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औरंगजेब और जैनाबाई

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                    सन् 1636 ई की बात है जब औरंगजेब दक्कन का  गवर्नर बनके बुरहानपुर पहुंचा तो वहां उसकी मुलाकात हीराबाई से हुई । हीराबाई से औरंगजेब की पहली मुलाकात शाहजहाँ के साढ़ू और खानदेश के हाकिम सैफ खान के महल में हुई । हीराबाई के अद्भुत सौंदर्य को देखते ही औरंगजेब वही गश खाकर गिर पड़ा जब उसकी आंख खुली तो उसका सर हीराबाई के गोद में था । औरंगजेब उसी वक्त से हीराबाई का होकर रह गया । हीराबाई सैफ खान की कनिज और नर्तकी थी । उसे संगीत मे महारथ हासिल थी । उसकी आवाज बहुत मीठी थी।  रूप लावण्य जवानी की तो वह मल्लिका थी । विस्मित कर देने वाली सुंदरता थी हीराबाई की जिससे औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह को भी अपने वश मे कर लिया । औरंगजेब उसके बिना एक पल नहीं रह पाता था। यहां तक कि उसने अपने कामकाज में भी लापरवाही बरतनी शुरू कर दी । एक बार कि बात है, औरंगजेब हीराबाई के साथ था और दोनों प्रेम भरी बातें कर रहे थे । तभी औरंगजेब ने कहा कि वह बादशाह बनेगा तो उसे मल्लिका के पद पर बिठाएगा । हीराबाई के लिए कुछ भी क़ुर्बान कर सकता है और वह जो भी मांगेगी उसकी इच्छा

जब अलाउद्दीन खिलजी की बेटी को प्यार हुआ एक राजपूत राजकुमार से

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                  यह कहानी उस समय की है जब अलाउद्दीन खिलजी की सेेना गुजरात के सोमनाथ मंदिर   को खंडित करकेे शिवलिंग को अपने साथ दिल्ली ले जा रही थी तभी जालौर के शासक कान्हड़ देव चौहान ने शिवलिंग को पाने के लिए खिलजी की सेना पर आक्रमण कर दिया । इस हमले  में अलाउद्दीन की सेना को हार का सामना करना पड़ा और अपनी जीत के बाद कान्हड़ देव चौहान ने शिवलिंग को जालौर मे स्थापित कर दिया । जब अलाउद्दीन खिलजी को अपनी सेना की हार के बारें में पता चला तो उसने कान्हड़ देव के पुत्र और इस युद्ध के प्रमुख योद्धा विरमदेव  को दिल्ली बुुलाया । दिल्ली पहुचने के बाद विरमदेव को शहजादी फीरोजा देखती है और उसे देखते ही राजकुमार से प्यार हो जाता है । शहजादी ने अपने पिता अलाउद्दीन को कहा कि वह मन से विरमदेव को चाहती है और अगर शादी करेंगी तो बस उसी से नही तो आजीवन अक्षत  कुंवारी रहेगी । अलाउद्दीन को अपनी प्यारी बेटी के जिद्द के आगे झुकना पड़ा फिर उसने सोचा कि हार का बदला और राजनीतिक फायदा एक साथ उठाया जाएगा । अलाउद्दीन खिलजी ने तब विरमदेव के पास इस शादी का प्रस्ताव रखा जिस

