा हुई थी। उस समय ब्रह्मा जी को एक बालक की आवश्यकता थी तो उन्होंने इसके लिए तपस्या की । तब अचानक ब्रह्मा जी के गोद में एक रोता हुआ बालक प्रकट हुआ । उन्होंने उस बालक से रोने का कारण पूछा तो बालक ने बड़ी मासूमियत के साथ जवाब दिया कि उसका कोई नाम नहीं है इसलिए वह रो रहा है। तब ब्रह्मा जी ने उसका नाम रूद्र रखा परंतु फिर भी बालक चुुुप न हुआ तब ब्रह्मा जी ने बालक को चुुुप कराने के लिए आठ नाम दिए - रूद्र, शर्व,भाव,उग्र ,भीम ,पशुपति ,ईशान और  महादेव । इस कथा में एकमात्र शिव के बाल रूप का वर्णन हैै । शिव के इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जन्म लेने के पीछे भी विष्णु पुराण में एक कथा है जिसके अनुसार जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति नहीं हुई थी और चारों ओर सिर्फ़ जल ही जल और घना अंधेरा था उस समय विष्णु जी शेषनाग पर लेटे हुए थे तभी उनकी नाभि से कमल में बैठे ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए । ब्रह्मा और विष्णु जी जब सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बातें कर रहे थे तो शिव जी प्रकट हुए । ब्रह्मा जी ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया तब शिव जी के क्रो

आदिकवि वाल्मीकि

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बहुत पहले की बात है,एक बार देवर्षि नारद मुनि किसी जंगल से गुज़र रहे थे तभी उन्हें पीछे से किसी ने दबोचा । वे अचानक कुछ समझ नहीं सके और खुद को बचाने की कोशिश की । जब उन्होंने पकड़ने वाले व्यक्ति को देखा तो उन्हें एक खूंखार सा दिखने वाला आदमी खड़ा देखा। उस व्यक्ति ने नारद जी को एक पेड़ से बाँध दिया और कहा कि जो भी तुम्हारे पास है वह मुझे दे दो नहीं तो तुम्हें जान से मार दूंगा । नारदजी - हे वत्स! तुम कौन हो और मुझसे क्या मांग रहे हो? रत्नाकर (डाकू ) - मैं एक डाकू हूँ और इस जंगल से आने-जाने वाले व्यक्तियों को पकड़कर उनका धन लुटता हूँ । तुम्हारे पास भी जो है मुझे दे दो अन्यथा अच्छा नहीं होगा । नारदजी - क्या तुम जानते हो कि तुम जो कार्य कर रहे हो वह बहुत बड़ा पाप है ? रत्नाकर - मुझे नहीं पता कि मैं पाप कर रहा हूँ या पूण्य । बस मुझे इतना पता है कि इससे मेरी और मेरे परिवार की जरूरत पूरी हो रही है। नारदजी - अच्छा तो यह नीच कार्य जो तुम कर रहे हो अपने परिजनों के लिए जरा उनसे पूछो कि वे इस पाप में तुम्हारे भागीदार बनेंगे? क्या वे तुम्हारे पापों का बोझ लेने के लिए तैयार है  ? रत्न

कृष्ण और सुदामा मिलन

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महर्षि संदीपनी के गुरूकुल में भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की शुरुआत हुई। आगे चलकर श्रीकृष्ण द्वारकापुरी के राजा बने परंतु सुदामा एक दरिद्र ब्रह्ममण के रूप में अपना जीवन यापन करते रहे । नियमानुसार पाँच घरों में भिक्षा मांगने जाते और जो कुछ भी मिलता उसी में संतोष कर लेते । उनके दिन घोर दरिद्रता में बीत रहे थे । कभी-कभी तो ऐसा होता कि कई-कई दिनों तक उपवास में ही रहना पड़ता था । सुदामा और उनकी पत्नी को अपने उपवास की चिंता न थी परंतु वे अपने बच्चों को भूख से बिलबिलाते देखते तो उनका ह्रदय दुख से फटने लगता परंतु वे कर भी क्या सकते थे ।                            एक बार सुदामा जी की पत्नी ने उनसे प्रार्थना की कि वे अपने मित्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास जाए । वे जरूर हमारी मदद करेंगे । पत्नी के बहुत मनाने पर सुदामा जी जाने के लिए तैयार हुए। श्रीकृष्ण को कुछ भेंट देने के लिए वे अपने पड़ोसी के घर गई और एक मुट्ठी भर चावल उधार मांग लाई । उन थोड़े से चावल को भुनकर एक पोटली में बांधी और पति को विदा कर दिया । रास्ते में हजारों कष्टों को झेलते हुए सुदामा जी द्वारकापुर

कृष्ण और सुदामा मित्रता

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उज्जयिनी की पावन नगरी में शिप्रा नदी के किनारे ऋषि संदीपनी का आश्रम बड़ा ही मनमोहक था जहाँ वे अपने विद्यार्थीयों को वेद-शास्त्रों की शिक्षा दिया करते थे । श्रीकृष्ण और बलराम ऋषि संदीपनी के पास ही शिक्षा प्राप्त करने पहुंचे । यहां श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई । दोनो की मित्रता की सभी गुरूकुल में मिशाल दिया करते थे । एक बार कि बात है , कृष्ण और सुदामा हमेशा की तरह जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे तभी ऋषि संदीपनी की पत्नी और उनकी गुरूमाता ने एक पोटली में बांधकर कुछ भुने हुए चने सुदामा को दिए और कहा कि भूख लगने पर दोनों मिल-बाँटकर खा ले । सुदामा ने वह पोटली अपनी धोती से बाँध ली और दोनों मित्र जंगल की ओर चल पड़े । दोनों लकड़ी काटने घने जंगल में पहुंचे, तभी अचानक से तेज हवा चलने लगी और धीरे-धीरे मौसम भी खराब होता गया। जोरों की बारिश शुरू हो गई और अंधेरा भी होने लगा । अब दोनों मित्र सोचने लगे कि क्या करना चाहिए क्योंकि वे काफी दूर आ गए थे और वहां से गुरूकुल भी दूर था उपर से ये भयानक बारिश और अंधेरा। अब वे करे तो क्या  ? तब दोनों मित्रों ने फैसला किया कि आज की रात

