राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 5 / Stories of Raja Vikramaditya 5
सिंहासन बत्तीसी की कहानी
पांचवी पुतली लीलावती ने कहना प्रारंभ किया -
एक बार दो आदमी आपस में झगड़ रहे थे । एक कहता था कि तकदीर बड़ी है दूसरा कहता था कि पुरुषार्थ बड़ा है । जब किसी तरह मामला न निपटा तो उन्हें इन्द्र के पास जाना पड़ा । इन्द्र ने उन्हें विक्रमादित्य के पास भेज दिया । राजा ने उनकी बात सुनी और कहा छः महीने बाद आना । इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने किया कि खुद भेष बदल कर निकल पड़ा देखने कि तकदीर और पुरुषार्थ में कौन बड़ा है । घूमते-घूमते उसे एक नगर मिला । विक्रमादित्य उस नगर के राजा के पास पहुंचा और एक लाख रुपये रोज पर नौकर हो गया । उसने वचन दिया कि जो काम कोई और नहीं कर सकता वह काम वह करेगा । एक बार कि बात है , उस नगर का राजा बहुत सारा सामान जहाज पर लादकर किसी देश को गया । विक्रमादित्य साथ में था । अचानक बड़े जोर का तूफान आया । राजा ने लंगर डलवाकर जहाज खड़ा कर दिया । जब तूफान थम गया तो लंगर उठाने के लिए कहा लेकिन लंगर उठा ही नहीं ।
इस पर राजा ने विक्रमादित्य से कहा - अब तुम्हारी बारी है ।
विक्रमादित्य नीचे उतरकर गया और भाग्य कि बात है उसके हाथ लगते ही लंगर उठ गया , लेकिन उसके चढ़ने से पहले ही जहाज पानी और हवा की तेजी से चल पड़ा ।
विक्रमादित्य बहते-बहते किनारे लग गया । उसे एक नगर दिखाई पड़ा । जैसे ही वह नगर में प्रवेश किया देखा कि चौखट पर लिखा है कि यहां कि राजकुमारी सिंहवती का विवाह विक्रमादित्य के साथ होगा । राजा को बड़ा अचरज हुआ । वह महल में गया। अंदर सिंहवती पलंग पर सो रही थी । विक्रमादित्य वही बैठ गया । उसने उसे जगाया । वह उठ बैठी और विक्रमादित्य का हाथ पकड़कर दोनों सिंहासन पर जा बैठे । उनका विवाह हो गया ।
उन्हें वहां रहते-रहते काफी दिन हो गए । एक दिन
विक्रमादित्य को अपने नगर लौटने का विचार आया और वह अस्तबल से एक तेज घोड़ी लेकर रवाना हो गया । वह अवन्ती नगर पहुंचा । वहां नदी के किनारे एक साधु बैठा था । उसने राजा को एक फूल की माला दी और कहा - इसे पहनकर तुम जहाँ जाओगे तुम्हें विजय मिलेगी । दूसरे इसे पहनकर तुम सबको देख सकोगे , तुम्हें कोई नहीं देख सकेगा । उसने एक छड़ी भी दी । उसमें यह भी गुण था कि रात को सोने से पहले जो भी जडाऊ गहना उससे मांगा जाता , वही मिल जाता ।
दोनों चीजों को लेकर राजा अपने नगर उज्जैन के पास पहुंचा । वहां उसे एक ब्राह्मण और एक भाट मिलें ।
उन्होंने राजा से कहा - हे राजन्! हम इतने दिनों से तुम्हारे द्वार पर सेवा कर रहे हैं , फिर भी हमें कुछ नहीं मिला । यह सुनकर राजा ने ब्राह्मण को छड़ी दे दी और भाट को माला । उनके गुण भी बता दिया । इसके बाद राजा विक्रमादित्य अपने महल चले गए ।
छः महीने बीत चुके थे , सो वही दो आदमी आए , जिनमें भाग्य और पुरुषार्थ को लेकर झगड़ा हुआ था । राजा ने उनकी बात का जवाब देते हुए कहा - सुनो भाई दुनिया में पुरुषार्थ के बिना कुछ नहीं हो सकता है । लेकिन भाग्य भी बड़ी बला है । दोनों की बात रह गई । वे दोनों खुशी-खुशी अपने घर चले गए ।
इतना कहकर पुतली बोली - सुनो राजन् अगर तुम विक्रमादित्य जैसे हो तो सिंहासन पर बैठो।
उस दिन का भी मुहूर्त निकल गया और राजा भोज सिंहासन पर नहीं बैठ सका । अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़े तो रविभामा नाम की छठी पुतली ने उसे रोक लिया और अपनी कहानी सुनाई ।
छठी पुतली रविभामा की कहानी पढें अगले पोस्ट में :
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