रक्तबीज का संहार / Raktabij ka sanhar
पौराणिक कथा > दुर्गा सप्तसति >रक्तबीज >देवी काली
एक बार शुम्भ-निशुम्भ नामक राक्षसों ने पृथ्वी पर प्रलय मचा
रखा था , धीरे-धीरे उन्होंने स्वर्ग को भी जीत लिया और वहां
भी अपनी विनाश लीला मचा रखी थी फलस्वरूप देवता
स्वर्ग से निष्कासित हुए । सभी देवता दुखी होकर जगतजननी
माँ जगदंबा की शरण में गए और माता को अपनी व्यथा
कह सुनाई। देवताओं को इस समस्या से मुक्त कराने का
आश्वासन देकर देवी दुर्गा सिंह पर सवार हो हिमालय के
शिखर पर पहुंची ।
शुम्भ-निशुम्भ के दो राक्षसों चण्ड-मुण्ड
ने जब देवी को देखा तो इसकी जानकारी अपने स्वामियों
को दी । देवी की सुंदरता का वर्णन कर कहा , वह कन्या
आपके योग्य है और इसलिए आप उसका वरण करे।
चण्ड-मुण्ड की बात सुनकर शुम्भ-निशुम्भ ने देवी को लाने
के लिए सुग्रीव नामक असुर को भेजा । देवी ने दूत से कहा
कि मैं सिर्फ उसी का वरण करूंगी जो मुझे युद्ध में हरा देगा ।
जब दूत ने यह बात अपने स्वामियों को बताई तो दोनों असुर
क्रोध से फडफडा उठे और धूम्राक्ष नामक राक्षस को भेजा
देवी दुर्गा को लाने परंतु देवी ने धूम्राक्ष असुर को अपनी एक
"हम्म " से भस्म कर दिया, जिसे देख सारे असुर भाग खड़े
हुए।
क्रोध से पागल असुरों के राजा शुम्भ-निशुम्भ ने अब
अपने शक्तिशाली असुरों चण्ड-मुण्ड को देवी से युद्ध के
लिए भेजा । चण्ड-मुण्ड का वध कर देवी दुर्गा "चामुंडा "
कहलाई ।
जब देवी जगदंबा एक एक कर सारे असुरों का नाश करने
लगती है तब आगमन होता है , " रक्तबीज " का जिसके
हर एक बूँद ख़ून से एक नए असुर का जन्म होता है और वह
रक्तबीज जितना ही शक्तिशाली होता है।
रक्तबीज असुरों को धिक्कारता
है कि वे एक स्त्री से भयभीत हो गए । और खुद युद्ध के
मैदान में पहुंच जाता है । देवी उसका सर काट देती है परंतु
अपने वरदान के कारण वह फिर से जीवित हो उठता है
और जब भी उसके शरीर से एक भी बूँद ख़ून गिरता है
और एक रक्तबीज पैदा हो जाता है। असंख्य रक्तबीज एक
साथ पैदा होने लगे । उसी समय देवी चामुंडा के क्रोध से
"देवी काली" अवतरित होती हैं।
देवी काली का रूप इतना भयंकर था कि साक्षात काल भी
उन्हें देख ले तो डर से कांपने लगे । देवी चामुंडा ने
देवी काली से कहा कि तुम इस असुर की हर एक बूँद रक्त
का पान कर लो ताकि कोई दूसरा रक्तबीज पैदा ही नहीं हो
सके । देवी काली ने रक्तबीज का सर काट कर उसे
खप्पर में रख लिया ताकि उसकी एक बूँद भी जमीन पर
न गिरे और उसके रक्त का पान किया । जितने भी असुर
रक्तबीज पैदा होते जाते उनकी जिह्वा पर देवी उनको खाती
जाती ।
और इस प्रकार अंत हुआ रक्तबीज और उसके रक्त
का ।
एक बार शुम्भ-निशुम्भ नामक राक्षसों ने पृथ्वी पर प्रलय मचा
रखा था , धीरे-धीरे उन्होंने स्वर्ग को भी जीत लिया और वहां
भी अपनी विनाश लीला मचा रखी थी फलस्वरूप देवता
स्वर्ग से निष्कासित हुए । सभी देवता दुखी होकर जगतजननी
माँ जगदंबा की शरण में गए और माता को अपनी व्यथा
कह सुनाई। देवताओं को इस समस्या से मुक्त कराने का
आश्वासन देकर देवी दुर्गा सिंह पर सवार हो हिमालय के
शिखर पर पहुंची ।
शुम्भ-निशुम्भ के दो राक्षसों चण्ड-मुण्ड
ने जब देवी को देखा तो इसकी जानकारी अपने स्वामियों
को दी । देवी की सुंदरता का वर्णन कर कहा , वह कन्या
आपके योग्य है और इसलिए आप उसका वरण करे।
चण्ड-मुण्ड की बात सुनकर शुम्भ-निशुम्भ ने देवी को लाने
के लिए सुग्रीव नामक असुर को भेजा । देवी ने दूत से कहा
कि मैं सिर्फ उसी का वरण करूंगी जो मुझे युद्ध में हरा देगा ।
जब दूत ने यह बात अपने स्वामियों को बताई तो दोनों असुर
क्रोध से फडफडा उठे और धूम्राक्ष नामक राक्षस को भेजा
देवी दुर्गा को लाने परंतु देवी ने धूम्राक्ष असुर को अपनी एक
"हम्म " से भस्म कर दिया, जिसे देख सारे असुर भाग खड़े
हुए।
क्रोध से पागल असुरों के राजा शुम्भ-निशुम्भ ने अब
अपने शक्तिशाली असुरों चण्ड-मुण्ड को देवी से युद्ध के
लिए भेजा । चण्ड-मुण्ड का वध कर देवी दुर्गा "चामुंडा "
कहलाई ।
जब देवी जगदंबा एक एक कर सारे असुरों का नाश करने
लगती है तब आगमन होता है , " रक्तबीज " का जिसके
हर एक बूँद ख़ून से एक नए असुर का जन्म होता है और वह
रक्तबीज जितना ही शक्तिशाली होता है।
रक्तबीज असुरों को धिक्कारता
है कि वे एक स्त्री से भयभीत हो गए । और खुद युद्ध के
मैदान में पहुंच जाता है । देवी उसका सर काट देती है परंतु
अपने वरदान के कारण वह फिर से जीवित हो उठता है
और जब भी उसके शरीर से एक भी बूँद ख़ून गिरता है
और एक रक्तबीज पैदा हो जाता है। असंख्य रक्तबीज एक
साथ पैदा होने लगे । उसी समय देवी चामुंडा के क्रोध से
"देवी काली" अवतरित होती हैं।
देवी काली का रूप इतना भयंकर था कि साक्षात काल भी
उन्हें देख ले तो डर से कांपने लगे । देवी चामुंडा ने
देवी काली से कहा कि तुम इस असुर की हर एक बूँद रक्त
का पान कर लो ताकि कोई दूसरा रक्तबीज पैदा ही नहीं हो
सके । देवी काली ने रक्तबीज का सर काट कर उसे
खप्पर में रख लिया ताकि उसकी एक बूँद भी जमीन पर
न गिरे और उसके रक्त का पान किया । जितने भी असुर
रक्तबीज पैदा होते जाते उनकी जिह्वा पर देवी उनको खाती
जाती ।
और इस प्रकार अंत हुआ रक्तबीज और उसके रक्त
का ।
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