मुमताज और शाहजहाँ की अमर प्रेम कहानी

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                  मुमताज महल मुगल बादशाह शाहजहाँ  की प्रिय बेेेगम का जन्म 1593 मे आगरा शहर में अर्जुमंद बानो बेगम के नाम से हुआ था मुमताज महल की उपाधि बाद में शाहजहाँ ने दी । मुमताज महल आसफ खां  की पुत्री थी जो कि बादशाह जहाँगीर के वज़ीर हुआ करते थे । नूरजहाँ जहाँगीर की खास बेगम मुमताज की बुआ थी ।  मुमताज उर्फ अर्जुमंद बानो बहुत खुबसूरत थी और मुगल हरम से जुड़े मीना बाजार में कांच और रेशम के मोती बेचा  करती थी । वही 1607 में अर्जुमंद बानो को शाहजहाँ ने  अपना सामान बेचते हुए देखा था । उसकी उम्र महज 14 साल की थी । जब वह जाने लगीं तो शहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) ने उसका पीछा किया कुछ ही देर में शहजादे को पता चला  कि उसका नाम अर्जुमंद बानो है और वह वज़ीर आसफ खां की लडकी है । धीरे धीरे उन दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा और फिर बादशाह जहाँगीर के इजाजत से खुर्रम और अर्जुमंद बानो की सगाई हो गई साथ ही साथ खुर्रम को अगला होने वाला बादशाह भी घोषित कर गया । लेकिन नूरजहाँ चाहती थी कि खुर्रम का निकाह उसकी और शेर अफगान की बेटी लाडली

बेहद दर्दनाक थी मुमताज की मौत

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                      मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने जिस मुमताज के लिए सातवें अजूबों में से एक ताजमहल बनवा दिया उस मुमताज की मौत बहुत दर्दनाक थी । अपने चौंदहवे बच्चे को जन्म देने के समय 30 घंटे की प्रसव पीड़ा झेलते हुए उनकी मौत हो गई थी । शाहजहाँ अपनी बेगम मुमताज से बेहद मुहब्बत करता था और उसे छोड़कर कहीं दूर नहीं जाता था । एक बार डेक्कन मे खान जहां लोदी के विद्रोह को दबाने के लिए शाहजहाँ को बुरहानपुर जाना था । उस समय मुमताज नौ महीने की गर्भवती थी लेकिन फिर भी शाहजहाँ उसे आगरा से 787 किलोमीटर दूर धौलपुर , ग्वालियर से होता हुआ बुरहानपुर ले गया । गर्भावस्था का नौवां महीना और इतनी लंबी यात्रा मुमताज बुरी तरह से थक गई और इसका असर उसके गर्भ पर भी हुआ । मुमताज को दिक्कत होनी शुरू हो गई । मुमताज प्रसव पीड़ा के कारण तड़प रही थी दूसरी तरफ शाहजहाँ विद्रोह को दबाने के लिए रणनीति बना रहा था । दासियाँ आकर पल-पल का ब्यौरा दे रहीं थीं । उसे मुमताज की खराब हालत की सूचना मिली लेकिन उसने दासियों को जाने का आदेश दिया । वह मंगलवार की सुबह से बुधवार की आधी रात तक द

एक रात के लिए जी उठे महाभारत युद्ध में मृत योद्धा

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        महाभारत के युद्ध में मारे गए सभी योद्धा जैैसे कि भीष्म पितामह , द्रोणाचार्य , दुर्योधन , कर्ण और अभिमन्यु आदि एक रात के लिए पुनर्जीवित हो गए थे । यह घटना महाभारत युद्ध के खत्म होने के 16 साल बाद की है । यह उस समय की बात है जब धृष्टराष्ट , गांधारी , कुंती , विदुर और संजय वन में रहते थे । वहां महात्मा विदुर जी के प्राण त्यागने के बाद महर्षि वेदव्यास जी आए । उन्होंने धृतराष्ट्र  गांधारी और कुंती से कहा कि आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाऊँगा । तुम सब की जो इच्छा है वह मुझसे मांग लो । तब धृतराष्ट्र और गांधारी ने अपने मरे हुए सौ पुत्रों को तथा  कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा जताई । महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा परंतु इसके लिए रात्रि तक की प्रतिक्षा करनी होगी । वेदव्यास जी के कहे अनुसार सभी गंगा तट पर गए और रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगे । रात्रि होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और कौरवों और पांडव पक्ष के सभी योद्धाओं का आह्वान किया । थोड़ी देर बाद सभी योद्धा प्

