राजा विक्रमादित्य की कहानियाँ 2 / Raja Vikramaditya Ki Kahaniya 2
सिंहासन बत्तीसी
दूसरी पुतली चित्रलेखा की कहानी -
एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधना की हुई । अपना राजपाट वे अपने भ्राता भर्तृहरि को सौंप कर जंगल चले गए ।
उसी जंगल में एक ब्राह्मण भी तप कर रहा था । एक बार देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे एक फल दिया , जिसे खाकर मनुष्य अमर हो जाता है। ब्राह्मण ने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया । उसकी पत्नी ने कहा यह फल मेरे किस काम का इसे राजा को दे दीजिये और कुछ धन ले आइये । ब्राह्मण ने ऐसा ही किया और वह फल राजा को दे दिया ।
राजा भर्तृहरि अपनी रानी से बहुत प्रेम करते थे अतः उन्होंने वह फल अपनी रानी को दे दिया । रानी का संबध नगर के कोतवाल से था उसने कोतवाल को दे दिया । वह कोतवाल एक वेश्या के पास जाता था अतः कोतवाल ने वह फल वेश्या को दे दिया ।
वेश्या ने सोचा कि मैं अमर होके क्या हमेशा पाप ही करतीं रहूंगी अतः यह फल राजा को देना बेहतर है । उसने वह फल राजा को जाकर दे दिया । राजा भर्तृहरि वह फल देखकर चकित रह गए । उन्हें सब भेद पता चल गया । वे अपनी प्रिय रानी का विश्वासघात सह न सके और सबकुछ छोडक़र तपस्वी बन गए ।
राजा इन्द्र को जब पता चला तो उन्होंने सिंहासन की रखवाली के लिए एक देवता को भेज दिया ।
उधर जब राजा विक्रमादित्य का योग साधना पूरी हुई तो वे अपने नगर लौट आए परंतु देव ने उन्हें विक्रमादित्य मानने से इनकार कर दिया । देव बोला - अगर तुम विक्रमादित्य हो तो मुझसे लड़ना होगा ।
दोनों में लडाई हुई और विक्रमादित्य ने देव को हरा दिया ।
देव राजा विक्रमादित्य से बोला- मुझे छोड़ दो , मैं तो तुम्हारी रक्षा करना चाहता हूँ ।
राजा विक्रमादित्य - कैसे ?
देव - इस नगर का एक तेली और एक कुम्हार तुम्हारी हत्या करना चाहते हैं। तेली पाताल में राज्य करता है और कुम्हार तांत्रिक बन गया है।
तांत्रिक ने तेली को अपने वश में कर लिया है । और वह एक पेड़ मे रहता है । एक दिन तांत्रिक तुम्हें बुलाकर छल से मारना चाहेगा । वह जब देवी काली को दंडवत प्रणाम करने को कहे तो कहना मैं राजा हूँ और दंडवत प्रणाम करना नहीं जानता , तुम बताओ कैसे करू? वह जैसे ही तुम्हें बताने के लिए दंडवत होकर झुके तुम उसका सिर खांडे से काट देना । फिर उसे और तेली को देवी के आगे खौलते तेल में डाल देना ।
राजा विक्रमादित्य ने ठीक वैसा ही किया । देवी उनसे बहुत प्रसन्न हुई और दो वीरों को वरदान स्वरुप राजा विक्रमादित्य को दिया । उन्हें लेकर विक्रमादित्य उज्जयिनी नगरी पहुंचे और सुखपूर्वक राज्य करने लगे। वे दोनों वीर राजा के बस में रहे और उनकी मदद से राजा ने बड़े बड़े काम दिया है ।
इतना कहकर दूसरी पुतली चित्रलेखा बोली - हे राजन् ! अदि आपमें ऐसे गुण हैं तो ही आप इस सिंहासन पर बैठने के लायक है ।
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