भगवान विष्णु के वराह और नरसिंह अवतार की कथा / Bhagwan Vishnu ke varah aur narsingh avatar ki katha
भगवान विष्णु को क्यों लेना पड़ा वराह और नरसिंह अवतार :
कश्यप ऋषि तथा उनकी पत्नी दीति के दो पुत्र हुए। हिरणायक्ष और हिरण्यकशिपु। दीति असुर कुल की थी अतः उसके दोनों पुत्रों में प्रबल आसुरी शक्तियां थी। जब इनका जन्म हुआ तो तीनों लोकों में भयंकर उत्पाद होने लगा । भयंकर आंधियां चलने लगीं। बिजलियाँ गिरने लगीं। नदियां और जलाशय सूख गए। दोनों दैत्य जन्म लेते ही आकाश तक बढ़ गए और उनका शरीर फौलाद के समान हो गया ।
हिरण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा की तपस्या की और वरदान प्राप्त किया कि उसकी मृत्यु न तो धरती मे होगी और न आकाश मे, न दिन में और न रात में, न घर में और न बाहर । न कोई मनुष्य न कोई जानवर। इस तरह वह ब्रह्मदेव के वरदान के पश्चात पूरी धरती पर राज्य करने लगा।
भगवान वराह के हाथों हिरणायक्ष का वध
अपने भाई हिरण्यकशिपु के आदेश पर हिरणायक्ष हर तरफ उत्पाद मचाता हुआ वरुण देव की नगरी मे पहुंचा और वरूण देव को अपने साथ युद्ध करने के लिए चुनौती दी।वरूण देव को क्रोध तो बहुत आया पर अपने क्रोध को दबाते हुए उन्होंने कहा-'मैं तुमसे युद्ध करने का सामर्थ्य नहीं रखता अगर तुम्हें युद्ध करना ही है तो नारायण के पास जाओ। वे ही तुमसे लड़ने का सामर्थ्य रखते हैं।
वरूण देव की बात सुनकर हिरणायक्ष नारद मुनि से नारायण का पता पुछने गया। नारद मुनि ने उसे बताया कि नारायण अभी वराह अवतार लेकर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए गए हुए हैं।
अतः हिरणायक्ष रसातल पहुंचा। वहां उसने भगवान वराह को अपनी दाढ़ पर रखकर पृथ्वी को लाते देखा।
उसने भगवान से कहा-'अरे जंगली पशु! तुम धरती को लिए कहाँ जा रहे हो। इसे तो ब्रह्मा ने हमें दे दिया है। मैं तुझे धरती को रसातल से लेकर जाने नहीं दूगां। तू दैत्यों का शत्रु है मैं तुझे मार डालूंगा।
हिरणायक्ष के वचनों को सुनकर भगवान वराह को क्रोध तो बहुत आया पर उन्होंने पृथ्वी को इस तरह से छोड़कर युद्ध करना उचित नहीं समझा और उसके कटु वचनों को सहते हुए जल से बाहर आए। हिरणायक्ष भी भगवान वराह का पीछा करते हुए आया और कहने लगा-'अरे कायर, तुझे भागते हुए लज्जा नहीं आती। आ और मुझसे युद्ध कर। पृथ्वी को उसके उचित स्थान पर रखकर भगवान वराह उस दुष्ट की ओर झपटे। हिरणायक्ष और भगवान वराह के बीच भयंकर युद्ध हुआ और अततः हिरणायक्ष की मृत्यु हुई।
भक्त प्रह्लाद और नरसिंह अवतार :
अपने भाई हिरणायक्ष की मृत्यु से हिरण्यकशिपु बौखला गया था और वह भगवान विष्णु से बदला लेने के लिए बेचैन हो गया। ब्रह्मा जी के वरदान के अंहकार मे वह निर्बल प्रजा पर अत्याचार करने लगा था। उसके पापों का फल तो उसे मिलना ही था । हिरण्यकशिपु का एक पुत्र भी था जिसका नाम प्रह्लाद था। एक ओर जहाँ हिरण्यकशिपु महापापी और अत्याचारी था वहीं दूसरी ओर प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और वह अपने पिता के कुकर्मों से बहुत दुखी रहता था। एक राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रह्लाद मे राक्षसी गुण बिलकुल भी नहीं था इसके विपरीत वह साधु प्रवृत्ति का और महान विष्णु भक्त था।
हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को भगवान विष्णु की भक्ति करते देखता और क्रोधित होता। उसने प्रह्लाद को रोकने के लिए कई चाले चली । यहां तक की उसे मारने के लिए भी कई षडयंत्र किए पर हर बार उसे असफलता ही मिली।
तब उसने हार कर अपनी बहन होलिका की मदद ली। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठी परंतु प्रह्लाद को आग की लपटें छू भी नहीं सकी जबकि होलिका जिसे आग छू भी नहीं सकती, वह इस आग में जलकर भस्म हो गई।
यह देखकर हिरण्यकशिपु को बहुत क्रोध आया । उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह प्रह्लाद को कैसे मारे?
