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अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रावण ने बंदी क्यों बनाया शनि देव को

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                  रावण ज्योतिषी शास्त्र का ज्ञाता था । जब रावण की महारानी मंदोदरी गर्भवती थी तो वह चाहता था कि उसका होने वाला  पुत्र दीर्घायु और सर्वशक्तिमान हो । वह चाहता था कि उसका होने वाला पुत्र ऐसे नक्षत्रों में पैदा हो जिससे वह दीर्घायु और महा-पराक्रमी हो जाए । इसके लिए रावण ने सभी ग्रह नक्षत्रों  को यह आदेश दिया कि जब उसका पुत्र मेघनाद पैदा होने  वाला हो तो शुभ और सर्वश्रेष्ठ स्थितियों में रहे । चूंकि सभी रावण से डरते थे अतः सभी ग्रह नक्षत्र डर के मारे रावण की इच्छानुसार उच्च स्थित में विराजमान हो गए परंतु शनि देव  को रावण की यह बात पसंद नहीं आई ।  शनि देव आयु की रक्षा करने वाले है , परंतु रावण जानता था कि सभी उसकी बात मानते हैं परंतु शनि देव उससे जरा भी  नहीं डरते और वह उसकी बात कदापि नहीं मानेंगे ।  अतः रावण ने बल का प्रयोग कर शनि देव को ऐसी स्थिति में रखा जिससे कि उसके पुत्र की आयु लंबी हो सके । उस समय तो रावण ने जैसे चाहा शनि देव को रख लिया परंतु जैसे ही मेघनाद के जन्म का समय निकट आया तो शनि देव ने अपनी

जगन्नाथ रथयात्रा से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें

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                               जगन्नाथ मंदिर को हिन्दू धर्म मेंं चारों धाम में से एक माना गया है । यहां हर वर्ष भगवान जगन्नाथ की भव्य रथयात्रा निकाली जाती है जो सिर्फ देश में नहीं विश्व भर में अति प्रसिद्ध हैं । जगन्नाथ पुरी को मुख्यतः पुरी नाम से जाना जाता है । रथयात्रा की धूम दस दिनों तक चलती है और इस समय पूरे देश से लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं । भगवान जगन्नाथ को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है जिनकी महिमा का उल्लेख धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में भी किया गया है । जगन्नाथ रथयात्रा में श्रीकृष्ण , बलराम और उनकी बहन सुभद्रा का रथ होता है । जो इस रथयात्रा में शामिल होकर रथ को खींचते हैं उन्हें सौ यज्ञों के बराबर का पुण्य मिलता है । हिन्दू धर्म में जगन्नाथ रथयात्रा का बहुत महत्व है । मान्यता के अनुसार भगवान जगन्नाथ के रथ को निकालकर प्रसिद्ध गुंडिचा माता मंदिर पहुंचाया जाता है जहाँ भगवान जगन्नाथ आराम करते हैं । गुंडिचा माता मंदिर में भारी तैयारीयां होती हैं । इस यात्रा को पूरे भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता है । रथयात्रा में सबसे पहला रथ बलराम

जैन धर्म में अक्षय तृतीया का महत्व

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                          Rishavnath (ऋषभदेव) जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ हुए जिन्हेे ऋषभनाथ कहा जाता है । उन्हें जन्म से ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था और समस्त कलाओं के ज्ञाता थे । युवा होने पर उनका विवाह नंदा और सुनंदा से हुआ । नंदा से भरत का जन्म हुआ जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (ऐसा जैन धर्मावलंबीयो का मानना है ) । आदिनाथ के सौ पुत्र और दो पुत्रियां हुई । ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया और फिर अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटकर खुद दिगम्बर तपस्वी बन गए । उनके साथ सैकड़ो लोगों ने उनका अनुसरण किया । जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं । अतः आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा । इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे जहां श्रेयांश ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया । अतः उस दिन अक्षय तृतीया के शुभ दिन ही भगवान ऋषभनाथ ने एक वर्ष के निराहार के बाद इक्षु ( शोरडी-गन्ने) रस से पारण किया था । इस कारण जैन धर्मावलंबीय

