शंकुतला और दुष्यंत की प्रेम कथा
एक बार कि बात है , हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए
वन में गए । जिस वन मे वे आखेट के लिए गए थे उसी वन में
कण्व ऋषि का आश्रम था । ऋषिवर के दर्शन के लिए राजा
दुष्यंत उनके आश्रम पहुंचे । पुकारने पर एक अति सुन्दर
युवती कुटिया से निकल कर आती हैं और राजा से कहतीं हैं
'हे राजन्! ऋषिवर तो तीर्थ यात्रा पर निकले हैं । आपका ऋषि
कण्व के आश्रम में स्वागत है ।'
उस युवती को देखकर राजा दुष्यंत बोले - 'हे देवि ! आप कौन
है ? मेरे विचार से तो यह आजन्म ब्रहमचारी कण्व ऋषि का
आश्रम लगता है ।'
युवती ने कहा - 'मेरा नाम शंकुतला हैं और मैं कण्व ऋषि की
पुत्री हूँ '
दुष्यंत उस युवती की बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोले
'देवी ऋषिवर तो आजन्म ब्रहमचारी है , फिर आप उनकी
पुत्री कैसे हो सकतीं हैं ?'
इसपर शंकुतला ने कहा - ' वास्तव मे मेरे माता-पिता ऋषि
विश्वामित्र और अप्सरा मेनका है । मेरे जन्म होने के पश्चात
मेरी माता ने मुझे वन में छोड़ दिया जहां पर शकुंन्त नामक
पक्षी ने मेरी रक्षा की । ऋषि कण्व की दृष्टि मुझपर पड़ी और
उन्होंने मुझे गोद में ले लिया और मेरा नाम पड़ा शंकुतला ।
दुष्यंत शंकुतला पर मोहित हो गए और उससे प्रणय निवेदन
किया । शंकुतला भी राजा को मन-ही-मन पसंद कर चुकी थी
उसने राजा को अपनी स्वीकृति प्रदान की । दोनों प्रेमियों ने
वहीं वन मे गंधर्व विवाह कर लिया और एक दूसरे के हो गए।
कुछ दिन शंकुतला के साथ विहार करने के बाद राजा दुष्यंत
ने कहा - ' प्रिये! मैं हस्तिनापुर का राजा हूँ अतः मुझे राजकाज
देखने के लिए हस्तिनापुर जाना पडेगा । ऋषि कण्व के तीर्थ
से आ जाने के पश्चात मै यहाँ से विदा कराकर तुम्हें अपने
राजमहल ले जाऊंगा । ' इतना कहकर दुष्यंत ने अपने प्रेम
चिन्ह के रूप में एक अंगूठी दी ।
तत्पश्चात वे हस्तिनापुर चले गए ।
एक दिन , आश्रम में ऋषि दुर्वासा पधारे । राजा दुष्यंत के
विरह में लीन होने के कारण शंकुतला को ऋषिवर के आने
का भान नही हुआ । ऋषि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान
समझा और क्रोधित होकर बोले - 'बालिके! मैं तुम्हें श्राप देता
हूँ कि तुने जिस के ध्यान मे लीन होकर मेरा अनादर किया है
वहीं तुम्हें भूल जाएगा ।'
ऋषि के श्राप को सुनकर शंकुतला का ध्यान टूटा और वह
उनके चरणों में गिर पड़ी और क्षमा प्रार्थना करने लगीं ।
ऋषिवर को उस पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि अगर
तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उसे देखकर उसकी
स्मृति हो जाएगी। '
शंकुतला के गर्भ में दुष्यंत की संतान पलने लगीं थी । कुछ
समय पश्चात् ऋषि कण्व तीर्थंकर आ पहुंचे । शंकुतला ने
अपने पिता को अपने और दुष्यंत के गंधर्व विवाह के बारे में
बताया । इस पर ऋषिवर ने कहा कि पुत्री विवाह के पश्चात्
विवाहित कन्या को पिता के घर में रहना उचित नहीं है । अब
तेरे पति का घर ही तेरा है ।
अगले ही दिन ऋषि कण्व ने शंकुतला को हस्तिनापुर भिजवा
दिया । लेकिन मार्ग मे एक सरोवर में आचमन करते हुए दुष्यंत
की दी अंगूठी जो उसका प्रेम चिन्ह थी सरोवर में ही गिर गई ।
उस अंगूठी को एक मछली निगल गई ।
हस्तिनापुर पहुचकर ऋषि कण्व के शिष्यों ने शंकुतला को
दुष्यंत के सामने खड़ा कर कहा कि महाराज शंकुतला आपकी
पत्नी है इसे स्वीकार करे । दुष्यंत तो दुर्वासा ऋषि के श्राप से
शंकुतला को भूल गए थे । अतः उन्होंने शंकुतला को अपनी
पत्नी नहीं माना और उसपर आरोप लगाने लगे ।
शंकुतला का अपमान होते ही आसमान से बिजली कड़की
और सब के सामने ही उसकी माता मेनका उसे वहां से ले गई।
जिस मछली ने शंकुतला की अंगूठी को निगला था , एक दिन
मछुआरे के जाल में आ फंसी । जब मछुआरे ने उस मछली
को काटा तो उसके पेट से वह अंगूठी निकलीं । मछुआरे ने
अंगूठी को महाराज दुष्यंत को जाकर उपहार स्वरूप दे दिया ।
अंगूठी देखते ही दुष्यंत को शंकुतला का स्मरण हो आया और
वे अपने किये पर बहुत पछताने लगे । महाराज ने शंकुतला
को बहुत ढुंढवाया पंरतु उनका कोई पता नहीं चला ।
कुछ दिनों बाद दुष्यंत इन्द्र के आमंत्रण पर देवासुर संग्राम में
उनकी सहायता करने के लिए स्वर्ग गए । संग्राम में विजयश्री
प्राप्त करने के बाद दुष्यंत आकाश मार्ग से लौट रहे थे तो उन्हें
मार्ग में ऋषि कश्यप का आश्रम दृष्टिगत हुआ । उनके दर्शन
के लिए दुष्यंत वहां रूक गए ।
उन्होंने वहां देखा कि एक सुन्दर बालक एक भयंकर शेर के
साथ खेल रहा था । उस बालक को देखकर दुष्यंत के ह्रदय में
असीम प्रेम उमड़ पड़ा और वे उसे गोद में लेने के लिए जैसे ही
आगे बढ़े एक स्त्री चिल्ला उठी - ' हे भद्र पुरूष ! आप इस
बालक को न छुएं अन्यथा उसकी भुजा मे बंधा काला डोरा
सांप बनकर आपको डस लेगा ।'
यह सुनकर भी दुष्यंत अपने आप को रोक न सके और उस
बालक को अपनी गोद में उठा लिया । तब उस स्त्री ने देखा
कि बालक के गोद में उठाते ही काला डोरा टूट कर धरती पर
गिर गया ।
वह स्त्री शंकुतला की सखी और बालक महाराज दुष्यंत का
पुत्र था । सखी को यह बात ज्ञात था कि बालक को जब भी
उसके पिता गोद में लेंगे वह काला डोरा टूट कर धरती पर गिर
जाएगा । सखी बहुत प्रसन्न हुई और सारा वृतांत जाकर
शंकुतला को सुनाया । शंकुतला दुष्यंत के सामने आई तो
उन्होंने उसे पहचान लिया । अपनी भूल की क्षमा मांगी और
ऋषि कश्यप से आज्ञा लेकर अपनी पत्नी और पुत्र को
हस्तिनापुर ले गए ।
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