सावित्री और सत्यवान
प्राचीन समय में दक्षिण कश्मीर में मद्रदेश नामक एक राज्य था । वहां के राजा का नाम अश्वपति था। राजा की एकमात्र पुुत्री का नाम सावित्री था । वह बहुत सुुुन्दर और सुशील कन्या थी । जब सावित्री विवाह के योग्य हुुुई तो राजा को उसके लिए योग्य वर की चिन्ता हुुई और उन्होंनेे वर की तलाश शुरू कर दिया। बहुत ढूूँढने पर भी कोई वर राजा को अपनी पुत्री के लिए पंसद नहीं आया तब उन्होंने सावित्री से खुद कोई वर चुुन लेने के लिए कहा ।
एक बार सावित्री राजर्षियों के तपोवन से गुजर रही थी , तभी वहां उसने एक युवक को देखा जो घोड़ो के बच्चे के साथ खेल रहा था । उसके सिर पर जटा और शरीर में छाल के वस्त्र तथा मुख पर अद्भुत तेज था । जब रथ वहां ठहरा तो वह युवक सावित्री का परिचय पूछने गया और परिचय पाकर राजकुमारी का अपने आश्रम में स्वागत किया तत्पश्चात अपना नाम सत्यवान तथा अपनेे पिता का नाम धुुमंतसेन बताया जो पूर्व में सालवा देश के राजा थे । अपना राज्य और आखों की ज्योति खो देने के पश्चात इसी तपोवन में तपस्या कर रहे हैं ।
अगले दिन सावित्री वहां से अपने राजमहल लौटी और अपने पिता को सत्यवान के बारे में बताया । उसने बड़ी लज्जा और शालीनता से विवाह की अनुमति मांगी । राजा अश्वपति बड़े खुश हुए और ज्योतिषियों को अपनी पुत्री और सत्यवान का भविष्य देखने को कहा । ज्योतिषियों ने बताया कि सत्यवान की आयु तो मात्र एक वर्ष ही बची है अगर राजकुमारी ने उनसे शादी कर ली तो वह एक साल मे ही विधवा हो जाएगी ।
यह सुनकर राजा अश्वपति और उनकी पत्नी दोनों बहुत दुखी हुए और अपनी पुत्री से यह विवाह न करने के लिए कहा परंतु सावित्री ने कहा कि वह मन से सत्यवान को अपना पति मान चुकी है और अब उसी से विवाह करेगी चाहे जो हो । सावित्री के दृढ़ निश्चय के आगे किसी ने कुछ न कहा और इसके फलस्वरूप उसके पिता विवाह की बात करनें सत्यवान के पिता के पास पहुंचे । पहले तो सत्यवान के पिता ने इस विवाह से मना कर दिया क्योंकि सावित्री एक राजकुमारी थी और वे जंगल में निवास करने वाले साधारण से लोग थे । अंतिम में जब उन्होंने सावित्री के निश्चय के बारे में पता चला तो वे सहमत हुए फलस्वरूप उन दोनों का विवाह उसी तपोवन में संपन्न हुआ और राजकुमारी वही अपने पति और सास-ससुर के साथ रहने लगी ।
सावित्री बहुत ही गुणी थी और उस जंगल में भी रहकर वह बहुत संतुष्ट थी परंतु उसे हर समय अपने पति की चिंता होती थी । जब से उसका विवाह सत्यवान के साथ हुआ था उसी दिन से वह दिन गिन रही थी और जब सत्यवान के मरने की नियत तिथि आने वाली थी उसके तीन दिन पहले से ही उसने उपवास रखा। तीसरे दिन जब सत्यवान वन में लकड़ियां काटने जाने लगा तो सावित्री भी उसके साथ चलने लगी । उसे अपने पीछे आता हुआ देख सत्यवान ने कहा कि वह वन न जाए क्योंकि उसने तीन दिन से उपवास रखा है और वह बहुत कमजोर भी लग रही है परंतु सावित्री ने सत्यवान की बात न सुनी और उसके साथ चल पड़ी ।
