वेताल पच्चीसी - उन्नीसवीं कहानी | विक्रम वेताल की कहानी
वेताल पच्चीसी - उन्नीसवीं कहानी | विक्रम वेताल की कहानी
वक्रोलक नामक नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा राज्य करता था । उसके कोई संतान न थी । उसी समय मे एक दूसरे नगर में धनपाल नाम का एक साहूकार रहता था । उसकी स्त्री का नाम हिरण्यवती और पुत्री का नाम धनवती था । जब धनवती बड़ी हुई तो धनपाल मर गया और उसके नाते रिश्तेदारों ने उसका धन ले लिया । हिरण्यवती अपनी लड़की को लेकर रात के समय नगर छोड़कर चल दी । रास्ते में उसे एक चोर सूली पर लटकता हुआ मिला । वह मरा नहीं था । हिरण्यवती को देखकर उसने अपना परिचय दिया और कहा - " मैं तुम्हें एक हजार अशर्फीयाँ दूंगा । तुम अपनी लड़की का विवाह मुझसे कर दो ।"
हिरण्यवती ने कहा - तुम तो मरने वाले हो ।
चोर बोला - मेरे कोई पुत्र नही है और निपूते की परलोक में सदगति नहीं होती । अगर मेरी आज्ञा से इसे किसी ओर से भी पुत्र हो जाए तो मेरी सदगति हो जाएगी ।
हिरण्यवती ने लोभ के वश होकर उसकी बात मान ली और अपनी लड़की का ब्याह उसके साथ कर दिया ।
चोर बोला - इस बड़ के पेड़ के नीचे अशर्फीयाँ गड़ी हैं , सो ले लेना और मेरे प्राण निकलने पर मेरा क्रिया-कर्म करके तुम अपने लड़की के साथ अपने नगर को लौट जाना ।
इतना कहकर चोर मर गया । हिरण्यवती ने जमीन खोदकर अशर्फीयाँ निकाली , चोर का क्रिया-कर्म किया और अपने नगर को लौट गई ।
उसी नगर में वसुदत्त नामक एक गुरू था , जिसके मनस्वामी नामक एक शिष्य था । वह शिष्य एक वेश्या से प्रेम करता था । वेश्या उससे पांच सौ अशर्फीयाँ मांगती थी । वह कहां से लाकर देता । संयोग से धनवती ने मनस्वामी को देखा और वह उसे चाहने लगी । उसने अपनी दासी को उसके पास भेजा । मनस्वामी ने कहा कि अगर मुझे पांच सौ अशर्फीयाँ मिल जाए तो मैं एक रात धनवती के साथ रह सकता हूँ ।
हिरण्यवती राजी हो गई । उसने मनस्वामी को पांच सौ अशर्फीयाँ दे दी । बाद में धनवती को एक पुत्र की प्राप्ति हुई । उसी रात शिवाजी ने सपने में उसे दर्शन देकर कहा - " तुम इस बालक को हजार अशर्फीयों के साथ राजा के महल के दरवाजे पर रख आओं ।"
माँ-बेटी ने ऐसा ही किया । उधर शिवाजी ने राजा को भी सपने में दर्शन देकर कहा - "तुम्हारे द्वार पर किसी ने धन के साथ लड़का रख दिया है , उसे ग्रहण करो ।"
राजा ने अपने नौकरों को भेजकर बालक और धन को मंगवा लिया । बालक का नाम उसने चन्द्रप्रभ रखा । जब वह लड़का बड़ा हुआ तो उसे गद्दी सौंपकर राजा काशी चला गया और कुछ दिनों बाद मर गया ।
पिता के ऋण से उऋण होने के लिए चन्द्रप्रभ तीर्थं करने के लिए निकला । जब वह घूमते हुए गयाकूप पहुंचा और पिण्डदान किया तो उसमें से तीन हाथ एकसाथ निकले । चन्द्रप्रभ ने चकित होकर ब्राह्मणों से पूछा कि किसे पिण्ड दू ?
उन्होंने कहा - लोहे की कीलवाला चोर का हाथ है , पवित्रीवाला ब्राह्मण का और अंगूठीवाला राजा का । आप तय करों कि किसको देना है ?
इतना कहकर वेताल बोला - राजन् तुम बताओ कि उसे किसे पिण्ड देना चाहिए ?
राजा ने कहा - चोर को , क्योंकि उसी का वह पुत्र है । मनस्वामी इसलिए पिता नही हो सकता क्योंकि वह एक रात के लिए खरीदा हुआ था । राजा उसका पिता इसलिए नही हो सकता क्योंकि उसे पालने के लिए धन मिला था । इसलिए चोर ही पिण्ड का अधिकारी है ।
इतना सुनकर वेताल फिर से पेड़ पर जा लटका । राजा उसे पुनः लेकर चला तो उसने एक कहानी सुनाई ।
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