वीर दुर्गादास राठौड़

                       
Durgadas Rathod fights with Aurangjeb


राजपूताने मे बड़़े - बड़े शूरवीर हुुए । उस मरुभूमि ने कितने

ही नर रत्नों को जन्म दिया लेकिन वीर दुर्गादास राठौड़ जी

अपने अनुपम आत्म-त्याग अपनी निस्वार्थ सेवा-भक्ति और

अपने उज्जवल चरित्र के लिए कोहिनूर के समान है ।


दुर्गादास जी मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंत सिंह के

मंत्री आसकरण राठौड़ के पुत्र थे । दुर्गादास जी का लालन-

पालन उनकी माता ने उनके पिता से दूर लुनावा नाम के गांव

मे की । लेकिन अपने पिता की भांति ही उनमें भी अदम्य

साहस था । एक बार कि बात है , जोधपुर राज्य की सेना

के ऊटो को चराते हुए कुछ ऊट दुर्गादास जी के खेत में घुस

गए । बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने ध्यान

नही दिया तो उनका खून खौल उठा और उन्होंने अपनी

तलवार झट से निकाल कर ऊंट की गर्दन उड़ा दिया । इस

वाक़ये की खबर जब महाराजा जसवंत सिंह को मिली तो वे

उस साहसी बालक से मिलने के लिए उतावले हो उठे और

अपने सैनिकों को उन्हें दरबार में लाने का हुक्म दिया ।


सभा में आसकरण जी ने अपने पुत्र को इतनी निर्भीकता से

अपना अपराध स्वीकारते हुए देखा तो सकपका गए परंतु

महाराज को जब पता चला कि वे आसकरण जी के पुत्र है तो

उन्हें अपने पास बुलाया और बालक दुर्गादास की पीठ

थपथपाई और उन्हें तलवार भेंट कर अपनी सेना मे शामिल

कर लिया ।


महाराज जसवंत सिंह उस समय औरंगजेब की सेना में प्रधान

सेनापति थे  फिर भी औरंगजेब की नियत अच्छी नहीं थी वह 

हमेशा जोधपुर को हड़पने की फिराक में रहता था । 

दक्षिण मे शिवाजी ने मुगलों को परेशान कर रखा था तब 

औरंगजेब ने जसवंत सिंह को दक्षिण मे सूबेदार बना कर भेजा

शिवाजी से जसवंत सिंह की दोस्ती से मुगल वहां सुरक्षित हो 

गए ।

फिर एक षडयंत्र के तहत औरंगजेब ने महाराज जसवंत सिंह 

जी को काबुल भेजा । जोधपुर का कार्यभार उन्होंने अपने

बड़े बेटे पृथ्वी सिंह को सौंप दिया । औरंगजेब ने छल से 

पृथ्वी सिंह को दिल्ली बुलाकर मार डाला और जोधपुर पर 

कब्जा कर लिया । उधर काबुल में दो राजकुमार वीरगति को 

प्राप्त हुए ।  पुत्रों की इस तरह मौत से दुखी होकर महाराज

भी चल बसे । बस इसी मौके की तलाश में औरंगजेब था ।

मरने से पहले महाराज जसवंत सिंह ने अपने एक खास 

आदमी को एक छोटी लोहे की सन्दूकची दी जिसे कहा कि 

यह सन्दूकची उस राजपूत को देना जो मुगलों को हटाकर मेरे 

सिहासन पर बैठे । इससे पहले इसे कोई खोलकर न देखें ।



मरने से पहले महाराज ने अपने सरदारों को बुलवाया था और

कहा कि मुगलों ने उनसे बदला लिया । उनके राजवंश में अब 

कोई वारिस नही बचा जो गद्दी पर बैठे पंरतु उनकी दो रानियां

गर्भवती है अगर उन्हें पुत्र हो तो उन्हें वही सम्मान मिले जो हमें

मिला । आप सभी की सहायता से वह मेरे सिंहासन पर बैठे

यही मेरी इच्छा है । 


दो महीने पश्चात भाटी और हाडी रानी दोनों को पुत्र की प्राप्ति 

हुई  । बड़े का नाम अजीत और छोटे का दलथम्भन रखा गया ।

औरंगजेब ने जब रानियों के पुत्रों के बारे में सुना तो उन्हें 

दिल्ली बुलवाया । सर्दी लग जाने से दलथम्भन रास्ते में ही मर

गया परंतु और लोग दिल्ली पहुंचे ।  दूसरे दिन दुर्गादास 

रानियों के आने की सूचना देने औरंगजेब के पास गए । 

कुछ बातचीत के बाद औरंगजेब ने दुर्गादास से कहा कि देखो

एक पुत्र तो मर ही गया जसवंत सिंह का अब दूसरे की 

देखभाल अच्छे से करें ताकी जसवंत सिंह का वंश खत्म न हो