जंगल में सत्यवान लकड़ियां काटने एक पेड़ पर चढ़ा परंतु कुछ ही देर में उसने अपनी पत्नी को कहा कि उसकी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही है। सावित्री ने सत्यवान से उतरने के लिए कहा और वह उतरा परंतु फिर भी उसे अच्छा नहीं लग रहा था तब सावित्री ने उसे अपनी गोद में सुलाया। वह बहुत घबराई हुई थी परंतु अपने पति से कुछ नहीं कहा । सत्यवान की तबियत ओर बिगड़ती जा रही थी । उसका पूरा शरीर निष्प्राण सा हो चुका था। कुछ समय पश्चात सावित्री को एक काली परछाई नजर आई और वह बहुत भयभीत हो गई । साहस करके उसने पूछा - "आप कौन हैं महाराज!" आवाज़ आई - "मैं यमराज हूँ और सत्यवान के प्राण लेने आया हूँ ।"
इतना कहकर यमराज सत्यवान के प्राण लिए और चल पड़े ।सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चली और सत्यवान का मृत शरीर वही पड़ा रहा । थोड़ी देर बाद जब यमराज ने पीछे मुडकर देखा तो उन्हें सावित्री भी आती दिखाई दी । यमराज ने कहा- " सावित्री ! तुम्हारी अभी उम्र बाकी है इसलिए तुम मेरे पीछे मत आओ ।" यमराज आगे बढ़ गए परंतु जब उन्होंने फिर से पीछे देखा तो सावित्री उनके पीछे चली आ रही थी तब उन्होंने फिर से उसे मना किया परंतु वह बोली - "महाराज ! मैं अपने पति को कैसे छोड़ के जा सकती हूँ ?"
"परंतु सत्यवान की अब मृत्यु हो चुकी है और मै उसे लेकर यमलोक जा रहा हूँ परंतु तुम्हारी आयु अभी शेष है और नियमानुसार जीवित मनुष्य को यमलोक नहीं ले जाया जा सकता इसलिए तुम लौट जाओ" यमराज ने कहा ।
सावित्री बोली -"महाराज ! आप कुछ भी कहे परंतु मैं अपने पति का साथ कदापि नहीं छोड़ सकती ।"
यमराज - "यह सृष्टि के नियमों के विरुद्ध है सावित्री ! अगर तुम चाहो तो कोई एक वरदान मांग लो मुझसे सत्यवान के प्राण के अलावा और चली जाओ यही से वापस ।"
सावित्री - "महाराज मेरे सास-ससुर के आखों की ज्योति और उनका खोया राज्य वापस मिल जाए "
यमराज ने कहा ऐसा ही होगा और आगे बढ़ गए परंतु उन्हें फिर भी लगा कि सावित्री उनका पीछा कर रही और वे मुड़े उन्होंने देखा कि सावित्री अब भी उनके पीछे चली आ रही थी । यमराज बोले -" पुत्री ! तुम क्यों प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कर रही हो? सत्यवान मर चुका है और इस सत्य को तुम्हें मान लेना चाहिए। चाहे तो मुझसे कोई ओर एक वरदान मांग लो ।"
सावित्री बोली मेरे पिता को संतान की प्राप्ति हो । यमराज ने तथास्तु कहा और आगे बढ़े परंतु सावित्री ने अब भी उनका पीछा न छोड़ा तब यमराज ने उसे एक ओर वरदान मांगने के लिए कहा। इस बार सावित्री ने पुत्रवती होने का वरदान मांगा । यमराज भी जल्दी से उससे पीछा छुड़ाना चाहते थे और इसलिए बिना सोचे समझे वरदान देकर चलने लगे तभी सावित्री बोली - "महाराज! आपने अभी मुझे पुत्रवती होने का वरदान प्रदान किया है और मेरे पति के प्राण हर के ले जा रहे हैं ? अगर ऐसा ही करना था तो मुझे वरदान ही क्यों दिया?"
