राजपुत्र की कथा
कान्यकुब्ज देश में वीरसेन नाम का एक राजा था। उसने वीरपुर नगर में अपने पुत्र तुंगबल को वहां का राज्यपाल बना दिया।राज्यपाल बनकर तुंगबल स्वयं को किसी राजा से कम न समझने लगा।इस प्रकार एक दिन जब वह उस नगर में भ्रमण कर रहा था तो वहां उसने एक रूप-लावण्यमयी परम सुंदरी को देख लिया और काम-पीड़ित हो गया।वह अपने निवास स्थान पर लौट आया किन्तु उसके काम की ज्वाला किसी भी प्रकार शान्त न हुई।
तुंगबल को कोई उपाय नहीं सूझ रहा था कि वह कैसे उस लावण्यमयी रूपवती से मिले।अन्य कोई उपाय न देखकर उसने एक दूती का सहारा लिया और उस रूपसी का पता लगाने के लिए भेजा।
उधर उस रूपसी की भी वहीं दशा थी।वह भी तुंगबल जैसे सजीले जवान को देखकर कामातुर हो गई थी।तुंगबल द्वारा भेजी गई दूती उस रूपसी के पास पहुंची और उसे तुंगबल का संदेश दिया।दूती की बात सुनकर रुपसी कहने लगी-'मैं तो एक विवाहिता एवं पतिव्रता स्त्री हूं। इस पतिलंघन रूपी अधर्म के कार्य मे किस प्रकार आगे बढ़ सकती हूं।मैं तो वहीं करती हूं जो मेरे पति मुझे करने की आज्ञा देते हैं।'
'क्या यह बात सच है?' दूती ने उसकी बात सुनकर पूछा।
'हाँ, बिल्कुल सच है।' रूपसी ने कहा।यह सुनकर दूती वापस चली गई और उसने तुंगबल को सारा विवरण सुना दिया।
यह सुनकर तुंगबल बोला-'यह कैसे संभव है कि उसका पति स्वयं उसको लाकर मेरे हवाले कर दे?
दूती बोली-'आप उपाय तो करिए, क्योंकि कहा भी गया है कि उपाय करने से कभी-कभी वह कार्य भी सिद्व हो जाता है जो पराक्रम से संभव नहीं होता।
दूती ने तुंगबल को परामर्श दिया कि वह उस रूपसी के पति चारूदत्त को अपने पास नौकर रख ले। तुंगबल ने ऐसा ही किया। चारूदत्त को अपने पास नौकरी दे दी।इतना ही नहीं उसने कुछ समय बीतने पर चारूदत्त को सभी विश्वसनीय कामों पर भी नियुक्त कर दिया।
एक दिन तुंगबल ने चारूदत्त को बुलाकर आदेश दिया-'चारूदत्त, आज से मैं गौरी व्रत आरंभ कर रहा हूं।यह व्रत एक मास तक चलेगा।इसके लिए एक कुलीन स्त्री की आवश्यकता पडे़गी जिसका कि मैं नित्य पूजन करूंगा, तुम किसी ऐसी स्त्री की व्यवस्था करो।'
चारुदत्त ने अपने स्वामी के आदेश का पालन किया।उस दिन से वह नित्यप्रति तुंगबल को एक-एक स्त्री लाकर देने लगा। एक-दो बार उसने छिपकर यह देखने का प्रयास भी किया कि देखे वह स्त्री का पूजन किस प्रकार करता है, पर तुंगबल भी कम चतुर न था।वह दूर से ही उस स्त्री को धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन कराके अपने किसी रक्षक द्वारा उसे उसके घर भिजवा देता था।
यह देखकर चारूदत्त को विश्वास हो गया कि तुंगबल वास्तव मे स्त्री-पूजन करता है। फिर तो अगले ही दिन से वह नित्यप्रति अपनी पत्नी लावण्यमयी को वहां लाने लगा। तुंगबल की साध पूरी हो गई और वह लावण्यमयी के साथ स्वेच्छा से रमण करने लगा। लावण्यमयी भी इससें प्रसन्न थी।
जब वास्तविकता का पता चला तो चारूदत्त को भारी दुःख पहुंचा। पर अब हो क्या सकता था। उसने स्वयं ही तो अपनी पत्नी को तुंगबल को समर्पित किया था। इस प्रकार लावण्यमयी का वचन भी नहीं टूटा और तुंगबल का भी मनोरथ सिद्व हो गया।
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