राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 9 / Stories of Raja Vikramaditya 9
सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ
नौवीं पुतली मधुमालती ने कहना आरंभ किया -
एक बार राजा विक्रमादित्य ने यज्ञ करवाया । दूर-दूर से राजा-महाराजा , ब्राह्मण , सेठ-साहूकार आए। यज्ञ होने लगा । यज्ञ में एक ऐसा ब्राह्मण भी आया जो मन की बात जान लेता था ।
उसने राजा को आशीर्वाद दिया - हें राजन् ! तुम चिंरजीवी हो ।
जब मंत्र पूरे हुए तो राजा ने कहा - हे ब्राह्मण! आपने बिना दण्डवत के आशीर्वाद दिया यह ठीक नहीं किया -
जब तग पांव न लागे कोई ।
शाप समान वह आशिष होई ।।
ब्राह्मण ने कहा - राजन् ! जब तुमने मन-ही-मन दण्डवत किया तभी मैंने आशिष दिया।
यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और ब्राह्मण को बहुत सारा धन दिया ।
ब्राह्मण बोला - इतना तो दीजिये जिससे मेरा काम चले ।
इस बार राजा विक्रमादित्य ने उसे अत्यंत धन दिया । यज्ञ में राजा ने खुले हाथ से दान किया ।
इतना कहकर पुतली बोली - राजन् तुम इस सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हो । शेर की बराबरी सियार नहीं कर सकता । हंस की बराबरी कौआ नहीं कर सकता है उसी प्रकार तुम विक्रमादित्य की बराबरी नहीं कर सकते हो । इस सिंहासन पर बैठने का विचार त्याग दो ।
राजा भोज नहीं माने अगले दिन फिर उन्होंने सिंहासन पर बैठने की कोशिश की तो दसवीं पुतली प्रभावती ने उन्हें रोक दिया और अपनी कहानी सुनाने लगी ।
दसवीं पुतली प्रभावती की कहानी अगले पोस्ट में पढें -
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