आठ पौराणिक मनुष्य जो आज भी जीवित है / Hindu mythology 8 immortal people

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                        जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है , गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था कि आत्मा तो अजर-अमर है और यह एक निश्चित समय के लिए शरीर धारण करती है । शरीर नश्वर है , परंतु हिन्दू पुराणों के अनुसार माता के गर्भ से जन्म लेने वाले आठ ऐसे व्यक्ति हैं जो चिरंजीवी है । इनकी मृत्यु आज तक नही हुई है । ऐसा माना जाता है कि ऐ आठों किसी नियम, वचन या श्राप से बंधे हुए है और दिव्य शक्तियों से युक्त एक दिव्य आत्मा है । हिन्दू धर्म के अनुसार वे आठ जीवित अजर अमर महामानव है । इन आठ महामानवों के नाम इस प्रकार है - द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वथामा , दैत्यराज राजा बलि , महर्षि वेदव्यास , अंजनी पुत्र हनुमान , कृपाचार्य , भगवान परशुराम , विभीषण और ऋषि मार्कंडेय । मान्यता के अनुसार जो भी व्यक्ति सुबह-सुबह इन आठों महामानवों का नाम स्मरण करते हैं उसके सारे रोग बीमारी खत्म हो जाती है और वह मनुष्य सौ वर्षों तक जीता है । हनुमान जी - श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने जब माता सीता को अशोक वाटिका में प्रभु श्रीराम का संदेश पहुंचाया

परशुराम जयंती पर जाने भगवान परशुराम की जीवन कथा / Parsuram

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                      Bhagwan Parsuram भगवान परशुराम  का जन्म अक्षय तृतीया  को हुआ था इसलिए अक्षय तृतीया को परशुराम जयंती के रूप में भी मनाया जाता है । वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम पहर में उच्च ग्रहों से युक्त मिथुन राशि में माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ । परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है और उनका जन्म त्रेता युग ( रामायण काल) में हुआ था । पुराणों के अनुसार उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि के द्वारा पुत्रेष्ठि यज्ञ के वरदान स्वरुप रेणुका के गर्भ से मध्य प्रदेश के इंदौर जिला मे ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ । पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण संस्कार के फलस्वरूप उनका नाम राम पड़ा । वे जमदग्नि के पुत्र होने के कारण जामदग्नय और शंकर जी द्वारा प्रदत परशु धारण किये रहने के कारण परशुराम कहलाए । आरंभिक शिक्षा उन्हें ऋषि विश्वामित्र और ऋषि ऋचीक के आश्रम में प्राप्त हुई । तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान भोलेनाथ के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर व

कब है अक्षय तृतीया जाने पौराणिक कथा

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                          Akshay Tiritya 2020 वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अधिष्ठात्री देवी माता गौरी है । उनकी साक्षी मे किया गया धर्म-कर्म दान अक्षय हो जाता है , इसलिए इस तिथि को अक्षय तृतीया कहा जाता है । अक्षय तृतीया से समस्त मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाते है । अक्षय तृतीया का पौराणिक कथाओं में वर्णन :- महाभारत काल में जब पांडवो को तेरह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास मिला था तभी एक बार उनकी कुटिया में दुर्वासा ऋषि पधारें । उस समय द्रौपदी से जितना भी हुआ उसने ऋषि का बड़ी श्रद्धा और प्रेम से स्वागत सत्कार किया जिससे दुर्वासा ऋषि बहुत प्रसन्न भी हुए । दुर्वासा ऋषि ने उस समय द्रौपदी को एक अक्षय पात्र दिया । साथ ही द्रौपदी को बताया कि आज अक्षय तृतीया है , अतः आज के दिन जो भी धरती पर श्री हरी विष्णु की विधि - विधान से पूजा - अर्चना करेगा तथा उनको चने का सत्तू, गुड़ मौसमी फल , वस्त्र , जल से भरा घड़ा तथा दक्षिणा के साथ श्री विष्णु के निमित्त दान करेगा , उसके घर का भण्डार सदैव भरा रहेगा । उसके धन-धान्य का क्षय नहीं होगा , उसमें अक्षय व