जाने कौन थी भगवान राम की बहन

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         दक्षिण भारत के रामायण के अनुसार भगवान राम की बहन का नाम शांता था जो चारों भाइयों से बड़ी थी । शांता राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थी । लेेेकिन राजा दशरथ ने पैदा होने के कुछ वर्षों बाद अंग देश के राजा को दे दिया था शांता का पालन-पोषण अंग देश के राजा रोमपद  और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया जो कौशल्या की बहन थी । रानी वर्षिणी निसंतान थी और एक बार जब वह अयोध्या आई थी तो उन्होंने हंसी-हंसी मे बच्चे की मांग की । राजा दशरथ ने वचन दे दिया तत्पश्चात शांता को उनकी मौसी ने गोद ले लिया । शांता चौसठ कलाओं में पारंगत थी और देखने में भी अत्यधिक सुंदर थी परंतु ऐसा कहा गया है कि शांता के जन्म के बाद भयानक सूखा पड़ा था जिसकी वजह से दशरथ ने अपनी बेटी को गोद दे दिया था । एक बार कि बात है राजा रोमपद और शांता दोनों पिता पुत्री किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे तभी एक ब्राह्मण उनके पास खेती के लिए सहायता हेतु आया परंतु राजा ने ध्यान नहीं दिया । अपने भक्त की बेइज्जती इन्द्र न सहन कर सके और क्रोध में उन्होंने अंग देश में बारिश होने नहीं दी । जिस कारण से सूखा पड़

जब प्रभु श्रीराम ने छुपकर मारा वानरराज बाली को

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वानर राज बाली किष्किन्धा का राजा और सुग्रीव का बडा भाई था । बाली का विवाह तारा के साथ हुआ था । तारा एक अप्सरा थी । बाली के पिता का नाम वानरश्रेष्ट ऋक्ष था । स्वर्ग के राजा इन्द्र बाली के धर्म पिता थे । उसका एक पुत्र भी था जिसका नाम अंगद था । बाली मल्ल युद्ध और गदा युद्ध में पारंगत था । उस समय पृथ्वी पर उससे बलशाली ओर कोई न था । इसके अलावा बाली को उसके धर्म पिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार मिला था । जिसे ब्रह्मा जी ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि यह हार पहनकर बाली जब भी युद्धक्षेत्र में युद्ध करने उतरेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और वह शक्ति बाली को मिल जाएगी । इस कारण बाली अजेय था । बाली ने अपनी शक्ति के बल पर दुदुम्भी , मायावी और रावण तक को पराास्त करके रखा था । परंतु बाली बड़ा अधर्मी था । उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक हडप कर उसे अपने राज्य से बाहर कर दिया था । श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी ने सुग्रीव को प्रभु श्रीराम से मिलवाया । राम के आश्वासन देने पर कि वे बाली का स्वयं वध करेंगे सुग्रीव ने बाली क

चक्रव्यूह रचना और अभिमन्यु का वध

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   महाभारत के युद्ध में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का शौर्य    कुरुक्षेत्र  में अपने प्राणों को दांव पर लगा कौरवों के महारथियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होने वाला वीर  अभिमन्यु अर्जुन और सुभद्रा का पुुत्र था । वह अर्जुन के समान ही शूरवीर था । अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ना अपनी माता के गर्भ में ही सीख लिया था । एक बार जब अभिमन्यु सुभद्रा के गर्भ में ही थे तो अर्जुन अपनी पत्नी को चक्रव्यूह रचना और उसे तोड़ने के बारे में बता रहे थे पंरतु चक्रव्यूह से कैसे निकलते हैं यह बता नही सके क्योंकि सुभद्रा सो चुकी थी कौरवों-पांडवो के मध्य युद्ध के समय गुरु द्रोणाचार्य कौरवों के सेनापति थे । वे पांडवो की सेना से निरंतर पराजित होने के कारण दुखी थे । इस कारण द्रोणाचार्य ने पांडवो को पराजित करने हेतु चक्रव्यूह की रचना की । द्रोणाचार्य को पता था कि इस समय अर्जुन बहुत दुर निकल गए हैं युद्ध करते करते और चक्रव्यूह को सिर्फ अर्जुन ही तोड़ सकते हैं या फिर श्रीकृष्ण । परंतु श्रीकृष्ण ने शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा ली है । पांडवो मे चिंता की लहर दौड़ गई कि आखिर चक्रव्य