भगवान रणछोड़ और कालयवन का वध

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कंस द्वारा बाल श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई निष्फल प्रयास किये गये । एक बार हार कर कंस ने अपने ससुर जरासंध की मदद ली । जरासंध ने भी कई षडयंत्र रचे लेकिन हर बार उसे भी असफलता ही हाथ लगी।  तब मगध नरेश जरासंध को अपने एक मित्र ' कालयवन' की याद आई । कालयवन यवन देश का राजा था । वह ऋषि शेशिरायण और स्वर्ग की अप्सरा रंभा का पुत्र था । एक बार ऋषि ने भगवान भोलेनाथ की तपस्या की थी और उनसे यह वरदान प्राप्त किया था कि उनका एक पुत्र हो जो अजेय हो सारे अस्त्र-शस्त्र उसके सामने निस्तेज हो जाए ।भगवान ने उसे यही वरदान प्रदान किया और कहा तुम्हारा पुत्र अजेय होगा कोई भी चन्द्रवंशी या सूर्यवंशी राजा उसे हरा नहीं सकता तथा किसी भी अस्त्र-शस्त्र से उसे मारा नहीं जा सकेगा । इस वरदान के फलस्वरूप ऋषि एक बार एक झरने के पास से गुज़र रहे थे तो उन्हें वहां एक अति सुन्दर युवती दिखाई पड़ी जो जल-क्रीड़ा (जलसेखेलना) कर रही थी । वह युवती ओर कोई नहीं बल्कि अप्सरा रंभा थी । दोनो ने एक दूसरे को देखा और मोहित हो गए और फिर उन्होंने विवाह कर लिया । समय के साथ उनका एक पुत्र हुआ जो कालयवन के

प्रथम पूज्य गणेश / Prathama pujya Ganesh

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एक बार की बात है, सभी देवताओं में इस बात पर विवाद हो गयी कि धरती पर सबसे पहले किसकी पूजा हो ? सबसे पहले भगवान विष्णु ने कहा कि-'मैं सृष्टि का पालन करता हूं और यह समस्त ब्रह्मांड मेरे बलबूते पर टिका हुआ है। मेरी इजाजत के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता इसलिए सबसे पहले मेरी पूजा होनी चाहिए।' तब ब्रह्मा जी ने कहा कि-'इस समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति मुझसे हुई है इसलिए सबसे पहले मेरी पूजा होने चाहिए।' जब इस बात पर विवाद बहुत ज्यादा बढ़ गया तो देव ऋषि नारद ने इस स्थिति को देखते हुए सभी देवताओं को 'भगवान भोलेनाथ' की शरण में जाने का सुझाव दिया और उनसे इस समस्या का निवारण करने को कहा। देवताओं को नारद जी की बात सही लगी और सभी देवता भोलेनाथ की शरण में पहुंचे। जब शिव जी ने सारी बात सुनी तो उन्होंने देवताओं के बीच इस झगड़े को सुलझाने के लिए एक योजना बनाई। उन्होंने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं को संपूर्ण ब्रह्मांड का एक चक्कर लगाना था और जो भी सबसे पहले चक्कर लगाकर वापस उनके पास लौटता है उसे ही प्रथम पूज्यनीय माना जाएगा।     सभी देवता खुश होकर अप

मूर्खता

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प्राचीन काल में सुन्द और उपसुन्द नाम के दो बलशाली दैत्य हुए हैं। एक बार उनके मन में तीनों लोकों का एक छत्र सम्राट बनने का विचार आया। इसकी प्राप्ति के लिए उनको एक उपाय सूझा। उन्होंने सोचा कि भगवान आशुतोष को प्रसन्न किया जाना चाहिए क्योंकि समस्त देवों में भगवान शंकर ही ऐसे देव हैं जो जल्दी ही प्रसन्न होकर अपने भक्त की मनोकामना पूरी कर देते हैं। यह सोचकर उन्होंने भगवान शंकर की आराधना आरंभ कर दी। बहुत समय तक जब वे शिव शंकर की आराधना करते रहे तो देवाधिदेव महादेव उन पर प्रसन्न हुए और प्रकट होकर उनसे कहा-'मांगों, क्या वर मांगते हो?' न जाने उस समय उन दोनों को क्या हुआ कि जो वर वह मांगना चाहते थे, वह तो न मांग सके अपितु उससे विपरीत उनके मुख से निकल गया कि हमें आपकी प्रियतमा पार्वती चाहिए। यह सुनकर शिव शंकर को क्रोध तो आया किन्तु वह देने का वचन दे चुके थे। अतः उन्होंने पार्वती उन्हें सौंप दी। पार्वती का अनुपम सौंदर्य देखकर दोनों उनके रूप पर मोहित हो गए और इस बात पर झगड़ा करने लगे कि पार्वती को अपने पास कौन रखे। दोनों ही उसे अपने पास रखना चाहते थे। तब उन दोनों ने निर्णय किया क