कर्ण अर्जुन का युद्ध और कर्ण वध - महाभारत

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                          द्रोणाचार्य की मृत्यु के पश्चात दुर्योधन पुनः शोक से आतुर हो उठा तब कर्ण ने उसकी सेना का सेनापति बनना स्वीकार किया । पांडव सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला । कर्ण और अर्जुन के बीच विभिन्न प्रकार के अस्त्रों - शस्त्रों से भयंकर युद्ध हुआ । सत्रहवें दिन से पहले कर्ण का सामना अर्जुन को छोड़ सभी पांडवो से हुआ था । उसने महाबली भीम से लेकर सभी पांडवो को एक एक कर युद्ध में पराजित किया परंतु माता कुंती को दिए वचन अनुसार किसी को नहीं मारा । महाभारत के सत्रहवें दिन आखिरकार कर्ण और अर्जुन का आमना-सामना हुआ । इस संग्राम में दोनों ही बराबर थे । कर्ण को उसके गुरु परशुराम से विजय नामक धनुष प्राप्त था। दुर्योधन के कहने पर  पांडवो के मामा शल्य कर्ण के सारथी बने क्योंकि अर्जुन के सारथी स्वयं श्रीकृष्ण थे और दुर्योधन नहीं चाहता था कि कर्ण किसी भी मामले में अर्जुन से कम हो शल्य मे ऐसे गुण थे विद्यमान थे जो एक योग्य सारथी मे होने चाहिए । दोनों के बीच युद्ध चल रहा था इसी बीच अर्जुन का एक बाण कर्ण के रथ में लगा जिससे उसका रथ कई गज पीछे चला गय

वाल्मीकि रामायण

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                    Valmiki writing Ramayana वाल्मीकि रामायण संस्कृत साहित्य का एक आरंभिक महाकाव्य है  जो संस्कृत भाषा में अनुष्टुप छंदो मे रचित है । इसमें श्रीराम के चरित्र का उत्तम एवं वृहद वर्णन काव्य रूप में उपस्थित हुआ है । महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित होने के कारण इसे वाल्मीकि रामायण कहा जाता है । वर्तमान में राम के चरित्र पर आधारित जितने भी ग्रंथ है वे सब वाल्मीकि रामायण पर ही आधारित है । वाल्मीकि रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि भी माना जाता है । यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आयामों को प्रतिबिंबित करने वाला होने के कारण साहित्य में अक्षय निधि है । काव्यगुणों की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण अद्वितीय महाकाव्य है । यह महाकाव्य संस्कृत काव्यों की परिभाषा का आधार है । यह अन्य रचनाकारों के लिए पथ-प्रदर्शक ग्रंथ रहे है ।  यह महाकाव्य वाल्मीकि जी की पूर्णत मौलिक कृति है । रामायण की कथावस्तु राम के चारों ओर ताना बाना बुनती है । राम इस महाकाव्य के नायक है । ईश्वरीय विशिष्टता और असाधारण गुणों के स्वामी होते हुए भी राम के किसी क्

आखिर क्यों हंसने लगा मेघनाद का कटा सिर

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                          मेघनाद एक वीर राक्षस योद्धा था जिसने इन्द्र पर जीत हासिल करने की वजह से इन्द्रजीत नाम मिला । मेघों की आड़ मे युद्ध करने की वजह से रावण का यह पुत्र मेघनाद कहलाया । अपने पिता रावण की आज्ञानुसार वह भगवान राम , लक्ष्मण और उनकी सेना  को समाप्त करने के लिए युद्ध करने लगा लेकिन लक्ष्मण के एक धातक बाण से उसका सर धड़ से अलग हो गया ।  मेघनाद बहुत ताकतवर था जब उसका सर धड़ से अलग होकर नीचे गिरा तो वानर सेना और स्वयं श्रीराम उसके सर को निहारने लगे । श्रीराम ने उसके सर को संभाल कर रख लिया और उसकी एक भुजा को बाण के द्वारा उसकी पत्नी सुलोचना के महल में पहुंचा दिया । वे सुलोचना को मेघनाद के वध की सूचना देना चाहते थे । वह भुजा जब सुलोचना ने देखीं तो उसे विश्वास नहीं हुआ कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और यह उसकी भुजा है । उसने कहा कि अगर तुम वास्तव मे मेरे पति की भुजा हो तो लिखकर मेरी दुविधा को दूर करों । सुलोचना के इतना कहते ही भुजा हरकत करने लगी और तब उसने एक खड़िय लाकर उस भुजा को दी । उस कटे हुए हाथ ने वहां जमीन पर लक्ष्मण जी के प्रशं

