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द्रौपदी का चीरहरण

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द्वापर युग में जब एक समय पांच पांडव भाइयों में से युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ नगर पर राज्य कर रहे थे । दुर्योधन उस समय हस्तिनापुर का राजकुमार था और अपने पिता के बाद राजा बनने वाला था । इतना सब कुछ मिलने के बाद भी उसकी नजर पांडवो पर थी । वह उनका सब कुछ हडप लेना चाहता था । उसके मन में पांडवो के लिए अत्यधिक घृणा थी । एक बार दुर्योधन के मामा शकुनि ने दुर्योधन को यह सलाह दी कि वह पांडवो को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित करे । इसके बाद सब कुछ उसपर छोड़ दें वह पांडवो को ऐसा फंसाऐगा की वह सब कुछ दुर्योधन के हाथों हार बैठेंगे ।               मामा शकुनि के सलाह के पश्चात दुर्योधन ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित किया । जुआ युधिष्ठिर की कमजोरी थी और इसलिए वे मना नहीं कर सके ।  जुआ खेलने के लिए एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया । जिसमें स्वयं राजा धृतराष्ट्र , भीष्म पितामह, महात्मा विदुर , द्रोणाचार्य जैसे महान लोग उपस्थित थे ।            खेल प्रारंभ हुआ । मामा शकुनि ने अपने जदुई पासो का प्रयोग किया और एक एक करके युधिष्ठिर से सब  कुछ छीन  लिया । यहां तक

अर्जुन और सुभद्रा का प्रेम विवाह

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द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण और बलराम की इकलौती बहन सुभद्रा  जब विवाह के योग्य हुु ई तो कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी को उसके विवाह की चिंता हुई । वह अपने पति से बोली -' प्रभु ! आपकी लाडली बहन अब जवान हो गई है और इसलिए आपको अब उसके विवाह के बारे में सोचना चाहिए । कोई अच्छा सा वर ढूंढ कर उसका विवाह  कर देना चाहिए । रुक्मिणी की बात सुनकर मधुसूदन मुसकुराते हुए बोले  - 'इसमें चिंता की क्या बात है, सुभद्रा का विवाह हो जाएगा। ' रुक्मिणी (उत्सुकता से ) - यह आप क्या कह रहे हैं । क्या आपको नहीं पता विवाह कराने के लिए एक वर की आवश्यकता पड़ेगी?  मधुसूदन ( मुसकुराते हुए ) - सुभद्रा के लिए वर ढूँढने की आवश्यकता करनी ही नहीं पड़ेगी वर खुद-व-खुद चला आवेगा । तभी कुंती पुत्र अर्जुन के आने की सूचना मिलती है। देवी रुक्मिणी श्रीकृष्ण की तरफ देखकर मुसकुुराती है और उनका इशारा समझती है ।   उधर सुभद्रा अपनी सखियों के साथ रैवतक पर्वत की प्रदक्षिणा करने गई हुई थी ,अर्जुन भी शिकार खेलते हुए उधर जा पहुंचे । वहां पर अर्जुन ने सुभद्रा को देखा और उसकी सुंदरता में मुग्ध हो उससे प्रेम करने लगे ।

एकलव्य / Eklavya

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महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार अभिधुम्न,निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे , जिनकी गुरुभक्ति और अस्त्र-शस्त्रों में एकनिष्ठा के कारण एकलव्य नाम से जाना जाता है । बचपन से ही बालक एकलव्य को धनुर्विद्या में गहरी रूचि थी । उसने धनुर्विद्या की अच्छी शिक्षा प्राप्त भी कर ली परंतु फिर भी उसे संतोष न हुआ और उसे उस समय के सर्वश्रेष्ठ धनुविद्या के आचार्य द्रोणाचार्य से सिखने की प्रबल इच्छा हुई ।                                     एकलव्य ने अपने पिता भीलराज को यह बात बताई कि वह द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सिखने का इच्छुक है ।भीलराज यह बात जानते थे कि आचार्य द्रोणाचार्य उनके पुत्र को शिक्षा कभी नहीं देंगे , फिर भी उन्होंने एकलव्य को मना नहीं किया और उसे लेकर द्रोणाचार्य के पास पहुंचे। ऐसा माना जाता है कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से इसलिए मना कर दिया कि वह एक भील जनजाति से था बल्कि सच तो यह है कि द्रोणाचार्य भीष्म पितामह को दिए वचन कि वे सिर्फ कुरू वंश के राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा देंगे प्रतिबन्धित थे ।          

पांडवो की गुरूदक्षिणा

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गुरु द्रोणाचार्य द्वारा सौ कौरवों और पांच पांडवो की शिक्षा- दीक्षा पूर्ण हुई । अब पांडवो और कौरवों की बारी आती है कि वे अपने गुरु को गुरूदक्षिणा प्रदान करें तत्पश्चात सबने गुरु द्रोणाचार्य से पूछा कि वे गुरूदक्षिणा में क्या लेना चाहते हैं ?                                द्रोणाचार्य पांचाल नरेश द्रुपद द्वारा अपना अपमान नहीं भूले थे । एक बार जब द्रोण अपनी गरीबी से बहुत तंग आ गए थे तो उन्हें अपना बाल-सखा द्रुपद की याद आई जिन्होंने एक बार बाल अवस्था में कहा था कि जब वे राजा बन जाऐंगे तो अपना आधा राज्य द्रोण को दे देंगे । बहुत कष्टों को झेलने के बाद द्रोण अपने मित्र द्रुपद से मिल सके परंतु पांचाल नरेश द्रुपद ने पहले तो उन्हें पहचानने  से भी इंकार कर दिया फिर कहा कि एक राजा और एक गरीब ब्रहाण कभी मित्र नहीं हो सकते और भरी सभा में गुरु द्रोण को अपमानित किया । द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि -" मुझे किसी भी धन संपदा , मूल्यवान वस्त्र आभूषणों की लालसा नहीं है बस मुझे अपने अपमान का प्रतिशोध द्रुपद से लेना है।  अगर मुझे गुरूदक्षिणा ही

कैसे बनें द्रोण आचार्य द्रोणाचार्य

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महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक द्रोणाचार्य,ऋषि भारद्वाज के पुत्र थे।  उनका जन्म एक द्रोण (दोनें) कलश में हुआ था , जिस कारण उनका नाम द्रोणा या द्रोण रखा गया। अपने पिता के आश्रम में रहते हुए ही इन्होंने चारों वेदों की शिक्षा ली और उसमें पारंगत हो गए ।                                              एक बार भगवान परशुराम अपनी सारी संपत्ति ब्राहमणों में दान कर तपस्या करने चले गए। दूर दूर से ब्रहामण उनसे दान लेने के लिए पहुंच रहें थे । द्रोण भी गए। जब वे पहुंचे तो परशुराम जी अपना सब कुछ दान कर चुके थे । उन्होंने द्रोण से  कहा कि- "वत्स! तुमने आने में विलम्ब कर दिया । अब तो मेरे  पास  सिर्फ मेरे अस्त्र-शस्त्र बचे हुए हैं। " द्रोण ने कहा कि - "गुरूदेव  ! मुझे आपके इन अस्त्र-शस्त्रों को पाकर बहुत प्रसन्नता होगी । परंतु आपको मुझे शस्त्र विद्या की शिक्षा देनी होगी ।" और इस प्रकार द्रोण परशुराम जी के शिष्य बनकर अस्त्र - शस्त्र विद्या में भी पारंगत हो गए । वेदों की शिक्षा तो उन्होंने पहले से ही अपने पिता से ले रखी थ

भीष्म प्रतिज्ञा / Bhisma pratigya

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पौराणिक कथा > महाभारत >भीष्म पितामह गंगा पुत्र देवव्रत जिन्हें भीष्म पितामह के नाम पर जाना जाता है अपनी अखंड प्रतिज्ञा और उस प्रतिज्ञा पर आजीवन टिके रहने के कारण ही यह नाम उन्हें दिया गया ।                                                                   हस्तिनापुर के राजा और देवव्रत के पिता शांतनु ने देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया था , तब महाराज शांतनु काफी वृद्घ हो चले थे । एक बार कि बात है , शांतनु विहार के लिए यमुना नदी के किनारे निकले थे।  वहां नौका विहार में उन्हें एक स्त्री मिली जिसे देखकर शांतनु उसपर मोहित हो गए । उन्होंने उस कन्या का परिचय पूछा तो उस कन्या ने अपने आपको एक निषाद कन्या तथा अपना नाम सत्यवती बतलाया । परिचय पाकर शांतनु ने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा जिसपर सत्यवती बोली कि वह उसके पिता से इस बारे में बात करें ।                              मौका देखकर महाराज शांतनु सत्यवती के पिता के पास यह प्रस्ताव लेकर गए । निषादराज हस्तिनापुर के महाराज द्वारा अपनीपुत्री के ल

भीम और राक्षसी हिडिम्बा का विवाह / Bheema aur rakchhashi hidimba ka vivah

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कौरवों द्वारा लाक्षागृह में पांडवो को मार डालने का षडयंत्र रचा गया था जिसके बारे मे पांडवो  को पहले ही पता चल गया और उन्होंने  रातो-रात महल के अंदर सुरंग बना लिया और वहां से निकल गए।  लाक्षागृह षडयंत्र में अपनी जान बचाने के बाद पांचो पांडव और माता कुंती के साथ एक जंगल में पहुंचे । यह जंगल मायावी था और इस जंगल में राक्षसराज हिडिम्ब का राज था ।                                          जब पांडव भाई और कुंती इस जंगल में पहुंचे तो उन सभी को बड़ी प्यास लगी थी फलस्वरूप भीम उन सभी के लिए जल लेने गए और जब लौटे तो देखा कि सभी थककर  सो चुके थे । भीमसेन को इस बात का बड़ा अफसोस हुआ कि वे समय पर जल ला न सके , और वे जागते हुए पहरा देने लगे । उधर राक्षस हिडिम्ब को अपने प्रदेश में अपने राक्षस प्रवृत्ति के कारण मनुष्य के होने की गंध लग गई । उसने अपनी बहन हिडिम्बा को आदेश दिया कि जल्दी से उन लोगों मनुष्यों को उसके पास लाया जाए ।                                हिडिम्बा अपने भाई के आदेश का पालन करने के लिए उसी जगह पहुँच गई जहां माता कुंती सहित चारों पांडव सो रहे थे

शांतनु और गंगा / shantanu aur Ganga

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बात उस समय की है जब हस्तिनापुर के राजा शांतनु थे । एक बार कि बात है, महाराज अकेले शिकार के लिए गए उनके साथ कोई भी सैनिक या मंत्री नहीं था।  वे हिरणों का शिकार करते करते काफी दूर तक निकल पड़े ।                                        अचानक उन्हें गंगा नदी के किनारे सफेद वस्त्र धारण किये एक परम सुंदरी घूमती हुई दिखाई पड़ी । महाराज शांतनु का ध्यान उस ओर गया तो वे भूल गए कि वह हिरणों का शिकार करने आए थे और एकटक उस युवती को निहारने लगते हैं । धीरे-धीरे वे उस युवती के नजदीक आ जाते हैं जिससे उस युवती का ध्यान शांतनु की ओर जाता है जो अब तक उनकी उपस्थिति से अनजान अपने विचारों में ही लीन थी ।                             जब युवती ने अपने सामने एक राजपुरूष को खुद को ऐसे निहारते हुए देखा तो संकोच से वहां से जाने लगी । तभी महाराज शांतनु ने पीछे से कहा - 'संकोच न करें देवी! मैं हस्तिनापुर का राजा शांतनु हूँ और इस वन में शिकार करने आया था पंरतु आपको देखकर मेरा ध्यान नहीं लगा और मैं आपके समीप चला आया । ' युवती बिना कुछ बोले वहां से जाने लगी पंरतु