मधु-कैटभ कथा / Madhu-kaitav katha
अति प्राचीन काल में मधु-कैटभ नामक दो असुर हुए । जब
संसार में चारों ओर जल-ही-जल था तो भगवान विष्णु अपनी
शेषनाग शैय्या में निद्रा में लीन थे तो उनके कान के मैंल से
मधु-कैटभ का जन्म होता है ।
एक बार कि बात है , उन्हें आकाश
में एक स्वर सुनाई दिया जिसके बारे में उन्हें भ्रम हुआ कि
यह देवी का महामंत्र है । उस दिन के बाद से ही दोनों भाइयों
ने मंत्र का जाप शुरू कर दिया । अन्न जल त्याग कर हजारों
बर्षों तक कठिन तपस्या की । भगवती उनसे प्रसन्न हुई और
उनसे कहा -"मैं तुम दोनों की तपस्या से प्रसन्न हूँ , मांगों क्या
चाहिये तुम्हें? "
स्वर सुनकर मधु-कैटभ असुरों ने कहा - "हे देवी हमें इच्छा
मृत्यु का वरदान प्रदान करें ।"
देवी ने कहा -"जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा "
भगवती के वरदान का उन दोनों को बहुत अभिमान हो गया
और वे जल में रहने वाले जीवों को परेशान कर लगे । एक
दिन उनकी नजर ब्रह्मा जी पर पड़ी जो कमल के पुष्प पर
विराजमान थे । उन्हें शरारत सूझी और दैत्यों ने ब्रह्मा जी से
कहा कि अगर हिम्मत है तो हमसे युद्ध करो नहीं तो इस
उत्कृष्ट आसन को छोड़कर चले जाओ । तुम इसपर बैठने के
योग्य नहीं हो । अब ब्रह्मा जी तो चिंता में पड़ गए क्योंकि
उन्होंने कभी युद्ध किया न था । फलस्वरूप ब्रह्मा जी भगवान
विष्णु की शरण में गए । उन्होंने विष्णु जी को निद्रा से जगाने
का बहुत प्रयास किया परंतु असफल रहे। अतः में वे भगवती
जगदंबा के पास गए और कहा - "हे देवी ! मुझे इन दुष्ट
असुरों से बचाइये। आप ही कि कृपा से मैं सृष्टि कर्ता हूँ ,
मुझे युद्ध करना कहां आता है। अगर आपने मुझे नहीं बचाया
तो संसार में आपकी अपकीर्ति फैलेगी । विष्णु मेरी सहायता
कर सकते थे परंतु वह तो आपकी माया से निद्रा में लीन हैं ।
आप तो सबका मनोरथ पूर्ण करने वाली है कृपया मेरी
सहायता करें ।"
ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर भगवती विष्णु के नेत्र, मुख ,
नासिका , बाहु और ह्रदय से निकलकर आकाश में स्थित हो
गई और तब जाकर विष्णु जी की निद्रा टूटी ।
तत्पश्चात विष्णु जी का मधु-कैटभ असुरों से पाँच हज़ार वर्षों
तक युद्ध हुआ पंरतु फिर भी वे उन्हें मार न सके। विचार
करने के बाद उन्हें पता चला कि इन्हें देवी ने इच्छा मृत्यु का
वरदान प्रदान किया है और इसलिए इन्हें परास्त कर पाना
असम्भव है । विष्णु जी ने मन -ही -मन भगवती की स्तुति
की । देवी खुश होकर विष्णु जी को दर्शन देती हैं ।
भगवती विष्णु जी से कहती हैं - "हे विष्णु ! आज से तुम
देवताओं के स्वामी हो । मैं इन असुरों को अपने माया के जाल
में फंसा लूंगी और तब तुम इनका वध कर देना ।"
भगवती के बात का अभिप्राय समझकर विष्णु जी ने दैत्यों
से कहा - "हे दैत्यों ! मैं तुम दोनों की युद्ध कला से प्रसन्न हुआ
मांगो क्या चाहते हो। अपनी इच्छानुसार वर मांगों ।"
विष्णु जी की बात सुनकर दैत्यों ने अभिमान से कहा - "विष्णु
हम याचक नहीं दाता है । तुम्हें अगर कुछ चाहिए तो हमसे
प्रार्थना करों ।"
अब देवी की माया के प्रभाव से दोनों दैत्यों की मति भ्रष्ट हो
गई और वे अपनी ही बात में फंस गए ।
विष्णु जी बोले - "अगर देना ही चाहते हो तो मेरे हाथों से मृत्यु
स्वीकार करों ।"
इस तरह मूर्ख असुर अपने अभिमान के कारण मारे गए ।
विष्णु जी ने अपनी जंघा में रखकर सुदर्शन चक्र से उन दोनों
भाईयों का वध देवी भगवती की कृपा से किया ।
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