बिना शस्त्र के महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले उडुपी नरेश

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            महाभारत युद्ध की शुरुआत से पहले आर्यावर्त के सभी राजा महाराजा इसमें भाग लेने के लिए हस्तिनापुर पहुंच रहे थे । कौरव और पांडव इन सभी को अपना लक्ष्य और प्रयोजन बताकर अपनी ओर करने के प्रयास में लगे हुए थे । तब दक्षिण भारत के उडुपी नरेश अपनी सेना लेकर इस धर्म-युद्ध मे शामिल होने के लिए हस्तिनापुर पहुंचे । कौरवों और पांडवो ने अपनी-अपनी ओर से युद्ध करने के लिए उडुपी नरेश को मनाना शुरू कर दिया । दोनों पक्षों की बातें सुनकर वह निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि किसकी तरफ से लड़े और वहां उन्हें समस्त आर्यावर्त की सेना के भोजन की चिंता हुई । उडुपी नरेश पांडवो के शिविर में जाकर श्रीकृष्ण से मिले । उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि वह भाइयों के बीच युद्ध से सहमत नहीं है परंतु इस यद्ध को अब टाला भी नहीं जा सकता है । यद्यपि वे युद्ध में भाग लेने के इच्छुक हैं परंतु अस्त्र शस्त्रों से नही । श्रीकृष्ण उडुपी नरेश का प्रयोजन समझ गए और पूछा कि तब आप क्या चाहते हैं ? उडुपी नरेश ने दोनों ओर की सेना के लिए भोजन का प्रबंध करने  का प्रस्ताव रखा । श्रीकृष्ण ने उनका प

दुर्योधन वध कथा

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यह वह समय था जब महाभारत का युद्ध अपने अंत की ओर बढ़ रहा था । कौरवों की ओर से कृतवर्मा , अश्वथामा, कृपाचार्य और दुर्योधन के अतिरिक्त कोई ओर नही बचा था । दुर्योधन अपने सभी सगे-संबंधियों को खो चुका था इस समय उसे उन सारे लोगो के उपदेश याद आने लगे जिन्होंने युद्ध से पूर्व उसे समझाया था कि यह युद्ध कितना विध्वंसकारी हो सकता है । परंतु उसने किसी की भी बात नहीं सुनी । अपनी बची-खुची सेना के समाप्त होने के बाद दुर्योधन युद्ध भूमि से भाग कर अपनी माता गांधारी के पास पहुंचा । तब माता गांधारी ने अपनी आखों की पट्टी खोलकर उसके शरीर को वज्र बनाना चाहा । गांधारी को यह वरदान प्राप्त था कि वह जिस किसी को अपनी आखों से देख लेंगी वह वज्र समान हो जाएगा । इसलिए गांधारी ने दुर्योधन से कहा कि वह गंगा स्नान करने के बाद उसके सामने नग्न अवस्था में आए । माता के कहे अनुसार दुर्योधन गंगा स्नान करने के पश्चात नग्न अवस्था में ही गांधारी के पास जाने लगा परंतु मार्ग में उसे कृष्ण मिल गए और कहने लगे कि इतने बड़े होने के पश्चात भी तुम अपनी माता के सामने इस अवस्था में जा रहे हो तुम्हें

वीर बर्बरीक

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भीम और हिडिम्बा के पुत्र का नाम घटोत्कच था । घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती के पुत्र हुए महान योद्धा बर्बरीक । इनके जन्म से ही बर्बाकार घुुंघराले बाल थे जिसके कारण इनका नाम रखा गया बर्बरीक । बाल्यावस्था से ही बर्बरीक बहुत कुशल योद्धा और वीर थे । इन्होंने अपनी माता से युद्ध कला सीखी थी । भगवान शिव की घोर तपस्या करके इन्होंने प्रसन्न किया और तीन अभेद्य बाण प्राप्त किया । इन्हें तीन बाणधारी  नाम से भी प्रसिद्धि मिली । अग्नि देवता ने प्रसन्न होकर इन्हें धनुष प्रदान किया जो कि तीनों लोकों में विजयी बनाने के लिए पर्याप्त था । महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवो के बीच अपरिहार्य हो गया था  । यह समाचार बर्बरीक को पता चली तो उसके मन में भी युद्ध मे शामिल होने की इच्छा जागी । वे युद्ध में आने से पहले अपनी माता का आशीर्वाद लेने गए और उन्हें हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया । वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार अपने तीन बाण लेकर कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए । सर्वज्ञाता कृष्ण को जब यह पता चला कि बर्बरीक युद्ध के लिए निकल चुका है और अपनी माता से कमजो

विचित्रवीर्य के पुत्र

महाराज  शांतनु और सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य  की दो पत्नियां थी अम्बिका और अम्बालिका । दोनों को पुत्र नहीं हो रहा था तो माता सत्यवती की आज्ञा का पालन करते हुए  वेदव्यास बोले- 'माता ! आप दोनों रानियों को मेरे सामने से  निर्वस्त्र होकर गुजरने बोलिए जिससे कि उन्हें गर्भ धारण हो  जाए ।  सत्यवती की इच्छानुसार अम्बिका जो बड़ी रानी थी पहले  वेदव्यास के पास आई परंतु वह उनके तेज को न संभाल सकी और अपने नेत्र बंद कर लिया । तत्पश्चात छोटी रानी  अम्बालिका गुजरी परंतु वह भी वेदव्यास के भय से पीली पड़ गई ।  वेदव्यास लौट कर माता सत्यवती के पास आए और उन्हें  बताया कि अम्बिका को बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा परंतु नेत्र बंद कर लेने के कारण वह अंधा होगा और दूसरी रानी अम्बालिका को पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा । यह सुनकर माता  सत्यवती बहुत दुखी हो गई और फिर से अम्बिका को  वेदव्यास के पास भेजा परंतु इस बार बड़ी रानी ने खुद न  जाकर अपनी दासी को ऋषि वेदव्यास के पास भेजा । दासी  बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी ।

सहदेव जिन्होंने खाया अपने पिता का मस्तिष्क

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पाण्डु  को ऋषि किंदम ने श्राप दिया था कि जब भी वह स्त्री के साथ संबंध बनायेंगे तभी उनकी मृत्यु हो जाएगी । श्राप के कारण ही पाण्डु को अपनी कोई संतान नहीं हुई यद्यपि उनके पांच पुत्र थे । सबसे बड़े युधिष्ठिर , भीम ,  अर्जुन,  नकुल और सहदेव ।  युधिष्ठिर अर्जुन और भीम  माता कुुंती की  संतानें थी और नकुल और सहदेव का जन्म मान्द्री से हुआ था कुंती को ऋषि दुर्वासा ने एक मंत्र दिया था कि वह जिस भी  देवता का आह्वान करके उनसे पुत्र की इच्छा रखेगी उस देवता से उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी । जिसके फलस्वरूप कुंती और मान्द्री दोनों को पुत्र प्राप्ति हुई और पाण्डु धर्म पिता बनें । पाण्डु  ने तप के बल पर बहुत ज्ञान हासिल किया था । उन्हें  भूत भविष्य और वर्तमान में जो हुआ और होगा सब की  जानकारी थी । उन्हें ज्योतिषी आदि का भी ज्ञान प्राप्त था । और वह अपना ज्ञान अपने पांचो पुत्रों को देना चाहते थे परंतु उन्हें समझ नहीं आया कि यह ज्ञान उन्हें कैसे दे । एक बार पाण्डु ने अपने पांचो पुत्रों को बुलाया और कहा कि जब उनकी मृत्यु हो जाएगी तो

भीष्म पितामह के पांच चमत्कारी तीर

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            महाभारत का युद्ध  चल रहा था और गंगा पुत्र भीष्म  पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध कर रहे थे । दुर्योधन  युद्ध के परिणाम सोचकर बहुत चिंतित था ।उसे लगता था कि अगर पितामह चाहते तो यह युद्ध एक दिन में खत्म कर सकतें थे परंतु वे इस युद्ध में पांडवो को नुकसान पहुंचाना ही नहीं चाहते हैं । कौरवों की ओर से युद्ध करना उनकी मजबूरी है  मन से तो वे पांडवो को ही चाहते हैं । दुर्योधन सायं काल में युद्ध विराम होने के बाद भीष्म पितामह के पास पहुंचा और उन्हें पांडवो का हितैषी कहा । पितामह से बोला -' आप इस युद्ध में प्रकट रूप से भले ही कौरवों के साथ है परंतु आप नहीं चाहते कि कौरवों की विजय हो'। पितामह बोले - 'यह तुम क्या कह रहे हो दुर्योधन । ऐसा  कहकर तुमने मुझपर गंभीर आरोप लगाए हैं ।' दुर्योधन बोला - 'यह सच है पितामह । अगर आप चाहते तो  कौरव सेना यह युद्ध कब का जीत चुकी होती । आपने अभी  तक किसी भयंकर अस्त्र का प्रयोग नहीं किया हैं।' पितामह बोले -'ठीक है ! कल मैं पांच चमत्कारी तीरों का

किन्नरों के देवता इरावन

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                      अर्जुन और उलूपी के पुत्र का नाम  इरावन था ।  दक्षिण भारत के तमिलनाडु में इरावन की देवता की तरह पूजा की जाती है विशेषकर किन्नर समाज में एक खास दिन सारे किन्नर इकठ्ठे होकर इरावन से सामुहिक विवाह करते हैं और अगले दिन उन्हें मृत मानकर एक विधवा की तरह विलाप करते हैं । महाभारत के कथनानुसार, महाभारत युद्ध के समय सहदेव जिन्हें त्रिकाल दृष्टि प्राप्त थी ने इरावन को बता दिया था कि अगले दिन उनकी युद्ध में मृत्यु हो जाएगी । अपनी मृत्यु की बात सुनकर भी इरावन नहीं घबराएं तत्पश्चात उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से जाकर विनती की कि वे अविवाहित नहीं मरना चाहते । इतने कम समय में किसी कन्या से इरावन का विवाह कैसे हो सकता था और इसलिए श्रीकृष्ण ने मोहिनी रूप धारण कर इरावन से विवाह किया । अगले दिन युद्ध का आठवां दिन था चूंकि भीष्म पितामह प्रतिज्ञा कर चुके थे कि वे किसी पांडव और उसके पुत्रों का वध नहीं करेंगे और इरावन की मायावी शक्तियों के आगे किसी की नहीं चल रही थी इसलिए मजबूर होकर दुर्योधन को मायावी राक्षस अलम्बुष की मदद लेनी पड़ी जिसने इरावन

