संदेश

संयोगिता और पृथ्वीराज चौहान की प्रेम कहानी

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कन्नौज की राजकुमारी संयोगिता दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान से मन-ही-मन में प्रेम करती थी । राजकुमारी  पृृथ्वीराज के बहादुरी के किस्से बचपन से ही सुनती आ रही थी । धीरे-धीरे जब वह एक छोटी बालिका से एक युवती के रूप में परिवर्तित हो गई तो उसका यह आकर्षण प्रेेेम में परिवर्तित हो गया ।  राजकुमारी ने पृथ्वीराज को कभी एक युवक के रूप में नहीं देखा था इसलिए वे पृथ्वीराज का समाचार या उनकी तस्वीर  दिखाने वाले को बहुत इनाम दिया करती थी । वह सदैव ही राजा पृथ्वीराज के विषय में जानने को तत्पर रहती थी । उनकी बहादुरी की  नईं नई बाते सुनने के लिए प्रतीक्षा करती थी । चित्रकार पन्नाराय राजकुमारी संयोगिता को पृथ्वीराज के अलग-अलग चित्र दिखाया करते थे । एक बार उन्होंने पृथ्वीराज चौहान का जंगल में शिकार करते समय का चित्र दिखाया जिसे देखकर राजकुमारी अपने प्रेम पर मंत्रमुग्ध होकर उस चित्र पर हाथ फेेेरने लगीं । पन्नाराय ने उसी समय राजकुमारी संयोगिता का एक चित्र बनाया जिसमें वह अप्रतिम सुंदरी लग रही थी । उस चित्र को लेकर पन्नाराय दिल्ली पृथ्वीराज चौहान के पास पहुंचे और संयोगिता का संदेश और चित्र उन्हें दिया ।

देवयानी और राजा ययाति का विवाह

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 एक बार कि बात है , दैत्यगुरू शुक्रराचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखी और दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के साथ उद्यान घूूूमने निकली । घूमते हुए वे सब उद्यान के सरोवर में  अपने-अपने वस्त्र उतारकर स्नान करने लगी । सुंदरता के मामले में देेवयानी की सुंदरता अलौकिक थी दूसरी ओर राजकुमारी शर्मिष्ठा भी अति सुंदर थी ।  जब वे सब सुुंदरियां स्नान कर रही थी ठीक उसी समय भगवान शिव और पार्वती माता उस जगह से गुजर रहे थे । भगवान शंंकर को देेेखकर   सभी युवतियां लज्जावश दौडकर अपने वस्त्र धारण करने लगी । शीघ्ररता में शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र धारण कर लिया जिससे देवयानी अत्यधिक क्रोधित हुई  और गुस्से में शर्मिष्ठा को बुरा-भला कहने लगी । देेवयानी ने इसे अपना अपमान समझा । देवयानी के अपशब्द सुनकर शर्मिष्ठा भी अपमान से तिलमिला उठी और उसके वस्त्रों को छीनकर उसे एक कुएं में ढकेल दिया और वहां से चली गई । उसी समय राजा ययाति उस जगह आखेेेट करते हुए पहुंचे और पानी की खोज में कुएं तक पहुंच गए । कुुुुएं मेंं उन्होंने देवयानी के सुंदर मुख को देख तो देखते ही रह गए । ययाति ने देवयानी को कुएं से बाहर निकाला ।