अब जाकर यमराज का दिमाग चकराया और उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ परंतु अब वे बाध्य हो चुके थे। उस समय यमराज को अपना वचन पूरा करने के लिए सृष्टि के नियमों को तोड़ते हुए सत्यवान को जीवन देना पड़ा।
सावित्री जब वापस अपने पति के मृत शरीर के पास आई तो सत्यवान ऐसे जाग उठा जैसे गहरी नींद से जागा हो । सावित्री ने मन-ही-मन भगवान को प्रणाम किया । उधर यमराज भी मन में सावित्री के सतीत्व की प्रंशसा कर रहे थे ।
- महाभारत के वनपर्व में उल्लेखित कथा
एक बार सावित्री राजर्षियों के तपोवन से गुजर रही थी , तभी वहां उसने एक युवक को देखा जो घोड़ो के बच्चे के साथ खेल रहा था । उसके सिर पर जटा और शरीर में छाल के वस्त्र तथा मुख पर अद्भुत तेज था । जब रथ वहां ठहरा तो वह युवक सावित्री का परिचय पूछने गया और परिचय पाकर राजकुमारी का अपने आश्रम में स्वागत किया तत्पश्चात अपना नाम सत्यवान तथा अपनेे पिता का नाम धुुमंतसेन बताया जो पूर्व में सालवा देश के राजा थे । अपना राज्य और आखों की ज्योति खो देने के पश्चात इसी तपोवन में तपस्या कर रहे हैं ।
अगले दिन सावित्री वहां से अपने राजमहल लौटी और अपने पिता को सत्यवान के बारे में बताया । उसने बड़ी लज्जा और शालीनता से विवाह की अनुमति मांगी । राजा अश्वपति बड़े खुश हुए और ज्योतिषियों को अपनी पुत्री और सत्यवान का भविष्य देखने को कहा । ज्योतिषियों ने बताया कि सत्यवान की आयु तो मात्र एक वर्ष ही बची है अगर राजकुमारी ने उनसे शादी कर ली तो वह एक साल मे ही विधवा हो जाएगी ।
यह सुनकर राजा अश्वपति और उनकी पत्नी दोनों बहुत दुखी हुए और अपनी पुत्री से यह विवाह न करने के लिए कहा परंतु सावित्री ने कहा कि वह मन से सत्यवान को अपना पति मान चुकी है और अब उसी से विवाह करेगी चाहे जो हो । सावित्री के दृढ़ निश्चय के आगे किसी ने कुछ न कहा और इसके फलस्वरूप उसके पिता विवाह की बात करनें सत्यवान के पिता के पास पहुंचे । पहले तो सत्यवान के पिता ने इस विवाह से मना कर दिया क्योंकि सावित्री एक राजकुमारी थी और वे जंगल में निवास करने वाले साधारण से लोग थे । अंतिम में जब उन्होंने सावित्री के निश्चय के बारे में पता चला तो वे सहमत हुए फलस्वरूप उन दोनों का विवाह उसी तपोवन में संपन्न हुआ और राजकुमारी वही अपने पति और सास-ससुर के साथ रहने लगी ।
सावित्री बहुत ही गुणी थी और उस जंगल में भी रहकर वह बहुत संतुष्ट थी परंतु उसे हर समय अपने पति की चिंता होती थी । जब से उसका विवाह सत्यवान के साथ हुआ था उसी दिन से वह दिन गिन रही थी और जब सत्यवान के मरने की नियत तिथि आने वाली थी उसके तीन दिन पहले से ही उसने उपवास रखा। तीसरे दिन जब सत्यवान वन में लकड़ियां काटने जाने लगा तो सावित्री भी उसके साथ चलने लगी । उसे अपने पीछे आता हुआ देख सत्यवान ने कहा कि वह वन न जाए क्योंकि उसने तीन दिन से उपवास रखा है और वह बहुत कमजोर भी लग रही है परंतु सावित्री ने सत्यवान की बात न सुनी और उसके साथ चल पड़ी ।
जंगल में सत्यवान लकड़ियां काटने एक पेड़ पर चढ़ा परंतु कुछ ही देर में उसने अपनी पत्नी को कहा कि उसकी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही है। सावित्री ने सत्यवान से उतरने के लिए कहा और वह उतरा परंतु फिर भी उसे अच्छा नहीं लग रहा था तब सावित्री ने उसे अपनी गोद में सुलाया। वह बहुत घबराई हुई थी परंतु अपने पति से कुछ नहीं कहा । सत्यवान की तबियत ओर बिगड़ती जा रही थी । उसका पूरा शरीर निष्प्राण सा हो चुका था। कुछ समय पश्चात सावित्री को एक काली परछाई नजर आई और वह बहुत भयभीत हो गई । साहस करके उसने पूछा - "आप कौन हैं महाराज!" आवाज़ आई - "मैं यमराज हूँ और सत्यवान के प्राण लेने आया हूँ ।"
इतना कहकर यमराज सत्यवान के प्राण लिए और चल पड़े ।सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चली और सत्यवान का मृत शरीर वही पड़ा रहा । थोड़ी देर बाद जब यमराज ने पीछे मुडकर देखा तो उन्हें सावित्री भी आती दिखाई दी । यमराज ने कहा- " सावित्री ! तुम्हारी अभी उम्र बाकी है इसलिए तुम मेरे पीछे मत आओ ।" यमराज आगे बढ़ गए परंतु जब उन्होंने फिर से पीछे देखा तो सावित्री उनके पीछे चली आ रही थी तब उन्होंने फिर से उसे मना किया परंतु वह बोली - "महाराज ! मैं अपने पति को कैसे छोड़ के जा सकती हूँ ?"
