जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा / Jivitputrika varath ki katha
Jivitputrika varath katha in hindi:-
किसी समय की बात है, नर्मदा नदी के किनारे बसा हुआ एक नगर था। नर्मदा के पश्चिम दिशा की ओर एक भयानक शमशान घाट हुआ करता था ।
इसी शमशान घाट के एक विशाल पाकड के वृक्ष में एक चील और एक सियारिन रहा करते थे। दोनों में सगी बहनों सी मित्रता हुआ करती थी।
एक बार कि बात है चील और सियारिन के मन में सामान्य औरतों की तरह अपने संतानों के लिए उपवास रखने की इच्छा जागी। नियमानुसार चील और सियारिन दोनों ने जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत रखा ।
संयोगवश उसी दिन नगर के एक व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसे उसी शमशान में जलाने के लिए लाया गया । वह रात बहुत ही भयंकर थी। चारों ओर भयानक आंधी तूफान चल रही थी और भयानक बिजली कड़क रही थी ।
अब सियारिन तो थी दिन भर की भूखी प्यासी उससे मुर्दा देखकर नहीं रहा गया और बस उसका व्रत टूट गया लेकिन दूसरी तरफ़ चील ने नियमानुसार बडी श्रद्धा से व्रत खोला और पारण किया।
ऐसा माना जाता है और इन्हीं दोनों चील और सियारिन का जन्म स्त्रियों के रूप में एक ब्रहाण परिवार में बहनों के रूप में हुआ चील ने बड़ी बहन तथा सियारिन ने छोटी बहन के रूप में जन्म लिया।
यथासमय दोनों का विवाह हुआ । बड़ी बहन को सात पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई और छोटी बहन के रूप में सियारिन को अपने पिछले जन्म के कुकर्मो के फलस्वरूप दंड मिला।
उसकी सारी संतानें जन्म लेते ही मृत्यु हो जाती थी।
जीवित्पुत्रिका का ऐ पर्व इसलिए महिलाओं के लिए अत्यंत कल्याणकारी माना गया है।
जिसे औरतें नियमानुसार पालन करती है और भगवान जीऊतवाहन से अपने संतानों की सुख शांति और दीर्घायु जीवन की कामना करते हुए व्रत खोलती हैं ।
अतः इसलिए चील को औरतें आदर्श के रूप में मानती है और उसके जैसी होने की कामना करती है तथा सियारिन जैसी किसी औरत को नहीं होने के लिए कहती हैं।
जीवितपुत्रिका का त्यौहार अपार हर्ष के साथ आश्विन मास की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस पर्व में भगवान जीऊतवाहन के अलावा पितरो की पूजा का भी विधान है।
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