कच और देवयानी

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बात उस समय की है जब देवताओं और दानवों में त्रिलोक विजय के लिए युद्ध हो रहा था । देवताओं के गुरु बृहस्पति थे तथा दानवों के गुरु शुक्रराचार्य थे । दोनों गुरूओं का आपस में बहुत होड़ था। दैत्य गुरू शुक्रराचार्य संजीवनी विद्या के जानकार थे । वे मरे हुए दैत्यों को अपनी विद्या से दोबारा जीवित कर देते थे जिससे बल और बुद्धि में श्रेष्ठ देवताओं में बहुत आतंक था । देवताओं के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा । सेवा, श्रद्धा और भक्ति से ही दैत्य गुरू शुक्रराचार्य को प्रसन्न किया जा सकता था अतः बृहस्पति ने अपने रूपवान और ब्रहमचारी पुत्र कच को को गुरु शुक्रराचार्य के पास भेजा । कच शुक्रराचार्य के आश्रम में रहकर गुरु की सेवा करने लगे । दूसरी ओर कच की मित्रता गुरु शुक्रराचार्य की पुत्री देवयानी से हुई ।  देेवयानी अत्यंत सुन्दर और बुद्धिमान युवती थी । दोनों को एक दूसरे का साथ बहुत पसन्द था । देवयानी मन-ही-मन में कच से प्रेम करने लगी थी ।  शुक्रराचार्य भी अपने परम शिष्य की सेवा और भक्ति से गदगद हो गये थे । Kacha and devyani उधर जब यह बात दैत्यों को पता चला कि देवताओं ने कच को सं

रुक्मिणी हरण तथा श्रीकृष्ण रुक्मिणी विवाह

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विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री देवी रुक्मिणी माता लक्ष्मी का अवतार थीं और उनका विवाह श्रीकृष्ण सेे निश्चित था । रुक्मिणी भी श्रीकृष्ण की प्रशंसा सुनकर उनसे प्रेम करने लगी तथा माता जगदंबा के सामने उन्होंने मन में कृष्ण को ही अपना पति मान लिया था ।                                राजा भीष्मक के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी । ज्येष्ठ पुत्र का नाम रूक्मि था जिसे ब्रह्मा जी से ब्रह्मास्त्र प्राप्त था । रुक्मिणी की माता पिता तथा चारों भाई चाहते थे कि उसका विवाह कृष्ण के साथ हो क्योंकि वे जानते थे और रुक्मिणी मन ही मन कृष्ण से प्रेम करती है इसलिए उसने अपने लिए आयोजित स्वयंवर में आने से मना कर दिया था परंतु रूक्मि कृष्ण को अपना शत्रु मानता था और इसलिए रुक्मिणी का विवाह अपने परम मित्र शिशुपाल के साथ करने का निर्णय ले चुका था । राजा भीष्मक तथा अन्य चारों रूक्मि की शक्ति से डरते थे अतः वे उसका विरोध न कर सके । परिणामस्वरूप भीष्मक ने शिशुपाल के पास अपनी पुत्री के विवाह के लिए निमंत्रण भेज दिया अतः वह बारात लेकर विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर के पास पहुंचा । बारात क्या शिशुपाल, जरासंध, पौण्ड्रक ,

अर्जुन और सुभद्रा का प्रेम विवाह

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द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण और बलराम की इकलौती बहन सुभद्रा  जब विवाह के योग्य हुु ई तो कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी को उसके विवाह की चिंता हुई । वह अपने पति से बोली -' प्रभु ! आपकी लाडली बहन अब जवान हो गई है और इसलिए आपको अब उसके विवाह के बारे में सोचना चाहिए । कोई अच्छा सा वर ढूंढ कर उसका विवाह  कर देना चाहिए । रुक्मिणी की बात सुनकर मधुसूदन मुसकुराते हुए बोले  - 'इसमें चिंता की क्या बात है, सुभद्रा का विवाह हो जाएगा। ' रुक्मिणी (उत्सुकता से ) - यह आप क्या कह रहे हैं । क्या आपको नहीं पता विवाह कराने के लिए एक वर की आवश्यकता पड़ेगी?  मधुसूदन ( मुसकुराते हुए ) - सुभद्रा के लिए वर ढूँढने की आवश्यकता करनी ही नहीं पड़ेगी वर खुद-व-खुद चला आवेगा । तभी कुंती पुत्र अर्जुन के आने की सूचना मिलती है। देवी रुक्मिणी श्रीकृष्ण की तरफ देखकर मुसकुुराती है और उनका इशारा समझती है ।   उधर सुभद्रा अपनी सखियों के साथ रैवतक पर्वत की प्रदक्षिणा करने गई हुई थी ,अर्जुन भी शिकार खेलते हुए उधर जा पहुंचे । वहां पर अर्जुन ने सुभद्रा को देखा और उसकी सुंदरता में मुग्ध हो उससे प्रेम करने लगे ।

शिव और सती की कथा

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ब्रह्मा जी के मानस पुत्र प्रजापति दक्ष  की पुत्री के रूप में देवी आदि शक्ति  ने माता सती के रूप मेंं जन्म लिया । स्वंयभू मनुु की पुत्री प्रसूति के गर्भ से सोलह कन्याओं का जन्म हुआ था जिनमें से एक सती थी । उस समय शिव और शक्ति अलग-अलग थे इसलिए ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र दक्ष से शक्ति की उपासना करने के लिए कहा ताकि माता उनकी पुत्री के रूप में जन्म ले सके और उन दोनों का मिलन हो सके । प्रजापति दक्ष की सभी कन्याएं एक से एक गुणवती थी। पहली कन्या स्वाहा का विवाह अग्नि देव दूसरी कन्या स्वधा का विवाह पितृगण के साथ माता सती का विवाह शिवजी के साथ तथा शेष तेरह कन्याओं का विवाह धर्म के साथ हुआ । समयानुसार जब देवी सती विवाह योग्य हुई तो दक्ष ने अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपनी पुत्री का विवाह शिवजी के साथ कर दिया । देवी अपने पति के साथ कैलाश में खुशी-खुशी रहने लगी । एक बार जब ब्रह्मा जी ने देवलोक में एक सभा का आयोजन किया था तो सभी देवता वहां मौजूद थे। स्वयं शिव भी उस सभा में पधारे हुए थे। जब प्रजापति दक्ष वहां पहुंचे तो सभी देवता उनके स्वागत में खड़े हो गए परंतु शिव जी ब्रह्मा जी के साथ

नल और दमयंती की कथा

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प्राचीन समय में नल नामक राजा निषद देश में राज्य करते थे। नल बहुत ही सुंदर , वीर और प्रतापी राजा थे । मगर उन्हें जुआ खेलने की बुरी लत थी ।                                        उन्हीं दिनों विदर्भ (पूर्वी महाराष्ट्र) में भी एक बड़े प्रतापी राजा हुआ करते थे जिनका नाम भीमक था । राजा भीमक ने ऋषि दमन को प्रसन्न करके चार संतानें प्राप्त की थी । तीन पुत्र और एक पुत्री । पुत्री का नाम दमयंती था जो लक्ष्मी के समान सुंदर और गुणवती थी । दमयंती के रूप की चर्चा दूर-दूर तक थी । राजा नल ने भी दमयंती के बारे मे सुना और उससे प्रेम करने लगे। एक बार वे जब अपने बगीचे में घूम रहे थे तो वहां उन्होंने कुछ हंसो को देखा और उनमें से एक को पकड़ लिया । हंस ने राजा से कहा कि आप मुझे छोड़ दीजिए तो हम सभी दमयंती के पास जाकर आपकी ऐसी प्रंशसा करेंगे कि वह आपसे विवाह कर लेगी । नल ने हंस को छोड़ दिया और वे सभी उडकर विदर्भ देश की ओर चले।  वहां वे सभी दमयंती के बगीचे में गए । दमयंती ने हंसो को देखा तो वह बहुत खुश हुई और उन्हें पकड़ने का प्रयास करने लगी ।                                       दमयंती जिस भी हंस क

सावित्री और सत्यवान

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प्राचीन समय में दक्षिण कश्मीर  में मद्रदेश नामक एक राज्य था । वहां के राजा का नाम अश्वपति था।  राजा की एकमात्र पुुत्री का नाम सावित्री  था । वह बहुत सुुुन्दर और सुशील कन्या थी । जब सावित्री विवाह के योग्य हुुुई तो राजा को उसके लिए योग्य वर की चिन्ता हुुई और उन्होंनेे वर की तलाश शुरू  कर दिया। बहुत ढूूँढने पर भी कोई वर राजा को अपनी पुत्री  के लिए पंसद नहीं आया तब उन्होंने सावित्री से खुद कोई वर चुुन लेने के लिए कहा । एक बार सावित्री राजर्षियों के तपोवन से गुजर रही थी , तभी वहां उसने एक युवक को देखा जो घोड़ो के बच्चे के साथ खेल रहा था । उसके सिर पर जटा और शरीर में छाल के वस्त्र तथा मुख पर अद्भुत तेज था । जब रथ वहां ठहरा तो वह युवक सावित्री का परिचय पूछने गया और परिचय पाकर राजकुमारी का अपने आश्रम में स्वागत किया तत्पश्चात अपना नाम सत्यवान तथा अपनेे पिता का नाम धुुमंतसेन   बताया जो पूर्व में सालवा देश के राजा थे । अपना राज्य और आखों की ज्योति खो देने के पश्चात इसी तपोवन में तपस्या कर रहे हैं । अगले दिन सावित्री वहां से अपने राजमहल लौटी और अपने पिता को सत्यवान के बारे में बताया । उ

क्यों मनाया जाता है धनतेरस का त्योहार

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                                                                                 कार्तिक मास की कृृष्ण त्रियोदशी के दिन हिन्दुु धर्म में धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है । ऐसा माना जाता है कि इसी दिन भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे । धन्वंतरि को भगवान विष्णु का ही अंंशावतार माना जाता है । संसार में चिकित्सा विज्ञान और आयुर्वेद के प्रसार के लिए ही भगवान ने धन्वंतरि का अवतार लिया था।  इस दिन धन्वंतरि के प्रकट होने के उपलक्ष्य में धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है । हिन्दु पौराणिक कथाओं के अनुसार देवताओं ने असुरों के साथ मिलकर अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया था। मंथन की प्रक्रिया के दौरान ओर भी रत्नों की प्राप्ति हुई थी जो बहुमूल्य थी । सबसे अंत मे अमृत निकला था जिसे असुरों ने देवताओं से छीन लिया था। समुद्र मंथन से ही धन और संपन्नता की देवी लक्ष्मी निकली है। धनतेरस में किसी भी धातु से बनी वस्तु को खरीदने का रिवाज है।  इसके अलावा लक्ष्मीजी और गणेश जी की मूर्ति को भी लोग इस दिन बड़ी श्रद्धा से खरीदते हैं। कहा जाता है कि इस दिन धातु की बनी वस्तुएं खरीदना बहुत

जनपद कल्याणी नंदा और बुद्ध

गौतम बुद्ध के सौतेले भाई और महाप्रजापति गौतमी के पुत्र का नाम नंद था। नंंद कुमार का विवाह उस समय की अपूर्ण सुुंदरी जनपद कल्याणी नंदा के साथ होने वाली थी । वह भी नंंद कुमार को बहुत पसंद करती थी और इस विवाह से बहुत खुुुश थी । जिस दिन उन दोनों का विवाह होने वाला था जनपद कल्याणी नंदा बहुत रोमांचित थी और अपने विवाह की तैयारियों को देखकर फूली न समा रही थी, उसी समय उसने नंद कुमार को बुद्ध के साथ देखा।  उनके हाथ में भिक्षाटन का कटोरा था और वे दोनों महल से बाहर जा रहे थे। शाम के समय विवाह मुहूर्त से पहले उन्हें यह सूचना मिली कि नंद ने भी गृहस्थ जीवन त्याग दिया है और बौद्ध भिक्षुक बन गए हैं। इस समाचार से जनपद कल्याणी नंदा को गहरा आघात लगा और वह मूर्छित हो गई। धीरे-धीरे वह इस घटना से उबरने लगी परंतु अब उन्हें अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा और उन्होंने भी बौद्ध भिक्षुणी बनने की ठान ली । यद्यपि उसने सारी मोह माया त्याग दिया परंतु अपनी सुंदरता और यौवन पर उन्हें अभी भी गर्व था। उनका मोह कम नहीं हुआ था और वे कभी इस बात को न सोचती कि यह सुंदरता एक दिन धूमिल हो जाएगी । एक दिन वह मठ की स्त्रिय

महाप्रजापति गौतमी

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बात उस समय की है जब बौद्ध भिक्षुक संघ में स्त्रियों को जाने की अनुमति प्राप्त नहीं थी । एक बार गौतम बुद्ध शाक्यों के देश कपिलवस्तु के नियोग्राधराम में विहार कर रहे थे तभी महाप्रजापति गौतमी वहां आई और बुद्ध से निवेदन किया -"भन्ते ! अच्छा होता अगर स्त्रियाँ भी आपके दिखाए धर्म-विनय में शामिल हो ।" गौतमी ने तीन बार प्रार्थना की परंतु बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया और वहां से वैशाली चले गए । कुछ समय पश्चात गौतमी अपना सिर मुंडवाकर पांच सौ शाक्य स्त्रियों के साथ वैशाली पहुंची । वह बहुत उदास थी तो बुद्ध के शिष्य आनंद ने उनसे दुख का कारण पूछा । गौतमी ने कहा कि वह बौद्ध धर्म में स्त्रियों को प्रव्रज्या दिलवाना चाहती है परंतु बुद्ध इसके लिए सहमति नहीं दे रहे हैं । फलस्वरूप आनंद ने बुद्ध से तीन बार विनती की परंतु बुद्ध ने फिर भी अस्वीकार कर दिया। तब आनंद ने कहा - "भन्ते ! क्या आपके द्वारा प्रवेदित धर्म घर से बेघर प्रव्रजित हो कर स्त्रियाँ अर्हत्व का साक्षात कर सकती हैं " बुद्ध ने कहा -"बिलकुल साक्षात कर सकती हैं आनंद!" तब आनंद ने पुनः कहा  -"भन्ते  ! अग

रानी लक्ष्मीबाई का बचपन

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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई  के बचपन का नाम मणिकर्णिका था इसलिए सभी उन्हें प्यार से मनु कहा करते थे। बचपन में ही मनु की माता चल बसी थी इसलिए उनके पिता मोरोपंत  ने नन्हीं बालिका को बड़े ही लाड-प्यार से पाला था। चूूंकि वे मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय  की सेवा में थे इसलिए अपने साथ वे मनु को भी दरबार मेंं ले जाया करतेे थे क्योंकि उतनी छोटी बच्ची को वे अकेले नहींं छोड़ना चाहते थे । दरबार में मनु अपनी सुंदरता और चंचलता के कारण सबकी प्रिय बन गई थी और पेशवा तो प्यार से मनु को "छबीली" कहा करते थे । मनु को बचपन से ही अस्त्र-शस्त्रों और घुड़सवारी का शौक था और चूंकि वह अपने पिता के साथ दरबार आया जाया करती थी इसलिए उसे तलवारबाजी और घुड़सवारी सिखने का मौका भी मिला। वैसे भी अन्य बालिकाओं के मुकाबले मनु को ज्यादा स्वतंत्रता मिली हुई थी । बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब मनु के बचपन के साथी हुआ करते थे  । एक बार नाना साहब हाथी की सवारी करने निकले जब मनु ने उन्हें देखा तो वह भी हाथी की सवारी करने के लिए मचल उठी और नाना साहब से कहा कि वह भी उनके साथ हाथी पर चढ़ना चाहती है लेक

