मूर्खता
प्राचीन काल में सुन्द और उपसुन्द नाम के दो बलशाली दैत्य हुए हैं। एक बार उनके मन में तीनों लोकों का एक छत्र सम्राट बनने का विचार आया। इसकी प्राप्ति के लिए उनको एक उपाय सूझा। उन्होंने सोचा कि भगवान आशुतोष को प्रसन्न किया जाना चाहिए क्योंकि समस्त देवों में भगवान शंकर ही ऐसे देव हैं जो जल्दी ही प्रसन्न होकर अपने भक्त की मनोकामना पूरी कर देते हैं।
यह सोचकर उन्होंने भगवान शंकर की आराधना आरंभ कर दी। बहुत समय तक जब वे शिव शंकर की आराधना करते रहे तो देवाधिदेव महादेव उन पर प्रसन्न हुए और प्रकट होकर उनसे कहा-'मांगों, क्या वर मांगते हो?'
न जाने उस समय उन दोनों को क्या हुआ कि जो वर वह मांगना चाहते थे, वह तो न मांग सके अपितु उससे विपरीत उनके मुख से निकल गया कि हमें आपकी प्रियतमा पार्वती चाहिए।
यह सुनकर शिव शंकर को क्रोध तो आया किन्तु वह देने का वचन दे चुके थे। अतः उन्होंने पार्वती उन्हें सौंप दी। पार्वती का अनुपम सौंदर्य देखकर दोनों उनके रूप पर मोहित हो गए और इस बात पर झगड़ा करने लगे कि पार्वती को अपने पास कौन रखे। दोनों ही उसे अपने पास रखना चाहते थे।
तब उन दोनों ने निर्णय किया कि किसी तीसरे पक्ष से अपनी इस समस्या का समाधान कराना चाहिए। अंतर्यामी शिव यह बात समझ गए। उन्होंने एक वृद्व ब्राह्मण का रुप धारण किया और उनके पास जा पहुंचे।
वृद्ध ब्राह्मण को देख दोनों ने यही निर्णय लिया कि मध्यस्थ बनने के लिए यही ब्राह्मण ठीक रहेगा। तब वे दोनों उससे अपनी समस्या का निदान करने की प्रार्थना करने लगे ।
शिव शंकर ने उनकी बात सुनी तो बोले-'भाई लोगों, सुनो। तुम दोनों ही क्षत्रिय हो। तुम दोनों ने साथ- साथ
तप किया है। अब यह निर्णय करना तो कठिन है कि किसने अधिक तप किया है। इसका श्रेष्ठ उपाय यही है कि तुम दोनों परस्पर युद्ध करो। जो जीते उसे ही पार्वती को ग्रहण करने का अधिकार है।'
फिर क्या था। दोनों ने अपनी-अपनी गदा संभाल ली और लगे युद्ध करने। जिसको जैसा अवसर मिलता, उसी प्रकार वह दूसरे पर प्रहार करता। इस आघात-प्रतिघात में दोनों के ही प्राण-पंखेरू उड़ गए। भगवान शंकर पार्वती को लेकर हिमालय की ओर चले गए।
यह सोचकर उन्होंने भगवान शंकर की आराधना आरंभ कर दी। बहुत समय तक जब वे शिव शंकर की आराधना करते रहे तो देवाधिदेव महादेव उन पर प्रसन्न हुए और प्रकट होकर उनसे कहा-'मांगों, क्या वर मांगते हो?'
न जाने उस समय उन दोनों को क्या हुआ कि जो वर वह मांगना चाहते थे, वह तो न मांग सके अपितु उससे विपरीत उनके मुख से निकल गया कि हमें आपकी प्रियतमा पार्वती चाहिए।
यह सुनकर शिव शंकर को क्रोध तो आया किन्तु वह देने का वचन दे चुके थे। अतः उन्होंने पार्वती उन्हें सौंप दी। पार्वती का अनुपम सौंदर्य देखकर दोनों उनके रूप पर मोहित हो गए और इस बात पर झगड़ा करने लगे कि पार्वती को अपने पास कौन रखे। दोनों ही उसे अपने पास रखना चाहते थे।
तब उन दोनों ने निर्णय किया कि किसी तीसरे पक्ष से अपनी इस समस्या का समाधान कराना चाहिए। अंतर्यामी शिव यह बात समझ गए। उन्होंने एक वृद्व ब्राह्मण का रुप धारण किया और उनके पास जा पहुंचे।
वृद्ध ब्राह्मण को देख दोनों ने यही निर्णय लिया कि मध्यस्थ बनने के लिए यही ब्राह्मण ठीक रहेगा। तब वे दोनों उससे अपनी समस्या का निदान करने की प्रार्थना करने लगे ।
शिव शंकर ने उनकी बात सुनी तो बोले-'भाई लोगों, सुनो। तुम दोनों ही क्षत्रिय हो। तुम दोनों ने साथ- साथ
तप किया है। अब यह निर्णय करना तो कठिन है कि किसने अधिक तप किया है। इसका श्रेष्ठ उपाय यही है कि तुम दोनों परस्पर युद्ध करो। जो जीते उसे ही पार्वती को ग्रहण करने का अधिकार है।'
फिर क्या था। दोनों ने अपनी-अपनी गदा संभाल ली और लगे युद्ध करने। जिसको जैसा अवसर मिलता, उसी प्रकार वह दूसरे पर प्रहार करता। इस आघात-प्रतिघात में दोनों के ही प्राण-पंखेरू उड़ गए। भगवान शंकर पार्वती को लेकर हिमालय की ओर चले गए।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें