राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ / Raja Vikramaditya Ki Kahaniya
सिंहासन बत्तीसी
पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी -
अंबावती राज्य में गंधर्वसेन नामक राजा राज्य करता था । उसके चार रानियां थी एक ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र । ब्राह्मण रानी से उसे एक पुत्र ब्रह्मणीत था । क्षत्रिय रानी से शंख , विक्रमादित्य और भर्तृहरि नामक तीन पुत्र हुए । वैश्य से एक पुत्र हुआ जिसका नाम चन्द्र रखा गया और शुद्र से धनवंतरि नामक पुत्र हुआ । पहले पुत्र ने अपने पिता गंधर्वसेन को मारकर राज्य हडप लिया और अपनी राजधानी उज्जैनी को बनाया परंतु गद्दी में बैठते ही उसकी मृत्यु हो गई तत्पश्चात शंख गद्दी पर बैठा । कुछ समय पश्चात विक्रमादित्य ने शंख को मरवा डाला और खुद गद्दी पर बैठा ।
एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलने गया और बहुत आगे बढ़ गया । घने जंगल में उसने चारों ओर देखा कहीं कोई नजर नहीं आया । राजा विक्रमादित्य पेड़ पर चढ़ गया और चारों तरफ देखा । उसे एक बहुत बड़ा नगर दिखाई पड़ा । अगले दिन राजा अपने नगर लौटा और वहां उसने अपने दरबारियों को उस नगर के बारे में बताया तो पता चला कि वहां बाहुबल नाम का राजा राज्य करता है, आपके पिता राजा गंधर्वसेन उसके दिवान थे । एक बार राजा को दीवान पर अविश्वास हो गया और उसने उसे अपने राज्य से निकलवा दिया तब गंधर्वसेन अंबावती आए और यहां के राजा हुए । महाराज आपको तो सभी जानते हैं परंतु अगर बाहुबल आपका राजतिलक कर दे तो आपका राज अचल हो जाएगा । आप उसके पास जाए और उसका ह्रदय जीत कर उससे राजतिलक करवा लें ।
राजा विक्रमादित्य बाहुबल के पास गए । बाहुबल ने भी राजा विक्रमादित्य का बहुत स्वागत सत्कार किया । जब विक्रमादित्य बाहुबल के महल से विदा होने लगें तो उन्होंने बाहुबल से उनका सिंहासन जो इन्द्र ने दिया था मांग लिया । बाहुबल ने अतिथि की इच्छा पूर्ण की और उन्हें अपना रत्नजडित सिंहासन विक्रमादित्य को दे दिया तथा उनका राजतिलक बड़ी प्रसन्नता के साथ किया ।
जब राजा विक्रमादित्य अपने नगर उज्जयिनी पहुंचे तो उनका यश दूर-दूर तक फैल गया । अनेकों राजा विक्रमादित्य से मिलने आने लगे । उनकी प्रजा भी उनसे प्रसन्न और संतुष्ट हुई। इस प्रकार राजा विक्रमादित्य सुख - चैन से राज्य करने लगे ।
एक दिन राजा विक्रमादित्य को एक अनुष्ठान करने की इच्छा हुई । उन्होंने सभी पंडितों को बुलाया और पूछा कि क्या मैं यह अनुष्ठान करने के लायक हूँ । पंडितों ने कहा कि - महाराज आपकी कीर्ति पूरे संसार में फैली हुई है आपका कोई शत्रु नहीं हैं । आपकी जो इच्छा है वहीं करें। पंडितों ने फिर से कहा कि अपने कुनबे के सभी लोगों को बुलवाये , सवा लाख कन्यादान और सवा लाख गाये दान करिए । ब्राह्मणों को दान दीजिए और जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिये । राजा विक्रमादित्य ने ऐसा ही किया । उसने अपना अनुष्ठान ऐसे पूर्ण किया कि सभी लोग धन-धान्य से परिपूर्ण हो गए ।
इतना कहकर पुतली रत्नमंजरी राजा भोज से बोली - हे राजन् ! अदि आपमें ऐसे गुण हैं तो ही आप इस सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं ।
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