तुलसीदास जीवन परिचय

तुलसीदास मध्यकाल के भक्त कवियों में सेे एक थे , इनका पूरा जीवन आश्चर्यों से भरा पड़ा है। कुछ विद्वान तुुुुलसीदास जी को आदिकवि वाल्मीकि जी का भी अवतार मानते हैं। इनका जन्म राजापुर, उत्तर प्रदेश हुआ माना जाता है , राजापुर जिला चित्रकूूूट में स्थित एक गांव है। आत्माराम दुबे नामक ब्राहमण केे घर इनका जन्म 1511ई में हुआ था । इनकी माता का नाम हुलसी था । ऐसा माना जाता है कि तुुुलसीदास जी बारह महीने माँ के गर्भ में रहे इसलिए जन्म के समय ही इनके दांत आ चुके थे और तो और पैदा होते ही उन्होंने राम नाम का उच्चारण किया था इसलिए इनका नाम रामबोला पड़ा । जन्म लेने के दूसरे दिन ही इनकी माता की मृत्यु हो गई इसलिए इनके पिता ने इन्हें  एक दासी को दे दिया । जब रामबोला पांच वर्ष का हुआ तो वह दासी भी मर गई और इस तरह रामबोला अनाथों की तरह अपना जीवन जीने लगा । संत नरहरिदास ने इसके बाद इनका पालन-पोषण अयोध्या ले जाकर किया तथा विधिवत यज्ञोपवीत-संस्कार कर इनका नाम रामबोला से तुलसीराम रखा और वेद-शास्त्रों की शिक्षा दी ।                                 बचपन में ही तुलसीदास जी बड़ी प

ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी

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स्वयंभू मनु  के पुत्र राजा उत्तानपाद की दो पत्नियां सुनीति और सुरुचि थी। सुनीति से ध्रुव  और सुरुचि से उत्तम नाम के दो पुत्र थे । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी परंतु राजा को अत्यधिक प्रेम अपनी छोटी रानी सुरुचि से था । एक बार बालक ध्रुव अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठा हुआ था तभी रानी सुरुचि वहां आई । जब उसने अपनी सौतन के पुत्र को अपने पति की गोद में बैठा हुआ देखा तो वह डाह से जलने लगी और क्रोध में आकर पांच वर्ष के बालक ध्रुव को पिता की गोद से हटा कर अपने पुत्र उत्तम को बैठा दिया और बोली राजा की गोद और सिंहासन पर बैठने का हक सिर्फ मेरे पुत्र को हैं ।                बालक ध्रुव को अपनी विमाता के इस व्यवहार से बहुत ज्यादा दुख हुआ और वह दौड़ा-दौड़ा अपनी माता सुनीति के पास पहुंचा और सारी बातें बताई । तब माता सुनीति ने कहा - ''पुत्र ! अगर स्थान ही पाना है तो सबसे श्रेष्ठ स्थान पाने की कोशिश करो । भगवान विष्णु की शरण में जाओ उन्हें अपना सहारा बनाओ । बालक ध्रुव के मन में अपनी माता की बातों का गहरा असर पड़ा और वह पांच वर्ष का बालक उसी समय घर छोड़कर चल पड़ा । रास्ते में उसे नारद मु

सृष्टि रचना

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सभी जानते हैं कि, ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की है परंतु जब पहलेे-पहल उन्होंने सृृष्टि रची तो उसमें विकास था ही नहीं । न किसी का जन्म और न ही किसी की मृत्यु होती थी । पहले ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि रचना का संकल्प लिया तो उनके मन से मरीचि , नेत्रों से अत्रि ,मुख से सरस्वती, कान से पुलस्तय, नाभि से पुलह , हाथ से कृतु , त्वचा से भृगु , प्राण से वशिष्ठ , अंगूठे से दक्ष, तथा गोद से नारद उत्पन्न हुए । इसी प्रकार उनके दाएँ स्तन से धर्म , पीठ से अधर्म, ह्रदय से काम, दोनो भौंहों से क्रोध, तथा  नीचे के ओंठ से लोभ उत्पन्न हुए । इस तरह यह संपूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुआ । एक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी अपनी मानस पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गए और उन्हें अपनी पत्नी बना लिया जिससे मनु का जन्म हुआ। जब जल प्रलय हुआ और पृृथ्वी पर जीवन मृृत्यु का चक्र चलना शुरू हुआ  तो मनु पृथ्वी के प्रथम मानव बनेें । इसलिए मनु को आदिमानव भी कहा जाता है। मनु का विवाह शतरूपा से हुुुआ । दोनों के पांच संतानें हुई :- उत्तानपाद , प्रियव्रत , आकूति , देवहूती और   प्रसूति  । मनु की तीनों पुत्रि

शिव की उत्पत्ति

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विष्णु पुराण के अनुसार शिव की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा हुई थी। उस समय ब्रह्मा जी को एक बालक की आवश्यकता थी तो उन्होंने इसके लिए तपस्या की । तब अचानक ब्रह्मा जी के गोद में एक रोता हुआ बालक प्रकट हुआ । उन्होंने उस बालक से रोने का कारण पूछा तो बालक ने बड़ी मासूमियत के साथ जवाब दिया कि उसका कोई नाम नहीं है इसलिए वह रो रहा है। तब ब्रह्मा जी ने उसका नाम रूद्र रखा परंतु फिर भी बालक चुुुप न हुआ तब ब्रह्मा जी ने बालक को चुुुप कराने के लिए आठ नाम दिए - रूद्र, शर्व,भाव,उग्र ,भीम ,पशुपति ,ईशान और  महादेव । इस कथा में एकमात्र शिव के बाल रूप का वर्णन हैै । शिव के इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जन्म लेने के पीछे भी विष्णु पुराण में एक कथा है जिसके अनुसार जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति नहीं हुई थी और चारों ओर सिर्फ़ जल ही जल और घना अंधेरा था उस समय विष्णु जी शेषनाग पर लेटे हुए थे तभी उनकी नाभि से कमल में बैठे ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए । ब्रह्मा और विष्णु जी जब सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बातें कर रहे थे तो शिव जी प्रकट हुए । ब्रह्मा जी ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया तब शिव जी के क्रो

बिम्बिसार

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मगध के राजा बिम्बिसार गौतम बुद्ध के सबसे बड़ेे प्रश्रयदाता और अनुयायीयों में से एक थे । जब बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थी उसी समय बिम्बिसार ने सन्यासी गौतम को एक बार देखा था और उन्हें अपने राजमहल में आमंत्रित भी किया था परंतु उस समय गौतम बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया । बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद बिम्बिसार ने फिर से उन्हें अपनी राजधानी राजगीर आने का निमंत्रण भेजा तो इस बार बुद्ध ने स्वीकार कर लिया।                                   बुद्ध अपने कुछ अनुयायियों के साथ राजकीय अतिथि बनकर राजगीर आते हैं । बिम्बिसार बुद्ध की बहुत आवभगत करते हैं और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक बुद्ध के उपदेशों को मानते थे परंतु उनकी मृत्यु बहुत ही दुखद हुई थी । जिस पुत्र को उन्होंने इतने लाड-प्यार से पाला था उसी ने उन्हें इतनी दर्दनाक मृत्यु दी थी। बुद्ध का भाई देवदत्त राजा बिम्बिसार द्वारा बुद्ध को प्रश्रय देने के कारण उनसे बहुत क्रोधित था और इसलिए उसने अजातशत्रु  को अपने पिताा के ही खिलाफ भड़का कर उनकी मृत्यु का षड़यंत्र रचा ।                                    

धैर्य की परीक्षा

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एक बार महात्मा बुद्ध किसी सभा में प्रवचन देने गए। उस समय वहां करीब सौ डेढ़ सौ लोगों की भीड़ होगी और लोग तो आ ही रहे थे । उस दिन बुद्ध ने कुछ खास नहीं बोला और जल्द ही वहां से चले गए। अगले दिन कुछ लोग कम दिखाई पड़े । पिछले दिन की तरह ही बुद्ध आज भी बिना कुछ बोले ही वहां से चल दिए। वहां मौजूद सभी लोग बहुत मायूस हो गए और बुद्ध के शिष्यों को भी उनके इस व्यवहार से बहुत आश्चर्य हुआ । ऐ सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा। लोग आते और मायूस होकर चले जाते फलस्वरूप दिन प्रतिदिन लोगों ने आना कम कर दिया ।                                           अंततः एक दिन ऐसा हुआ कि बस चौदह लोग आए । उन चौदह लोगों को बुद्ध ने गौर किया था कि वे शुरू से ही आते हैं और आज भी रोज की तरह आकर बैठे थे।  उस दिन बुद्ध ने अपना प्रवचन उन चौदह लोगों को दिया और वे सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए । महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने जब उनसे इस बात का कारण पूछा तो बुद्ध बोले - "मुझे भीड़ इकट्ठी करके क्या करना है?उतने ही लोगों को मैं शिक्षा दूंगा जो उसे ग्रहण कर सके। धर्म के मार्ग पर चलने के लिए धैर

बुद्ध और उनकी पत्नी यशोधरा

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ज्ञान की प्राप्ति के बाद राजकुमार सिद्धार्थ  को बुद्धत्व  की प्राप्ति होती है और वे एक सामान्य व्यक्ति से सिद्ध पुरुष के रूप में जाने जाते हैं । चारों ओर उनकी प्रसिद्धि बढ़ जाती है , वे जहां भी जाते हैं लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है , उनका प्रवचन सुनने के लिए। बुद्ध के महात्मा बनने की जानकारी उनके पिता राजा शुद्धोधन को भी होती हैै फलस्वरूप वे कई बार दूत भेजते हैं उन्हें बुलाने के लिए परंतु जो भी दूत बुद्ध को लेने आता है, वह भी बुद्ध से प्रभावित होकर बौद्ध भिक्षुक  बन जाता है । अंत में राजा शुद्धोधन ने बुद्ध के बचपन के मित्र कालुदायी को दूत बनाकर बुद्ध के पास भेजा । हर बार की तरह ही वह भी बुद्ध के संपर्क में आते ही उनका शिष्य हो गया परंतु फिर भी कालुदायी हमेशा बुद्ध को अपनी जन्मभूमि एक बार जाने के लिए प्रेरित करता रहा। अतः कालुदायी का प्रयास सफल हुआ और बुद्ध कपिलवस्तु  जाने के लिए तैयार हुए ।        कपिलवस्तु पहुंच कर बुद्ध ने वहां के लोगों को अपने उपदेश सुनाए । अगले दिन नियमानुसार वे भिक्षाटन के लिए निकले । जब उनकी पत्नी यशोधरा को पता चला कि बुद्ध क

बुद्ध और नीलगिरी हाथी

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गौतम बुद्ध का चचेरा भाई देवदत्त उनसे बचपन से ही बहुत जलता था । पहले तो उसने बुद्ध को नीचा दिखाने की हर कोशिश की परंतु जब वह सफल नहीं हो सका तब वह बुद्ध को मारने का षडयंत्र रचने में लग गया । एक बार जब बुद्ध मगध में थे तो देेेेवदत्त भी उनको मारने के इरादे सेे मगध पहुुंचा । वह हर समय इसी धुन में रहता कि कैसे बुद्ध को अपने रास्ते से हटाया जाए । एक दिन उसने बुद्ध को भिक्षाटन करते हुए देखा तभी उसके दिमाग में एक नई तरकीब सूझी। देवदत्त रात को मगध के अस्तबल में गया और नीलगिरी नाम के एक विशाल हाथी को बहुत सी मदिरा पिलाई। अगले दिन सुबह जब बुद्ध भिक्षाटन के लिए निकले तो देवदत्त ने उस हाथी  को बुद्ध के रास्ते में छोड़ दिया । इस तरह एक मदमस्त हाथी को सड़क पर छोड़ देने से चारों ओर अफरा तफरी मच गई । सभी अपनी-अपनी जान बचाकर इधर-उधर भागने लगे तभी एक स्त्री इस भागदौड़ में अपने छोटे बच्चे को गलती से हाथी के आगे छोड़ भागने लगी । बच्चा हाथी को अपनी तरफ आते देख जोर-जोर से रोने लगा । आसपास लोग यह सब देख रहे थे परंतु किसी में इतनी शक्ति न थी कि वे जाकर उस बच्चे को बचाए ।