कैसे किया लक्ष्मण जी ने मेघनाद का वध

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                            लंका विजय के बाद प्रभु श्रीराम का चौदह वर्ष का वनवास पूरा हुआ और वे अयोध्या के राजा बने । एक बार कि बात है, अगस्त्यमुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध पर चर्चा करने लगे भगवान राम ने बताया कि कैसे उन्होंने रावण और कुम्भकर्ण जैसे मायावी राक्षसों का और लक्ष्मण ने मेघनाद का वध किया अगस्त्यमुनि ने कहा - 'प्रभु ! भले ही रावण और कुम्भकर्ण जैसे अति विशाल और मायावी राक्षसों का वध अपने किया लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाद ही था जिसका वध लक्ष्मण ने किया । मेघनाद ने तो इन्द्र को पराजित कर लंका में कैद करके रखा था । वह तो ब्रह्मा जी ने दान में मेघनाद से इन्द्र को मांग कर मुक्त किया था । ऐसे महारथी का वध लक्ष्मण ने किया यह बड़ी बात है ।' प्रभु श्रीराम ने आश्चर्य से पूछा - 'ऋषिवर कैसे मेघनाद का वध करना रावण और कुम्भकर्ण को मारने से ज्यादा मुश्किल था?' अगस्त्यमुनि ने कहा - 'प्रभु ! मेघनाद को यह वरदान प्राप्त था कि उसका वध वही कर सकता है जो चौदह वर्ष से न सोया हो न चौदह वर्षों से खाया हो और जिसने चौदह वर्षों से न ही किसी

अप्सरा मेनका और विश्वामित्र की प्रेम कथा

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                    ऋषि विश्वामित्र अपनी तपस्या मे लीन थे । वह इतने ध्यानमग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है । उनके कठोर तपस्या के प्रभाव से स्वर्ग मे इन्द्र का सिंहासन डोलने लगा । नारद मुनि ने देवराज इन्द्र को बताया कि मृत्युलोक मे एक तपस्वी वन मे कठोर तप मे लीन है । उनकी तपस्या में कोई विध्न नहीं पड रहा है । यह सुनकर देवराज को अपने सिंहासन की चिंता सताने लगी । इन्द्र ने स्वर्गलोक की अप्सरा मेनका को मृत्युलोक मे विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा । उन्हें पूरा विश्वास था कि विश्वामित्र मेनका को देखकर तप करना भूल जाएंगे । बर्षों से तपस्या में बैठे ऋषि का शरीर बहुत कठोर हो चुका था उनकी तपस्या भंग करना कोई आसान काम न था । उन पर मेनका की सुंदरता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वे काम को अपने बस में कर चुके थे । आखिरकार इन्द्र को कामदेव का सहारा लेना पड़ा । कामदेव के कामुक तीर ऋषि विश्वामित्र पर चलाया जिससे उनके मन मे मेनका के लिए आकर्षण पैदा हुआ । उनके ह्रदय में प्रेम के अंकुर फूटने लगे । इधर मेनका का कार्य भी सफल हुआ

उर्वशी पुरूरवा

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              एक बार नारद मुनि राजा पुरूरवा के रूप , गुण , बुद्धि और युद्धकौशल की प्रशंसा देवराज इंद्र से कर रहे थे । स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा उर्वशी उस समय वही मौजूद थी और देवर्षि नारद से राजा पुरूरवा का बखान सुन रहीं थीं । उर्वशी ने मृत्युलोक के राजा की इतनी प्रशंसा सुनी तो वह उन्हें देखने के लिए लालायित हो गई । बिना कुछ सोचे वह मृत्युलोक पहुंच गई और जब उसने पुरूरवा को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गई दूसरी ओर राजा पुरूरवा भी उर्वशी के रूप सौंदर्य को देखते ही उसपर मर मिटे । उन्होंने तत्काल ही उर्वशी के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । उर्वशी को पुरूरवा का विवाह प्रस्ताव मंजूर था परंतु उसने राजा के सामने दो शर्तें रख दी । पुरूरवा उस समय उर्वशी के लिए इतने पागल हुए कि बिना सुने उन्होंने दोनों शर्तें मान भी लिया । उर्वशी की पहली शर्त थी कि वे उसके दो भेड़ो की रक्षा करेंगे क्योंकि वह उन भेड़ो को अपने पुत्र समान समझतीं है । उसकी दूसरी शर्त यह थी कि वे एक दूसरे को नग्न अवस्था में अपने यौन संबंधो के समय ही देखेंगे । अगर पुरूरवा ने एक भी वचन तोड़ा तो वह

शंकुतला और दुष्यंत की प्रेम कथा

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                          एक बार कि बात है , हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गए । जिस वन मे वे आखेट के लिए गए थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था । ऋषिवर के दर्शन के लिए राजा दुष्यंत उनके आश्रम पहुंचे । पुकारने पर एक अति सुन्दर युवती कुटिया से निकल कर आती हैं और राजा से कहतीं हैं 'हे राजन्! ऋषिवर तो तीर्थ यात्रा पर निकले हैं । आपका ऋषि कण्व के आश्रम में स्वागत है ।' उस युवती को देखकर राजा दुष्यंत बोले - 'हे देवि ! आप कौन है ? मेरे विचार से तो यह आजन्म ब्रहमचारी कण्व ऋषि का आश्रम लगता है ।' युवती ने कहा - 'मेरा नाम शंकुतला हैं और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ ' दुष्यंत उस युवती की बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोले 'देवी ऋषिवर तो आजन्म ब्रहमचारी है , फिर आप उनकी पुत्री कैसे हो सकतीं हैं ?'  इसपर शंकुतला ने कहा - ' वास्तव मे मेरे माता-पिता ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका है । मेरे जन्म होने के पश्चात मेरी माता ने मुझे वन में छोड़ दिया जहां पर शकुंन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की । ऋषि कण्व की दृष्टि मुझपर पड़

महाबली जरासंध

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                    महाभारत की कथा मे अनेकों वीर महारथियों के बारे में बताया गया है जिनमे से एक था जरासंध । उसके जन्म और मृत्यु की कथा भी बेहद ही रोचक है । जरासंध मगध का सम्राट तथा कंस का ससुर था । उसके भय से अनेक राजा अपने राज्यों को छोड़कर भाग गए थे । शिशुपाल जरासंध का सेनापति था । कथानुसार , मगध देश मे बृहद्रथ नामक राजा राज्य करते थे । उनकी दो पत्नियां थी मगर उनकी कोई संतान न थी । एक दिन राजा बृहद्रथ महात्मा चण्डकौशिक के पास गए और सेवा कर उन्हें संतुष्ट किया । प्रसन्न होकर महात्मा ने राजा को एक फल दिया और कहा कि यह फल अपनी रानी को खिला देना इससे तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी । बृहद्रथ की दो पत्नियां थी अतः उन्होंने फल को काटकर दोनो को खिला दिया । समयानुसार जब दोनों रानियों को बच्चा पैदा हुआ तो शिशु के शरीर का एक भाग एक रानी के गर्भ से तथा दूसरा हिस्सा दूसरी रानी के गर्भ से हुआ । रानियों ने घबरा कर जीवित शिशु के टुकड़ों को बाहर फेक दिया । उसी समय वहां से एक राक्षसी गुजरी जिसका नाम जरा था । जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़े देखा तो उसे अपनी

अमरनाथ धाम की कथा

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                        पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार , एक बार माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ से पूछा - ' प्रभु आप अजर अमर है और मुझे हर बार एक नया जन्म लेकर नए स्वरूप में कठोर तपस्या करनी पडती है आपको पाने के लिए , मेरी इतनी कठोर परीक्षा क्यों लेते है ? आपके कंठ में पड़े इस नरमुण्ड माला और आपके अमर होने का क्या रहस्य है ? तब भगवान भोलेनाथ ने माता से कहा कि वे उन्हें एकांत में गुप्त स्थान मे अमर कथा सुनाएंगे ताकि कोई अन्य जीव उसे सुन न ले । यह अमर कथा जो भी सुनेगा वह अमरत्व प्राप्त कर लेगा । भोलेनाथ माता पार्वती को अमरनाथ की पवित्र गुफा में यह कथा माता को सुनाते हैं । कथा सुनते - सुनते माता पार्वती को नींद आ जाती है और वे वही सो जातीं हैं जिसका पता भोलेनाथ को नहीं चलता क्योंकि वे कथा सुनाने मे रमे होते है उस समय वहां दो सफेद कबूतरों का जोडा था जो ध्यानपूर्वक भोलेनाथ की कथा सुन रहे थे । वे बीच-बीच में गूं गूं की आवाज़ निकाल रहे थे । इस कारण भोलेनाथ को लगा कि पार्वती जी कथा सुन हुँकार भर रही है । और इस तरह दोनो कबूतरों ने अमर होने की कथा प