जाए इसलिए अजीत को दिल्ली में ही रख दे हम उसका 

बेहतर ख्याल रखेंगे । 


दुर्गादास जी औरंगजेब की मंशा समझ गए परंतु उस समय 

कुछ बोलना सही नही समझा और बस इतना ही कहा कि 

अभी बच्चा छोटा है और माता के दूध से ही उसका पेट भरता

है इसलिए दूध छूटने के बाद ही उसे आपकी सेवा में लाया

जाएगा । औरंगजेब दुर्गादास की बात मान गया ।



वीर दुर्गादास ने रानी और सभी सरदारों को औरंगजेब की बात

जैसे के तैसे सुना दी । सभी गुस्से से जल उठे तब दुर्गादास जी

ने समझाया कि यह समय गुस्से से पागल होने का नहीं है 

बल्कि समझदारी से काम लेने का है । तत्पश्चात एक सरदार

ने बहुत चालाकी से अगले दिन एक सपेरा को लालच देकर

बुलवाया और उसके सांप वाली पिटारी मे राजकुमार अजीत

को छुपाकर दिल्ली से बाहर ले गया दूसरी ओर रानी के गोद में

एक दूसरा बच्चा दे दिया गया । अजीत का पालन-पोषण

मारवाड़ के एक गांव में चुपके से होने लगा ।


एक वर्ष बीत जाने पर जब उन्होंने अजीत को औरंगजेब के

हवाले नहीं किया तो औरंगजेब ने रानियों के आवास पर

हमला कर दिया । राजपूत वीर बड़े साहस से लडें और रानियों

ने खुद को मार डाला । इतने पर भी मुगल सेना को अजीत न

मिला । युद्ध में बचे सरदारों सहित दुर्गादास दिल्ली से निकल

गए और वे अपने गांव अपनी माता के पास पहुंचे ।


जसवंत सिंह के बड़े भाई अमरसिंह का पुत्र इन्द्र सिंह राज्य के

लालच में औरंगजेब से जा मिला । उसने भागे हुए सरदारों

और दुर्गादास को खत्म करने के लिए औरंगजेब को उकसाया 

औरंगजेब के मन में तो यह बात कब से थी अतः उसने भागे

हुए सरदारों को पकड़ने के लिए फरमान जारी कर दिया ।

सभी को पकड़ने के लिए शाही सेना दौडने लगी । कितनों के

घर लूटे गए और कितने छुपकर भाग गए । उसी समय एक 

सरदार जिसे महाराज जसवंत सिंह ने मरते समय वह 

सन्दूकची दी थी उसने भय से दुर्गादास को सौंप कर सारी बात

बता दिया ।


कंटालिया के सरदार शमशेर खां ने दुर्गादास जी की माता का

वध किया जिसका प्रतिशोध दुर्गादास ने उसे मारकर लिया ।

शमशेर खां की हत्या के बारे में जब औरंगजेब को पता चला 

तो उसने दुर्गादास को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का आदेश दिया।



वर्षों तक जंगल-जंगल भटक कर वे औरंगजेब की सेना से 

लोहा लेते रहे और राजपूत वीर योद्धाओं को इकट्ठी कर सेना

बनाई । वे न तो कहीं को राजा थे न कहीं के सेनापति फिर

भी मिट्टी पर मर मिटने वाले वीर राजपूतों ने उनका साथ दिया

और अपनी धरती माता को मुगलों के कब्जे से मुक्त कराया ।

चूंकि महाराज जसवंत सिंह के अंतिम बचे पुत्र अजीत सिंह 

अभी बच्चे थे इसलिए सभी सरदारों की इच्छानुसार दुर्गादास 

जी ने अजीत सिंह को गद्दी पर बिठाया परंतु जब तक वे खुद

राजकाज चलाने के काबिल न हुए वीर शिरोमणि दुर्गादास जी

ने सबकुछ संभाला । 


जब अजीत सिंह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा तो कई लोगों ने 

दुर्गादास के खिलाफ उसके कान भरने शुरू कर दिया । 

अजीत सिंह तो मूर्ख था ही घमंड में आकर उन्हें मारने का 

प्रयास करने लगा । अततः दुर्गादास जी ही उसके राज्य का 

भार उसे सौपकर जयपुर चले गए । वहां कुछ समय राणा 

जयसिंह के यहाँ रहे और फिर सबकुछ छोडक़र उज्जैन चले

गए बचे दिनों में श्रद्धा के साथ महाकाल की पूूजा की ।



वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ की मौत हो गई पंरतु 

उनकी वीरता हमेशा के लिए अमर हो गई ।

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