"परंतु सत्यवान की अब मृत्यु हो चुकी है और मै उसे लेकर यमलोक जा रहा हूँ परंतु तुम्हारी आयु अभी शेष है और नियमानुसार जीवित मनुष्य को यमलोक नहीं ले जाया जा सकता इसलिए तुम लौट जाओ" यमराज ने कहा ।
सावित्री बोली -"महाराज ! आप कुछ भी कहे परंतु मैं अपने पति का साथ कदापि नहीं छोड़ सकती ।"
यमराज - "यह सृष्टि के नियमों के विरुद्ध है सावित्री ! अगर तुम चाहो तो कोई एक वरदान मांग लो मुझसे सत्यवान के प्राण के अलावा और चली जाओ यही से वापस ।"
सावित्री - "महाराज मेरे सास-ससुर के आखों की ज्योति और उनका खोया राज्य वापस मिल जाए "
यमराज ने कहा ऐसा ही होगा और आगे बढ़ गए परंतु उन्हें फिर भी लगा कि सावित्री उनका पीछा कर रही और वे मुड़े उन्होंने देखा कि सावित्री अब भी उनके पीछे चली आ रही थी । यमराज बोले -" पुत्री ! तुम क्यों प्रकृति के नियमों का उल्लंघन कर रही हो? सत्यवान मर चुका है और इस सत्य को तुम्हें मान लेना चाहिए। चाहे तो मुझसे कोई ओर एक वरदान मांग लो ।"
सावित्री बोली मेरे पिता को संतान की प्राप्ति हो । यमराज ने तथास्तु कहा और आगे बढ़े परंतु सावित्री ने अब भी उनका पीछा न छोड़ा तब यमराज ने उसे एक ओर वरदान मांगने के लिए कहा। इस बार सावित्री ने पुत्रवती होने का वरदान मांगा । यमराज भी जल्दी से उससे पीछा छुड़ाना चाहते थे और इसलिए बिना सोचे समझे वरदान देकर चलने लगे तभी सावित्री बोली - "महाराज! आपने अभी मुझे पुत्रवती होने का वरदान प्रदान किया है और मेरे पति के प्राण हर के ले जा रहे हैं ? अगर ऐसा ही करना था तो मुझे वरदान ही क्यों दिया?"
अब जाकर यमराज का दिमाग चकराया और उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ परंतु अब वे बाध्य हो चुके थे। उस समय यमराज को अपना वचन पूरा करने के लिए सृष्टि के नियमों को तोड़ते हुए सत्यवान को जीवन देना पड़ा।
सावित्री जब वापस अपने पति के मृत शरीर के पास आई तो सत्यवान ऐसे जाग उठा जैसे गहरी नींद से जागा हो । सावित्री ने मन-ही-मन भगवान को प्रणाम किया । उधर यमराज भी मन में सावित्री के सतीत्व की प्रंशसा कर रहे थे ।
- महाभारत के वनपर्व में उल्लेखित कथा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें