राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 4 / Stories of Raja Vikramaditya 4
सिंहासन बत्तीसी की कहानी
चौथी पुतली कामकंदला ने कहना शुरू किया -
राजा विक्रमादित्य ने एक बार बड़ा ही आलीशान महल बनवाया । उसमें कई जवाहरात जड़े थे तो सोने और चांदी का काम हो रहा था । उसके द्वार पर नीलम के दो बड़े-बड़े नगीने लगे थे , जिससे किसी की नजर न लगे । उसमें सात खण्ड थे । उसे तैयार होने में बरसों लगें । जब वह तैयार हो गया तो दीवान ने जाकर राजा को खबर दी। एक ब्राह्मण को साथ लेकर राजा उसे देखने गया ।
महल को देखकर ब्राह्मण बोला - राजन् इसे मुझे दान में दे दो ।
ब्राह्मण का इतना कहना था कि राजा विक्रमादित्य ने तुरंत उसे वह महल दान कर दिया । ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ और अपने कुनबे के साथ वहां रहने लगा ।
एक रात को लक्ष्मी जी वहां आई और पूछा - मैं कहाँ गिरूं?
ब्राह्मण ने समझा कोई भूत हैं वह वहां से भागा और राजा के पास पहुंच कर सब हाल कह सुनाया ।
राजा ने दीवान को बुलाकर कहा - महल का जितना मूल्य है, वह ब्राह्मण को दे दो ।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य स्वयं जाकर महल में रहने लगा । रात को लक्ष्मी जी आई और फिर वही सवाल पूछा । राजा ने तत्काल उत्तर दिया कि मेरे पलंग को छोड़कर जहां चाहों गिर पडो । राजा के इतना कहते ही सारे नगर पर सोना बरसा । सवेरे दीवान ने खबर दी तो राजा ने ढ़िढ़ोरा पिटवा दिया कि जिसकी हद में जितना सोना हो वह ले ले ।
इतना कहकर पुतली बोली - महाराज! इतना था राजा विक्रमादित्य प्रजा का हितकारी तुम किस प्रकार उसके सिंहासन पर बैठने की हिम्मत करते हो ?
वह पुतली भी निकल गई । अगले दिन फिर जब राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ा कि पांचवी पुतली लीलावती बोली - " राजन् ! ठहरों पहले मुझसे विक्रमादित्य के गुण सुन लो ।"
पांचवी पुतली लीलावती की कहानी अगले पोस्ट में पढें :
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