अर्जुन और उलूपी

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द्रौपदी  का विवाह पांच पांडव भाइयों से हुुुआ था और नियमानुसार वह एक वर्ष एक ही पति के साथ रहती थी और इस अवधि में किसी और पांडव भाइयों को उसके कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी । अर्जुन की द्रौपदी के साथ रहने की अवधि अभी-अभी खत्म हुई थी और युधिष्ठिर की अवधि शुरू हुई।  ऐसे में एक बार अर्जुन अपने अस्त्र-शस्त्र द्रौपदी के कक्ष में ही भुल गए और उन्हें तत्काल उसकी जरूरत पड़ी एक ब्राह्मण की रक्षा के लिए मजबूरी में अर्जुन को द्रौपदी के कक्ष में जाना पड़ा जहां युधिष्ठिर और द्रौपदी अकेले थे । नियमानुसार अर्जुन को एक वर्ष के लिए राज्य छोड़कर जाना पड़ा । इस एक वर्ष के वनवास के समय अर्जुन तीर्थाटन करते हुए हरिद्वार के पास गंगा पहुंचे । जहां नागकन्या उलूपी से उनका साक्षात्कार हुआ । उलूपी ऐरावत वंश के कौरव्य नामक नाग राजा की पुत्री थी ।   नागकन्या का विवाह एक बाग से हुआ था जिसे गरूड़ ने मार दिया था । अर्जुन को देखते ही वह उसपर मुग्ध हो गई और उसे अपने साथ पाताल लोक ले गई और उससे विवाह का प्रस्ताव रखा । अर्जुन एक वर्ष तक नाग लोक में उलूपी के साथ रहे । दोनों को एक पु

धृतराष्ट्र के पुत्र युयुत्सु

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    महाभारत काल में धृतराष्ट्र चाहते थे कि उन्हेंं पाण्डु से पहले संतान की प्राप्ति हो । गांधारी ॠषि वेदव्यास के वरदान  के बाद गर्भवती हो तो गई थी परंतु इनका गर्भकाल बहुत लंबा हो गया । जिसके कारण पाण्डु के घर में पुत्र का जन्म हुआ । दुसरी ओर धृतराष्ट्र पुत्र पाने की चाहत में व्याकुल हुए जा रहे थे और इस कारण उन्होंने गांधारी की सेवा में नियुक्त एक दासी से संबध बना लिया जिसके फलस्वरूप एक पुत्र का जन्म हुआ । धृतराष्ट्र और दासी का यह पुत्र युयुत्सु के नाम से जाना गया । वही गांधारी दो वर्ष तक गर्भवती रही और उन्हें संतान प्राप्ति नहीं हुई । क्रोध में आकर एक बार गांधारी ने अपने गर्भ में एक मुक्का मारा और गर्भ गिरा दिया । उसी समय यह बात वेदव्यास को पता चलीं और वे तुरंत वहां आकर गांधारी से बोले -'गांधारी यह तूने अच्छा नहीं किया । मेरा वरदान कभी खाली नही जा सकता । तू सौ कुण्ड बनवा और उसे घी से भर ।' तत्काल वेदव्यास जी के आज्ञानुसार सौ कुण्ड बनवाए गए और उसे घी से भरा गया । वेदव्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिण्ड पर अभिमंत्रित जल छिड़क