गयासुर की कथा

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                        पुराणों  के अनुसार गया (बिहार) नगर में एक राक्षस रहा करता था जिसका नाम था गयासुर  । गयासुर को वरदान मिला था कि जो भी उसे देखेगा या स्पर्श करेगा वह सीधे बैकुंठ जाएगा । इस कारण से यमलोक सूना होने लगा । इससे परेशान होकर यमराज ने त्रिदेव से कहा कि प्रभु गयासुर के वरदान के कारण अब पापी और अधर्मी व्यक्ति भी बैकुंठ जाने लगें हैं । इसका कोई उपाय निकालिए । यमराज के कहने पर ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए और बोले 'वत्स ! तुम परम पवित्र हो इसलिए देवताओं की इच्छा है कि हम तुम्हारी पीठ पर यज्ञ करें ।' गयासुर इसके  लिए सहर्ष तैयार हो गया । तब गयासुर के पीठ पर सभी देवता और स्वयं विष्णु जी गदा धारण कर स्थित हो गए । गयासुर के शरीर को स्थिर करने के लिए एक बड़ी सी शिला भी रखी गई । इसे आज प्रेत शिला के नाम से जाना जाता है । गयासुर के इस समर्पण को देखकर भगवान विष्णु बड़े प्रसन्न हुए और गयासुर को वरदान दिया कि अब से यह स्थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ वह गया  नाम से जानाा जाएगा । यहाँ पर पिंडदान और श्राद्ध करने वाले को पुण्य और

सोने की लंका

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                      मोह माया से दूर रहने वाले भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं । बहुत ही सादा जीवन और तपस्या में लीन रहने वाले भगवान भोलेनाथ को स्वर्ण से अधिक भस्म प्रिय है ।                                        एक बार कि बात है, भोलेनाथ और माता पार्वती से मिलने के लिए भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी आए । कैलाश पर्वत पर अधिक ठंड होने के कारण माता लक्ष्मी ठंड से ठिठुरने लगीं । उन्होंने माता पार्वती से व्यंग मे कहा कि आप एक राजकुमारी होते हुए इस प्रकार का जीवन कैसे जी सकतीं हैं । जब वे जाने लगीं तो उन्होंने भोलेनाथ और पार्वती जी को बैकुंठ आने का न्योता दिया । कुछ दिनों बाद भोलेनाथ और माता पार्वती भी बैकुंठ गए । माता पार्वती ने जब बैकुंठ के वैभव को देखा तो उनके मन मे भी लालसा हुई कि उनका भी एक वैभवशाली महल हो । कैलाश पहुंचने के बाद माता भोलेनाथ से हठ करने लगीं कि उनके लिए भी एक वैभवशाली महल का निर्माण करवाया जाए । भोलेनाथ मान गए और विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि माता के लिए एक अति सुन्दर स्वर्ण महल का निर्माण करें ।

जनमजेय का सर्प यज्ञ

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                   जनमजेय अर्जुन के पौत्र और राजा परीक्षित के पुत्र थे । जनमजेय को जब पता चला कि मेरे पिता की मृत्यु तक्षक नाग के डसने से हुई है तो उन्होंने संपूर्ण विश्व के सर्पो को मारने के लिए नागदाह यज्ञ करवाया । विशिष्ट मंत्रोउच्चारण सेे सभी नाग खुद यज्ञ की बेदी मे आकर गिर जाते थे । जब लाखो सर्प एक साथ यज्ञ में मरना प्रारंभ हो गए तब भयभीत तक्षक नाग ने इन्द्र की शरण ली । वह इन्द्रलोक मे रहने लगा । ऋत्विको ने जब तक्षक नाग का नाम लेकर आहुति डालनी शुरू कर दी तब मजबूर होकर इन्द्र को अपने उत्तरीय में छुपाकर तक्षक नाग को जनमजेय के यज्ञ में लाना पड़ा । वहां वे तक्षक को अकेले छोडक़र स्वर्ग चले गए । इधर वासुकी नाग की प्ररेणा से आस्तीक नामक एक ब्राह्मण जनमजेय के यज्ञ स्थल में पहुंचकर ऋत्विको और यजमान की स्तुति करने लगा । विद्वान ब्राह्मण बालक आस्तीक से प्रसन्न होकर जनमजेय ने उसे एक वरदान मांगने के लिए कहा । आस्तीक ने यज्ञ को तुरंत रोकने का वर मांगा । जनमजेय ने तत्काल यज्ञ रोक दिया और तक्षक नाग भी बच गया जो बस कुछ ही क्षणों में यज्ञ कुंड में गिरने ही