तब उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को खुद ही मारने का निर्णय किया।
उसने प्रह्लाद को खंभे से बांध दिया और जैसे ही उसे मारने के लिए गया श्री नरसिंह भगवान प्रकट हुए और उसे अपनी जांघो मे रखकर उसके महल के चौखट मे बिना किसी हथियार के अपने नाखूनों से चीर कर मार डाला और भक्त प्रह्लाद की रक्षा की ।
० शिव-पार्वती विवाह
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० मूर्खता
कश्यप ऋषि तथा उनकी पत्नी दीति के दो पुत्र हुए। हिरणायक्ष और हिरण्यकशिपु। दीति असुर कुल की थी अतः उसके दोनों पुत्रों में प्रबल आसुरी शक्तियां थी। जब इनका जन्म हुआ तो तीनों लोकों में भयंकर उत्पाद होने लगा । भयंकर आंधियां चलने लगीं। बिजलियाँ गिरने लगीं। नदियां और जलाशय सूख गए। दोनों दैत्य जन्म लेते ही आकाश तक बढ़ गए और उनका शरीर फौलाद के समान हो गया ।
हिरण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा की तपस्या की और वरदान प्राप्त किया कि उसकी मृत्यु न तो धरती मे होगी और न आकाश मे, न दिन में और न रात में, न घर में और न बाहर । न कोई मनुष्य न कोई जानवर। इस तरह वह ब्रह्मदेव के वरदान के पश्चात पूरी धरती पर राज्य करने लगा।
भगवान वराह के हाथों हिरणायक्ष का वध
अपने भाई हिरण्यकशिपु के आदेश पर हिरणायक्ष हर तरफ उत्पाद मचाता हुआ वरुण देव की नगरी मे पहुंचा और वरूण देव को अपने साथ युद्ध करने के लिए चुनौती दी।वरूण देव को क्रोध तो बहुत आया पर अपने क्रोध को दबाते हुए उन्होंने कहा-'मैं तुमसे युद्ध करने का सामर्थ्य नहीं रखता अगर तुम्हें युद्ध करना ही है तो नारायण के पास जाओ। वे ही तुमसे लड़ने का सामर्थ्य रखते हैं।
वरूण देव की बात सुनकर हिरणायक्ष नारद मुनि से नारायण का पता पुछने गया। नारद मुनि ने उसे बताया कि नारायण अभी वराह अवतार लेकर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए गए हुए हैं।
अतः हिरणायक्ष रसातल पहुंचा। वहां उसने भगवान वराह को अपनी दाढ़ पर रखकर पृथ्वी को लाते देखा।
उसने भगवान से कहा-'अरे जंगली पशु! तुम धरती को लिए कहाँ जा रहे हो। इसे तो ब्रह्मा ने हमें दे दिया है। मैं तुझे धरती को रसातल से लेकर जाने नहीं दूगां। तू दैत्यों का शत्रु है मैं तुझे मार डालूंगा।
हिरणायक्ष के वचनों को सुनकर भगवान वराह को क्रोध तो बहुत आया पर उन्होंने पृथ्वी को इस तरह से छोड़कर युद्ध करना उचित नहीं समझा और उसके कटु वचनों को सहते हुए जल से बाहर आए। हिरणायक्ष भी भगवान वराह का पीछा करते हुए आया और कहने लगा-'अरे कायर, तुझे भागते हुए लज्जा नहीं आती। आ और मुझसे युद्ध कर। पृथ्वी को उसके उचित स्थान पर रखकर भगवान वराह उस दुष्ट की ओर झपटे। हिरणायक्ष और भगवान वराह के बीच भयंकर युद्ध हुआ और अततः हिरणायक्ष की मृत्यु हुई।
भक्त प्रह्लाद और नरसिंह अवतार :
अपने भाई हिरणायक्ष की मृत्यु से हिरण्यकशिपु बौखला गया था और वह भगवान विष्णु से बदला लेने के लिए बेचैन हो गया। ब्रह्मा जी के वरदान के अंहकार मे वह निर्बल प्रजा पर अत्याचार करने लगा था। उसके पापों का फल तो उसे मिलना ही था । हिरण्यकशिपु का एक पुत्र भी था जिसका नाम प्रह्लाद था। एक ओर जहाँ हिरण्यकशिपु महापापी और अत्याचारी था वहीं दूसरी ओर प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और वह अपने पिता के कुकर्मों से बहुत दुखी रहता था। एक राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रह्लाद मे राक्षसी गुण बिलकुल भी नहीं था इसके विपरीत वह साधु प्रवृत्ति का और महान विष्णु भक्त था।
हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को भगवान विष्णु की भक्ति करते देखता और क्रोधित होता। उसने प्रह्लाद को रोकने के लिए कई चाले चली । यहां तक की उसे मारने के लिए भी कई षडयंत्र किए पर हर बार उसे असफलता ही मिली।
तब उसने हार कर अपनी बहन होलिका की मदद ली। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठी परंतु प्रह्लाद को आग की लपटें छू भी नहीं सकी जबकि होलिका जिसे आग छू भी नहीं सकती, वह इस आग में जलकर भस्म हो गई।
यह देखकर हिरण्यकशिपु को बहुत क्रोध आया । उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह प्रह्लाद को कैसे मारे?
तब उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को खुद ही मारने का निर्णय किया।
उसने प्रह्लाद को खंभे से बांध दिया और जैसे ही उसे मारने के लिए गया श्री नरसिंह भगवान प्रकट हुए और उसे अपनी जांघो मे रखकर उसके महल के चौखट मे बिना किसी हथियार के अपने नाखूनों से चीर कर मार डाला और भक्त प्रह्लाद की रक्षा की ।
इस प्रकार नरसिंह भगवान ने अपने भक्त प्रह्लाद को सिहांसन पर बैठाया और खुद बैकुंठ लौट गए ।
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