दुर्योधन की पत्नी भानुमति

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द्वापर युग  में कम्बोज के राजा चन्द्रवर्मा की पुत्री भानुमति  के स्वयंवर का आयोजन किया गया । भानुमति स्वर्ग की अप्सराओं से भी ज्यादा सुंदर थी । इस स्वयवर मे दुर्योधन, कर्ण , जरासंध , शिशुपाल जैसे पराक्रमी राजा भानुमति से विवाह करने की इच्छा लेकर आए थे । जब भानुमति स्वयंवर स्थल पर पूरे साज-श्रृंगार के साथ आई तो सभी राजा राजकुमारों के मुंह खुले के खुले रह गए । ऐसा अप्रतिम सौंदर्य किसी ने नहीं देखा था ।                       जब दुर्योधन ने भानुमति को देखा तो उसका मन मचल उठा और उसने उससे विवाह करने की ठान ली । भानुमति वरमाला लेकर चली । सभी राजाओं के बारे में जानती और आगे बढ़ जाती। जब दुर्योधन के पास पहुंची तो थोड़ी देर वहां रूक कर आगे बढ़ने लगी  । दुर्योधन को लगा कि भानुमति उसे ही अपना वर चुनकर वरमाला डालेगी परंतु ऐसा नहीं हुआ तब दुर्योधन ने जबरदस्ती भानुमति के हाथ से अपने गले में वरमाला डालवा लिया ।                             स्वयंवर में उपस्थित सभी राजाओं ने इसका विरोध किया तब दुर्योधन ने चुनौती दे डाली कि उन्हें उससे पहले कर्ण का सामना करना पडेगा

द्रौपदी का चीरहरण

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द्वापर युग में जब एक समय पांच पांडव भाइयों में से युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ नगर पर राज्य कर रहे थे । दुर्योधन उस समय हस्तिनापुर का राजकुमार था और अपने पिता के बाद राजा बनने वाला था । इतना सब कुछ मिलने के बाद भी उसकी नजर पांडवो पर थी । वह उनका सब कुछ हडप लेना चाहता था । उसके मन में पांडवो के लिए अत्यधिक घृणा थी । एक बार दुर्योधन के मामा शकुनि ने दुर्योधन को यह सलाह दी कि वह पांडवो को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित करे । इसके बाद सब कुछ उसपर छोड़ दें वह पांडवो को ऐसा फंसाऐगा की वह सब कुछ दुर्योधन के हाथों हार बैठेंगे ।               मामा शकुनि के सलाह के पश्चात दुर्योधन ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित किया । जुआ युधिष्ठिर की कमजोरी थी और इसलिए वे मना नहीं कर सके ।  जुआ खेलने के लिए एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया । जिसमें स्वयं राजा धृतराष्ट्र , भीष्म पितामह, महात्मा विदुर , द्रोणाचार्य जैसे महान लोग उपस्थित थे ।            खेल प्रारंभ हुआ । मामा शकुनि ने अपने जदुई पासो का प्रयोग किया और एक एक करके युधिष्ठिर से सब  कुछ छीन  लिया । यहां तक

अंधों का हाथी

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      किसी गांव में चार अंधे रहते थे । उन्होंने गांव में हाथी आने की खबर सुनी । वे रास्ता पूछते-पूछते हाथी तक पहुंचे ।  महावत से बोले - 'भईया ! जरा हाथी को अपने कब्जे में रखना हम चारों टटोलकर देखेंगे ।' महावत ने सोचा इसमें मेरा क्या जाएगा । इन अंधो का मन रह जाएगा । चारों अंधे हर चीज को टटोलकर देखते।  एक ने अपना हाथ बढ़ाया तो हाथी का कान पर पड़ा । वह बोला हाथी सूप की तरह होता है । दूसरे अंधे का हाथ हाथी के पैर पर पड़ा । वह बोला नहीं हाथी खम्भे जैसा होता है । तीसरे का हाथ हाथी के सूढ़ पर पड़ा वह बोला नहीं नहीं हाथी मोटे रस्से जैसा होता है । चौथे अंधे का हाथ हाथी के पेट पर पड़ा । वह बोल उठा तुम सब गलत बोल रहे हो । हाथी तो मशक जैसा होता है । चारों अपनी-अपनी बात पर अड़ गए और लगे झगड़ने । एक समझदार आदमी वहां खड़े-खड़े इनकी बातें सुन रहा था उसने लडाई का बड़ा अच्छा तरीका अपने मन में निकाला कि सभी अपनी-अपनी जगह पर सही है बशर्ते कि उन्हें समझ आ जाए कि उन्होंने हाथी के एक अंग को देखा है पूरे हाथी को नहीं । इसलिए पूरी बात समझ में