श्रीकृष्ण ने तोड़ा रानी सत्यभामा का अहंकार

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                    भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ अपनेे सिंहासन पर विराजमान थे । निकट ही गरूड़ जी और सुदर्शन चक्र भी बैठे थे । तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था । बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा कि - 'हे प्रभु ! त्रेता युग में आपने श्रीराम के रूप में जन्म लिया था सीता आपकी पत्नी थी । क्या वह मुझसे भी ज्यादा सुंदर थी? द्वारिकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का घमंड हो गया है । तभी गरूड़ जी ने कहा कि भगवन क्या मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है ? इधर सुदर्शन चक्र से भी न रहा गया और तो बोले -'भगवन ! मैंने आपकों बड़े-बड़े युद्धों में विजयश्री दिलवायी है । क्या मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? श्रीकृष्ण मन-ही-मन मुस्कुरा रहे थे । वे समझ गए कि इन तीनों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट करने का समय आ गया है । ऐसा सोचकर भगवान श्रीकृष्ण ने गरूड़ से कहा कि - 'हे गरूड़ ! तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि भगवान राम माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।' द्वारिकाधीश भगवान

भोलेनाथ के वाहन नंदी की कथा

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                  भगवान भोलेनाथ की घोर तपस्या के बाद शिलाद ऋषि ने नंदी को अपने पुत्र केे रूप में पाया । शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र को संपूर्ण वेदों का ज्ञान दिया । एक बार कि बात है , ऋषि शिलाद के आश्रम में मित्र और वरूण नाम के दो दिव्य ऋषि पधारें ।  नंदी ने अपने पिता की आज्ञानुसार उनकी बड़ी सेवा की । जब वे जाने लगे तो उन्होंने ऋषि शिलाद को तो लंबी आयु और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया परंतु नंदी को नहीं । यह देखकर शिलाद ऋषि ने उन दिव्य ऋषियों से पूछा कि आपने मुझे आशीर्वाद दिया परंतु मेरे पुत्र को क्यों नहीं तो उन दिव्य ऋषियों ने कहा कि नंदी अल्पायु है । यह सुनकर शिलाद ऋषि चिंतित हो गए । तब नंदी ने अपने पिता से कहा कि आप मेरी चिंता क्यों करते हैं मेरा जन्म तो महादेव की कृपा से हुआ है और वही मेरी रक्षा आगे भी करेंगे । इतना अपने पिता से कहकर नंदी भुवन नदी के किनारे भगवान भोलेनाथ की तपस्या करने के लिए चले गए । कठोर तप के बाद भोलेनाथ प्रकट हुए और कहा वरदान मांगो वत्स! तब नंदी ने कहा कि प्रभु मै हमेशा आपके सानिध्य में रहना चाहता हूँ । नंदी की अनन्य भक्ति

वीर दुर्गादास राठौड़

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                        राजपूताने मे बड़़े - बड़े शूरवीर हुुए । उस मरुभूमि ने कितने ही नर रत्नों को जन्म दिया लेकिन वीर दुर्गादास राठौड़ जी अपने अनुपम आत्म-त्याग अपनी निस्वार्थ सेवा-भक्ति और अपने उज्जवल चरित्र के लिए कोहिनूर के समान है । दुर्गादास जी मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण राठौड़ के पुत्र थे । दुर्गादास जी का लालन- पालन उनकी माता ने उनके पिता से दूर लुनावा नाम के गांव मे की । लेकिन अपने पिता की भांति ही उनमें भी अदम्य साहस था । एक बार कि बात है , जोधपुर राज्य की सेना के ऊटो को चराते हुए कुछ ऊट दुर्गादास जी के खेत में घुस गए । बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने ध्यान नही दिया तो उनका खून खौल उठा और उन्होंने अपनी तलवार झट से निकाल कर ऊंट की गर्दन उड़ा दिया । इस वाक़ये की खबर जब महाराजा जसवंत सिंह को मिली तो वे उस साहसी बालक से मिलने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को उन्हें दरबार में लाने का हुक्म दिया । सभा में आसकरण जी ने अपने पुत्र को इतनी निर्भीकता से अपना अपराध स्वीकारते हुए देखा तो सकपका गए परंतु