चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य का जीवन / Chakarvarti Raja Vikramaditya ka Jivan
विक्रमादित्य परमार वंश के उज्जयिनी के राजा थे, जो अपने ज्ञान , वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे । 'विक्रमादित्य' की उपाधि बाद में बहुत से राजाओ ने ली थी जिसमें से प्रमुख थे - चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य । विक्रमादित्य नाम विक्रम और आदित्य से मिलकर बना है , जिसका अर्थ होता है 'पराक्रम का सूर्य' ।
राजा विक्रमादित्य का जन्म और जीवन ( Life history of Raja vikramaditya)
राजा विक्रमादित्य के जन्म को लेकर विभिन्न मान्यताएं हैं परंतु फिर भी माना जाता है कि उनका जन्म 102 ई. पूर्व से आसपास हुआ । ऐसा माना जाता है कि विक्रमादित्य का जन्म भगवान भोलेनाथ के वरदान से हुआ था । भोलेनाथ ने उनका नामकरण जन्म से पूर्व ही कर दिया था , ऐसी मान्यता है । राजा विक्रमादित्य ने आजीवन अन्याय का पक्ष नहीं लिया । पिता द्वारा युवराज घोषित कर दिए जाने पर भी उन्होंने इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस पद पर उनके ज्येष्ठ भ्राता भर्तृहरि का अधिकार समझते थे । इसे उनके पिता ने अपनी अवज्ञा समझा और वे क्रोधित हो उठे परंतु न्यायप्रिय विक्रमादित्य अपने निश्चय पर अडिग रहे । इससे पता चलता है कि विक्रम न्याय के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकते थे ।
अपने ज्येष्ठ भ्राता भर्तृहरि के साथ हुए विश्वासघात ने विक्रमादित्य पर भी प्रभाव डाला । भर्तृहरि अपनी रानी से बहुत प्रेम करते थे , उनसे मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य की ओर आकर्षित किया । वे सन्यासी हो गए । तत्पश्चात राजा विक्रमादित्य को राज्यभार संभालना पड़ा । विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठते ही उज्जयिनी का राजसिंहासन न्याय का पर्याय बन गया । राजा विक्रमादित्य का सिंहासन जो बाद में राजा भोज को मिला था , वह सिंहासन राजा विक्रमादित्य को इन्द्र देव ने प्रदान किया था , जिसमें स्वर्ग की 32 श्रापित अप्सराएँ पुतलियों के रूप में स्थित थी और जिन्होंने अत्यंत निकट से विक्रमादित्य की न्याय निष्ठा देखी ।
उस समय सनातन धर्म लगभग खत्म होने को था क्योंकि लगभग सभी राजाओं ने बौद्ध और जैन धर्म को मान लिया था । रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ खो गए थे, राजा विक्रमादित्य ने उनकी फिर से खोज करवाई और पुनः स्थापित किया । विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक कालिदास ने "अभिज्ञान शंकुतलम्" की रचना की जिसमे हमारा इतिहास है ।
राजा विक्रमादित्य ने सिर्फ़ धर्म की ही रक्षा न की बल्कि भारत को सोने की चिड़िया बनाया , उनके राज्यकाल को भारत का स्वर्णिम काल कहा जाता है । उनके शासनकाल में सोने के सिक्के चलते थे । प्रजा सुखी और संपन्न थी । राम राज के बाद उनके राज्यकाल को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ।
विक्रमादित्य से जुड़ी कहानियाँ ( stories of Raja vikramaditya)
पिशाच की कहानियों में बेताल , पच्चीस कहानियाँ सुनाता है , जिसमे राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है, वह राजा को उलझण भरी कहानी सुनाता है और उनका अंत राजा के सामने एक प्रश्न के साथ करता है । वस्तुतः एक साधु राजा से बेताल को लाने के लिए भेजते हैं , परंतु उसे बस एक ही स्थिति में लाया जा सकता है - चुप रहकर । वह अगर कुछ बोलते तो वह पिशाच वापस उड़ कर अपनी जगह चला जाता था । इन कहानियों को कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता हैं ।
सिंहासन बत्तीसी की कथा - विक्रमादित्य का सिंहासन और राजा भोज
यह कथा राजा विक्रमादित्य के सिंहासन से जुड़े हुए हैं , जो खो गया है और कई सदियों बाद धार के राजा भोज द्वारा बरामद किया गया । राजा भोज भी बहुत प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है । इस सिंहासन मे बत्तीस पुतलियाँ लगी थी , जो बोल सकतीं थी और राजा भोज को विक्रमादित्य के गुणों की एक कथा सुनाकर चुनौती देती हैं कि अगर आपमें ऐसे गुण हैं तो ही आप इस सिंहासन पर बैठने के लायक है । अंत में पुतलियाँ राजा भोज की विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं ।
राजा विक्रमादित्य और शनि देव की कथा भी पढ़े :- कथा शनि देव की / Katha Shani Dev ki
विक्रमादित्य के नौ रत्न ( Navratna of Raja vikramaditya)
राजा विक्रमादित्य के दरबार में धनवंतरि , क्षपनक , अमरसिंह , शंकु, खटकरपारा , कालिदास , वेतालभट्ट , वररुचि और वराहमिहिर नौ रत्न थे । ये विद्वान उनके राजदरबार की शोभा थे । कालिदास उस समय के प्रसिद्ध संस्कृत भाषा के कवि , वराहमिहिर प्रमुख ज्योतिषी थे। वेतालभट्ट प्रमुख धर्माचार्य थे ।
विक्रम संवत् पंचाग :-
हिन्दू धर्म का प्रमुख पंचाग है विक्रम संवत् , यह अति प्राचीन भी है । ऐसा माना जाता है कि ईसा पूर्व 56 में शकों पर अपनी जीत के बाद राजा विक्रमादित्य ने इसकी शुरुआत की थी ।
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